पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१७५

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बवंडा सा घूमना। पड़ी हुई घुम खंभे से प्राकार में ऊपर उठती हुई दिखाई साध्य और सबसे भीतरवाली वली में हो तो असाध्य होता देती है । चक्र की तरह धूमती हुई वायु । चक्रवात । बगूला । है । प्रर्शरोग छह प्रकार का कहा गया है-वातज, पिचज, क्रि० प्र०-उठना। कफज, सन्निपातज, रक्तज और सहज । - २. प्रचंड वायु । आँधी। तूफान । उ०-पाई जसुमत विगत बवियान-संज्ञा पु० [ ? ] एक प्रकार का यंत्र जिससे गुरज या बवंडर । बिन गोविंद लख्यो सो मंदिर। -गोपाल कोई अग्निपदार्थ फेंका जाता था। उ०-छुटै गुरजं ववियानन (शब्द०)। सें। पह ते पलटे मनो तारक सें1-पु. रा०, २५१५११ । ववंडाg -सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ववंडर'। वशर-सञ्ज्ञा पुं० [० ] व्यक्ति । मानव । उ०-जीते जी कद्र बवड़ना-क्रि० प्र० [सं० व्यावर्चन प्रा० व्यावहन ] इधर उधर बशर की नहीं होती प्यारे । याद पाएगी तुम्हें मेरी वफा घूमना । व्यर्थ फिरना । उ०-इत उत ही तुम डोलत बड़त मेरे बाद ।-प्रेमघन॰, भा॰ २ पृ० ६३ । करत मापने जी की । -सूर (शब्द॰) । बशिष्ट-संज्ञा पुं॰ [सं० वशिष्ठ ] दे० 'वशिष्ठ' । पडियाना-क्रि० अ० [हिं० बवढना ] निष्प्रयोजन इतस्ततः बशीरी-संज्ञा पुं० [५० बशीर ] एक प्रकार का बारीक रेशमी कपड़ा जो अमृतसर से पाता है । बव-संक्षा पुं० [सं० ] ज्योतिष के अनुसार एक करण का नाम । बष्कय-वि० [सं०] १. एक वर्ष का। २. पूर्ण युवा । जैसे, घवघूरा-संज्ञा पु० [हिं० वायु+घूर्णन ] [हिं० बाइ + घूरा ] बछड़ा [को०)। वगूला । बवंडर । उ०-फशवराह प्रकाश के मेह बड़े बवघूरन बष्कयणी-संशा स्त्री० [सं० ] वह गाय जिसको ब्याए हुए बहुत में तृण जैसे। केशव (शब्द॰) । समय हो गया हो । बकेना। वषन-संज्ञा पुं० [सं० वमन दे० 'वमन'। विशेष-ऐसी गाय का दूध गाढ़ा और मीठा होता है। बवनाg'-क्रि० स० [सं० वपन] १. दे० 'बोना'। जमने के बष्कयिणी-संशा सी० [सं०] दे० 'वष्कयणी'। लिये जमीन पर बीज डालना । उ०—करि कुरूप विधि पर- वस कीन्हा । बदा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा । तुलसी वष्कयनी, बकयिनी-संज्ञा स्त्री० [ सं० ] बकेना गौ [फो०] । (शब्द०)। २. छितराना । विखराना । बष्किह-वि० [सं०] वृद्धावस्था से जीणं । जराजोर्ण [को०] । घवनारे-क्रि० भ० छिटकना । छितराना । बिखरना । उ०-उधो बष्ट-वि० [सं०] मूर्ख । जड़ । प्रज्ञ [को०) । योग की गति सुनत मोरे अंग प्रागि वई ।—सूर (शब्द०)। वसंत-संज्ञा पुं॰ [ सं० वसन्त ] १. दे० 'वसंत' । २. दो हाथ ऊँचा एक प्रकार का पौधा । भवना@f-संज्ञा पुं॰ [सं० वामन ] दे० 'हावना' या 'वामन' । विशेप-यह पौधा प्राय: सारे भारत में और हिमालय में सात घवरना-क्रि० प्र० [हिं० बौर ] दे० 'बोरना', 'मौरना' । उ०- ववरे बौंड़ सीस भुई लावा । बड़ फल सुफर वही पे पावा ।- हजार फुट की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसकी पत्तियाँ चार पांच मंगुल लंबी पर गोलाकार होती हैं। फूल के जायसी (शब्द०)। विचार से इसके कई भेद होते है। बवादा-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] एक प्रकार की बड़ी या प्रोषधि जो वसंता-संज्ञा पुं० [हिं० घसंत ] हरे रंग की एक चिड़िया जिसका हलदी की तरह की होती है । सिर से लेकर कंठ तक फा भाग लाल होता है । बवाल-वि० [अ० बवाल ] जंजाल । झमेला । झंझट । बसंती'-वि० [हि. वसंत ] १. वसंत का। बसंत ऋतु संबंषी। यौ०-ववाले जान= भारी कष्ट का कारण । उ०-गोया जनाब कविसंमेलन क्या है एक ववाले जान है।- २. खुलते हुए पीले रंग का । सरसों के फूल के रंग का । कुंकुम, पृ०२॥ विशेष-वसंतागम में खेत में सरसों के फूलने का वर्णन होता बवासीर-संशा स्री० [१०] एक रोग का नाम जिसमें गुदेंद्रिय है। इससे वसत का रंग पीला माना जाता है। में मस्के या उभार उत्पन्न हो जाते हैं। इसमें रोगी को पीड़ा बसंती-सशा पुं० १. एक रंग का नाम । होती है और पाखाने के समय मस्सों से रक्त भी गिरता विशेष-यह रंग तुन के फूलों धादि में रंगने से पाता है । यह है। अर्थरोग। हलका पीला होता है। बसंत ऋतु में यह रंग लोगों को विशेष-पायुर्वेद में मनुष्य के मलद्वार में तीन वलियां मानी अधिक प्रिय होता है। गई हैं। सबके भीतर या ऊपर की ओर षो वली होती है २. पीला पक्ष । सरसों के फूल के रंग का कपड़ा । उसे प्रवाहिनी, मध्य में जो होती है उसे सनी कहते हैं । घसंदर-संवा पुं० [सं० वैश्वानर ] पाग। उ०-कथा कहानी इनके अतिरिक्त एक वली अंत में या बाहर की भोर होती सुनि जिउ बरा। जानहुँ घीउ बसंदर परा।-बायसी ग्रं०, है। इन्हीं विवलियों में अर्थ रोग होता है । यदि वाहरवाली पु०६७। वली में मस्से हों तो रोग साध्य, मध्यवाली में हो तो कष्ट बस-वि० [फा० ] पर्याप्त । भरपूर । प्रयोजन के लिये पूरा । .