बायरा ३४६० धार वायरा'-7 पुं० [P] कुश्ती वा एक पेंच । उसके पूर्वाभिमुख खड़े होने पर उत्तर की प्रोर हो । 'दहना' घायरा' -प्रय ० [हिं० बाहर, वायत (= खाली)] विना । का उलटा । जैसे,-बायां पैर, बायाँ हाथ, बाई आँख । उ०-दम ना दस जूलरणा दस पाखती बहंत । हेरुण धवला मुहा०-पायाँ देना = (१) किनारे से निकल जाना । बचा जाना वायरा, संचातारण करत ।-बापी० न०, भा० १, पृ० ४५ । जैसे,- रास्ते में कही वे दिखाई भी पड़े तो बायाँ दे जाते वाचल-वि० [हिं० पार्यो, बार्य ] (दांव) जो खाली न जाय । हैं। (२) जान बूझकर छोड़ना । मिलते हुए का त्याग (दांव) जो किसी का न पट्टे । (जुप्रादी) । करना । उ०-बायों दियो विभव कुरुपति को भोजन जाय संयो॰ क्रि० -- जाना। विदुर घर कीन्हों।—तुलसी (शब्द०) । बायाँ पाय पूजना= धाक मानना। हार मानना। वायल-संक पु० [० वायल ] झीनी विनावट का एक प्रकार का बारीक कपड़ा। २. उलटा । ३. प्रतिकूल । विरुद्ध । खिलाफ । प्रहित मे प्रवृत्त । उ०-बहुरि बंदि खलगन सति भाये । जे जिनु काज दाहिने पायलर-सग पु० [0] भाप के इंजन में लोहे प्रादि घातु का बायें ।—तुलसी (शब्द०)। बना हुगा वह बडा कोठा जिसमे भाप तैयार करने के लिये जल भरकर गरम किया जाता है। वार्यो-सज्ञा प० वह तबला जो बायें हाथ से बजाया जाता है यह वावला-वि० [हिं० वाप+ला (प्रत्य॰)] वायु उत्पन्न करने. मिट्टी या तधेि प्रादि धातु का होता है । इसे अकेला भी लोग ताल के लिये बजाते हैं । उ०-जहाँ तबले वी थाप, वायें की बाला । वायु का विकार बढ़ानेवाला । जैसे,-किसी को वैगन गमक सुनी वही जा धमके ।—फिसाना०, भा० १, पृ०४ । वायला पिसी को बैगन पथ्य । वायु-सज्ञा स्त्री० [सं० वायु ] दे० 'वायु' । घायनिन-राजा पु० [अ० वायलिन ] एक विशेष प्रकार का विला- यती तुवाच । इसे वेला या बेहला भी कहते हैं । उ०- बाय-क्रि० वि० [हिं वायाँ ] १. बाई ओर । २. विपरीत। विरुद्ध। वायलिन मुझसे वजा । कृकुर०, पृ०६। वायस'-पु. [ स० वायस ] दे० 'वायस' । उ०-लघु वायस मुहा०-बायें होना = (१) प्रतिकूल होना । विरुद्ध होना । (२) अप्रसन्न होना । रुष्ट होना। वपु धरि हरि संगा।-मानस, ७७५ । बारंबार-क्रि० वि० [सं० वारम्वार] बार वार | पुनः पुनः । लगातार । घायस-संज्ञा पुं० [अ० वाइस ] वजह । कारण । उ०-नालए रश्क न हो वायसे दरदे सरे मर्ग । गैर के सर पे लगाता है घार'-सज्ञा पुं० [सं० वार ] १. धार । दरवाजा । उ॰—(क) वह संदल घिरले ।-श्रीनिवास ग्र०, पृ० ८३ । प्रकिल बिहूना प्रादमी जान नही गवार । जैसे कपि परबस परयो नाचै घर घर बार ।-कबीर (शब्द॰) । (ख) सुवर वाय स्काउट-संशा पु० [अं०] विद्यार्थियों का एक प्रकार का सेन चहुमान सिंग जदून नवाई। जनु मदिर बिय वार सैनिक ढंग से संघटन जिसका प्रधान उद्देश्य विविध प्रकार ढंकि इक बार बनाई।-पृ० रा०, ३५१४७४ । (ग) गोपिन से समाज की सेवा करना है । जैसे,—कही आग लगने पर के प्रसुवन भरी सदा असोस अपार । डगर डगर नै ह रही तुरंत वहां पहुंचकर भाग बुझाना, मेले ठेले और पर्वो पर वगर बगर फ बार ।-विहारी (शब्द॰) । यात्रियो को पाराम पहुंचाना, चोर उचक्को को गिरफ्तार यौ०-दरवार। करना, पाहत या अनाथ रोगियो को यथास्थान पहुंचाना, २. माश्रयस्थान। ठिकाना । उ०-रहा समाइ रूप वह नाऊँ । उनके पवादारू और सेवा सुश्रूषा की की समुचित व्यवस्था और न मिल बार जहँ जाऊँ ।-जायसी (शब्द॰) । ३. करना, आदि। बालपर चमू । २. उक्त चमू या सेना का दरवार। सदस्य। पार-संज्ञा स्री० [सं० वार ] १. काल । समय । उ०-(क) पायस्कोप-संग पु० [अ०] एक यंग जिसके द्वारा पर्दे पर चलते- कविरा पूजा साहु की जनि करै खुधार । खरी बिगूचनि फिरते हिलते डोलते (विशेषतः मूब) चित्र दिखलाए जाते हैं । होयगी लेखा देती चार - कबीर (शब्द॰) । (ख) सिर विशेप-इस यंत्र मे एक छोटा सा छेद होता है जिसमे होकर लंगूर लपेटि पछारा । निज तन प्रगटेसि मरती बारा।- सामने फे पर्दे पर बिजली का प्रकाश डाला जाता है, फिर तुलसी (शब्द०)। (ग) इक भीजे चहले परे बूढ़े बहे हजार । एक पतला फीता जिसे 'फिल्म' कहते हैं चरखी से उस छेद कितने प्रौगुन जग करत नय वय चढ़ती बार ।-विहारी फ ऊपर तेजी से फिराया जाता है। यह फीता पतला, पार (शब्द०)। २. प्रतिकाल । देर । विलंब । बेर । उ०—(क) दर्शकौर तीला होता है। इसपर चित्रो की भाकृति निधड़क बैठा राम बिनु चेतन करों पुकार । यह तन जल का भिन्न भिन्न चेप्टा बी बनी रहती है जिसके शीघ्रता से युदबुदा विनसत नाही बार ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) देखि फिराए जाने से चित्र चलते फिरते हिलते डोलते दिखलाई रूप मुनि बिरति विसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी।- पढ़ते हैं। तुलसी (शब्द०)। (ग) प्रबही और की पौर होत कछु लागे घायाँ'-वि• [सं० वाम ] [ वि० सी० वाई ] १. किसी मनुष्य बारा । तातें मैं पाती लिखी तुम प्रान भधारा ।-सूर या और प्राणी के शरीर के उस पावं में पड़नेवाला पो (शब्द॰) ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२२१
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