पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/२०१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बागी ३४४० माछा तजहु जोग वैरागा । पहिरहु अब छत्री फर बागा।-चित्रा०, पृ०१४६। बागो-संज्ञा पुं॰ [प्र. बागी ] वह जो प्रचलित शासन प्रणाली अथवा राय के विरुद्ध विद्रोह करे । विद्रोही । राजद्रोही । बागीचा-संज्ञा पुं० [फा० वागीचङ् ] छोटा वाग। वाटिका । उपवन । उद्यान। वागीसा-संज्ञा पुं० [ सं० वागीश ] दे० 'वागीश'। उ०- मिलिहि जबहिं अब सप्तरिषीसा | जानिहु तव प्रमान बागीसा।-मानस, ११७५। वागुर -संज्ञा पुं० [ देश० ] पक्षी या मृग प्रादि फंसाने का जाल जिसे बागौर भी कहते हैं । उ०-बागुर विषम तोराइ मनहुँ भाग मृग भागवस ।-मानस, २१७५ । बागेसरी -संज्ञा स्त्री० [ सं० वागीश्वरी ] १. सरस्वती । २. संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो किसी के मत से भैरव, केदार, गौरी और देवगिरि प्रादि कई रागो तथा रागिनियों के मेल से बनी हुई संकर रागिनी है । याघंवर- संज्ञा पु० [सं० ध्याघ्राम्बर ] १. बाघ की खाल जिसे लोग विशेषतः साधु, त्यागी और अमीर बिछाने श्रादि के काम मे लाते हैं । २. एक प्रकार का रोएंदार कवल जो दूर से देखने पर बाघ की खाल के समान जान पड़ता है। बाघबरी-वि० [ स० व्याघ्राम्बर, हिं० बाघपर + ई (प्रत्य०) ] वह (साधु) जो बाघंबर धारण करता है। बाघबर प्रोढ़ने. वाला (साघु)। उ०-लाखो मौनी फिरै लाखो वाघंबरी । -पलटू० बानी, पृ०६३ । वाघ -सज्ञा पुं॰ [ स० ध्यान ] [ खी० बाधिन, याघिनी ] शेर नाम का प्रसिद्ध हिंसक जतु । विशेष-दे० 'शेर'। बाघनख-सञ्ज्ञा पुं० [सं० व्याघ्रनख ] दे० 'बघनखा' । बाघा-सज्ञा दे॰ [हिं० वाघ ] १. चौरायों का एक रोग । इसमें पशुओं का पेट फूल जाता है और वे सांस रुकने से मर जाते हैं | २. क्वारो की एक जाति का नाम । बाघी-सज्ञा स्त्री० [ देश० ] एक प्रकार की गिलटी जो अधिकतर गरमी के रोगियों को होती है। विशेष-यह पेड़ और जांघ की संधि में होती है । यह बहुन कष्टदायक होती है और जल्दी दबती नही । बहुधा यह पक जाती है और चीरनी पड़ती है। बाघुल-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की छोटी मछली । बाच-वि०, सज्ञा पुं० [ स० वाच्य ] दे० 'वाच्य' । उ.-उत पद त्वं पद और असी पद, बाच लच्छ पहिचानें।-कबीर श०, वाचना-क्रि० स० [हिं० बचना ] वचनी । सुरक्षित रहना । उ०-धोखा दे सब को भरमाचे सुर नर मुनि बाचे ।- कबीर० श०, भा० ४, पृ० २७ । बाचना-क्रि० स० बचाना । सुरक्षित रखना। वाचना-क्रि० स.[ स० वाचन ] पढ़ना । पाठ करना । यौचना । याचा-श पु० [सं० वाक्य या वाच्य ] वह बात जो कहना है । फघनीय वात । उ०—करी जु अग्ग सेख भेंट वुल्लियो सु वाचयं ।-ह० रासो, पृ० ५१ । बाचा-संशती. [सं० वाचा] १. बोलने की शक्ति । २. वचन । वातचीत । वाक्य । उ०—(क) राजन कुंभकरन वर मांगत शिव विरंचि वाचा छले ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) तव कुमार बोल्यो प्रम वाचा । मैं बंगाल दाम हो साचा।- रघुराज (शब्द०)। ३. प्रतिज्ञा। प्रण। उ०-वाचा पुरुष तुरुक हम बूझा परगट मेरु, गुप्त छल सूझा ।—जायसी (शब्द०)। चाचाबंध-वि० [सं० वाचा + बद्ध ] जिमने किसी प्रकार का प्रण किया हो । प्रतिज्ञाबद्ध । उ०-बाढ़ चढ़ती बेलरी उरझो पासा फद । टूट पर जूट नही भई जो बाचाबंध ।-कवीर (शब्द०)। बाच्छाहा-संशा पुं० [फा० बादशाह] दे॰ 'वाद शाह' । उ०-मालम का बाच्छाह दुहाई मुलुक में 1-लद्ध० वानी, पृ० ३० । वाछ'-संशा पु० [सं० वात, प्रा० यच्छ (= वर्ष) ] इजमाल । गांव में मालगुजारी, चंदे, कर प्रादि का प्रत्येक हिस्सेदार के हिस्से के अनुसार परता | बछोटा । बेहरी । मुहा०-बाछ करना = चंदा या वेहरी एकत्र करना या होना । बाछ डालना = चदे के द्वारा इकट्ठा करके लगान जमा करना। २. मुख । ३. होठ । ४. विमाग । हिस्सा। वाछ-संशा सी० [हिं० बाछे ] होठ के दोनों कोर। होठ का सिरा। मुहा-बाळे याना = होठो फा सिरा बाल पाने से ढंक जाना। मसें भीनना । बा खिलना = प्रसन्नता व्यक्त करते हुए हँसना । हंसी आना । मुस्कुराना । उ०-नवाब साहब की वाछे खिल गई:-झांसी०, पृ० १८५ । घाछ:--संज्ञा पुं० [हिं० ] दे॰ 'बाछा' । बाछ'-संज्ञा पुं॰ [ सं० वास (= निवास) ] वास । स्थिति । उ०- सतगुरु के सदकै कलं, दिल अपनी का साछ । कलियुग हमस्यू लड़ि पढ़या मुहकम मेरा बाछ ।-कबीर पं०, पृ०१। घछड़ा-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बछड़ा'। बछरा-राज्ञा पु० [हिं० ] 'बछड़ा'। उ०-कोउ करे पय पान को कौन सिद्धि कहि वीर । सुंदर बालक वाछरा ये नित पीवहिं खीर ।-सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३३ । बाछा-सज्ञा पुं० [ स० वत्सक, प्रा० बच्छ ] १. गाय का बच्चा । बछड़ा। उ०-गऊ निकसि बन जाही। बाछा उनका घर ही वाचक-वि० [सं० वाचक ] बोलने वाला। वक्ता । उ०—बाचक ज्ञानी बहुतक देखे । लच्छ ज्ञानी कोइ लेखे लेखे ।-चरण. बानी, पृ० ४२।