पानि ३४५६ बापु पूतना बांधे बलि सो दानि । सपनखा ताड़ का संहारी श्याम (शब्द०) । २. एक प्रकार की पीली मिट्टी जिससे मिट्टी के सहज यह बानि-सूर (शब्द०)। (ग) थोरेई गुन रीझते बरतन पकाने के पहले रेंगते हैं । कपसा । विसराई वह बानि । तुमहूँ कान्ह मनो भए प्राजु कालि के वानी3-सज्ञा पुं० [सं० वणिक् ] बनिया । उ०—(क) ब्राह्मण छत्री दानि ।-विहारी (शब्द०)। पौरो वानी । सो तीनहु तो कहल न मानी ।-कवीर बानि--संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ण ] रंग । चमक । प्राभा । कांति । (शब्द॰) । (ख) इक बानी पूरब धनी भयो निधनी फेरि ।- उ०-(क) सुवा! बानि तोरी जस सोना। सिंहलदीप तोर (शब्द०)। फस लोना ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) हीरा भुजतावीज में बानी-सज्ञा श्री० [हिं० ] दे० 'वाणिज्य' । उ०—अपने चलन सोहत है यहि बानि । चद लखन मुखमीत जनु लग्यो भुजा सो कीन्ह कुवानी । लाभ न देख मूर भइ हानी । —जायसी सन आनि ।-रसनिधि (शब्द०)। (शब्द०)। बानिसज्ञा स्त्री० [सं० वाणी ] वाणी । वचन । उ०—करति कछु बानी" -मज्ञा पुं० [१०] १. बुनियाद डालनेवाला। जड़ जमाने- न कानि बकति है कटु बानि निपट निलज बैन विलखहूँ। वाला । २. प्रारंभ करनेवाला | चलानेवाला । प्रवर्तक । सूर (शब्द०)। बानत'–सञ्चा पुं० [हिं० बान + ऐत (प्रत्य॰)] १. वाना फेरने- वानिक-संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णक या हिं० बनना] वेश | भेस । सज- वाला। २. बाण चलानेवाला। तीरंदाज । ३. योदया। घज । वनाव सिंगार । उ०—(क) बानिक तैसी बनी न सैनिक । वीर । उ०-मानहूँ मेघ घटा प्रति गाढ़ी । बरसत बनावत केशव प्रत्युत ह गइ हानी । -केशव (शब्द०)। वान वूद सेनापति महानदी रन बाढ़ी । जहाँ वरन बादर (ख) यो वनि वानिक सो पदमाकर आए जु खेलन फाग बानत अरु दामिनि करि करि वार । उड़त धूर धुरवा तो खेलो।-पद्माकर (शब्द॰) । (ग) यहि वानिक मो मन धुर हीसत सूल सकल जलधार ।-सूर (शब्द॰) । (ख) बसो सदा बिहारीलाल ।—बिहारी (शब्द०)। विविध भांति फूने तरु नाना । जनु बानत बने बहु वाना - तुलसी (शब्द०)। घानिक-सज्ञा पु० [स० वणिक] दे॰ 'वणिक' । उ०-नयर मध्य कीटीस बसै वानिक अनंत लछि।-पृ० रा०, २५ । १७३ । बानत-सज्ञा पुं० [हिं० दाना ] वाना धारण करनेवाला । बाप-संज्ञा पुं० [सं० वप्ता, प्रा० बप्पा, बप्प, अथवा सं० वापक (= वीज बानिज-सज्ञा पु० [ स० वाणिज ] बनिया । वाणिज । उ०-एक बोनेवाला)1 पिता । जनक । उ०—(क) प्रथमै यहां पहुंचते अखि आज के वानिज की पराधीन होकर उसपर पड़ी।- परिगा सोक संताप । एक प्रचंभो औरो देखा बेटी व्याहै बेला, पृ० ५३ । बाप ।-कबीर (शब्द०)। (ख) बाप दियो कानन प्रानन बानिज्ज-संज्ञा पुं० [स० वाणिज्य, प्रा. वाणिज्ज] दे० 'वाणिज्य' । सुभानन सों बैरी भो दसानन सो तीय को हरन भो । उ.-बानिज्ज विनय भाषिच देस ।-पृ० रा०, ११७३४ । -तुलसी (शब्द०)। बानिन-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० बनी (= बनिया) ] बनिये की स्त्री। मुहा०-बाप दादा पूर्वज । पूर्वपुरुष । बापदादा बखानना = वानिनि-सज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वानिन' । उ०-बानिनि चली पूर्वजो को गाली देना या उनकी निंदा करना । बाप माँ = सेंदुर दिए मांगा।-जायसी ग्रं०, पृ० ८१ । रक्षक । पालन करनेवाला । बाप रे-दुःख, भय या आश्चर्य- वानिया-स्त्री० [सं० वणिक् ] [ स्त्री० यानिन ] एक जाति सूचक वाक्य । बाप बनाना = (१) मान करना । आदर का नाम जो व्यापार, दुकानदारी तथा लेन देन का कार्य करना । (२) खुशामद करना । चापलूसी करना । पाप तक करती है । वैश्य । उ०-बैठ रहे सो बानियाँ, खड़ा रहै सो जाना= वाप की गाली देना । चाप का= पैतृक । ग्वाल । जागत रहै सो पाहरू तीनई खोयो काल ।-कबीर पापड़ा-वि० [ प्रा० बप्पुड, गुज० वापड, हिं० बपुरा, वापुरा ] (शब्द०)। [वि॰ स्त्री० बापड़ी ] दे॰ 'वापुरा' । उ०—जाके गण गंधर्व बानी'-सज्ञा स्त्री० [स० वाणी ] १. वचन । मुंह से निकला ऋषि बापड़े ठाडिया । गावत प्राछै सर्वशास्त्र बहुरूप मंडलीक हुया शब्द । २. मनौती । प्रतिज्ञा। उ०-रह्यो एक द्विज पाछे ।-दक्खिनी०, पृ० ३० । नगर पहुं सो असि बानी मानि । देहु जो मोहि जगदीस सुत बापरना -क्रि० स० [सं० व्यापारण ] व्यवहृत करना । प्रयोग तो पूजों सुख मानि !-रघुराज (णब्द०)। में मुहा०-बानी मानना = प्रतिज्ञा करना । मनौती मानना । बापा-संज्ञा पु० [हिं० दे० 'बाप्पा'। ३. सरस्वती । ४. साधु महात्मा का उपदेश या वचन । जैसे,- बापिका-सज्ञा स्त्री० [सं० वापिका'] दे० 'वापिका' । उ.- कबीर को बानी, दादू की बानी । दे० 'वाणी'। बन उपवन वापिका तहागा। परम सुभग सब दिसा बानी-संज्ञा पुं० [सं० वर्ण ] १. वणं । रंग। भाभा । दमक । विभागा ।—तुलसी (शब्द०)। जैसे, बारहवानी का सोना । उ०-उतरहिं मेघ चढ़ाह वापी-संशा स्त्री॰ [ सं० पापी ] दे० 'वापी'। ले पानी । चमकहिं मच्छ बीजु की बानी। जायसी वापु-संज्ञा पुं॰ [ देश०] दे० 'बाप' । लाना।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२१७
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