पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१७२

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. बलिपशु बलीयस्' वलिपशु-संज्ञा पुं० [हिं० बलि+ पशु ] वह पशु जो किसी देवता जाय । बलिहारी वा दुःख की पल पल राम कहाय । कबीर के उद्देश्य से मारा जाय । उ०-लखइ न रानि निकट दुख (गब्द०)। (ख) बलिहारी पब क्यों कियो सैन सांवरे कैसे । चरइ हरित तृन वलिपशु जैसे । -तुलसी (शब्द०) । संग । नहिं कहुँ गोरे मंग ये लए झावरे रंग।-शृगार सत. बलिपुत्र-संज्ञा पुं० [सं०] बलि का पुत्र-वाणासुर [को०] । (शब्द०)। (ग) तुका बड़ो मैं ना मनू जिस पास बहुत दाम । बलिपुष्ट-संज्ञा पुं० [सं०] कौवा । बलिहारी उस मुख की जिस्ते निकसे राम |-दक्खिनी०, बलिपोदको-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] बड़ी पोय । पृ०१०७ बलिप्रदान - संज्ञा पुं० [सं०] बलिदान । - मुहा०-बलिहारी जाना = निछावर होना। कुरवान जाना। वलया लेना। उ०-दादू उस गुरुदेव की मैं बलिहारी वनिप्रिय-संज्ञा पुं० [सं०] १. लोध का पेड़ । २. कौवा । जाउ। आसन अमर अलेख था लै राखे उस ठाउँ। दादु बलिबंड-वि० [हिं० ] दे० 'बलवंड' । उ०-प्रथियराज चहुमान (शब्द०)। बलिहारी लेना = बलैया लेना । प्रेम दिखाना । बान पारथ बलिवंडह ।-पु० रा०, ६।१२८ । उ०-पहुंची जाय महरि मदिर में करत कुलाहल भारी । बलिबधन-संज्ञा पुं० [स० बलिवन्धन ] बलि को बांधनेवाले दरसन करि जसुमति सुत को सब लेन लगी बलिहारी। विष्णु [को॰] । -सूर (शब्द०)। बलिहारी है ! = मैं इतना मोहित या बलिभुक्सचा पु० [ सं० ] कौवा । प्रसन्न हूँ कि अपने को निछावर करता हूँ। क्या कहना है । पलिभुज-संज्ञा पुं॰ [सं०] दे० 'बलि भुक्' । विशेष-सुदर रूप रंग, शोभा, शील स्वभाव, श्रादि को देख वलिभृत-वि० [सं० बलिभृत्] १. करद । करदाता । कर देनेवाला । प्रायः यह वाक्य बोलते हैं। किसी की बुराई, बेढगेसन या २. अधीन । विलक्षणता को देखकर व्यंग्य के रूप में भी इसका प्रयोग घलिभोज, बलिभोजन-संज्ञा पुं० [सं०] कौवा । वहुत होता है। बलिभोजी-संज्ञा पुं० [सं० बलिभोजिन् ] दे० 'बलिभोज' । बलिहत्'-वि० [सं०] १. वलि लानेवाला । भेंट लाने वाला। बलिया-वि० [हिं० बल +इया (प्रत्य०) अथवा सं० बलीयस ] २. करप्रद । करदाता । कर देनेवाला । बलवान् । ताकतवर । जैसे,—किस्मत के वलिया। पकाई बलिहत्'--संज्ञा पुं० राजा । खीर, हो गया दलिया ।-(कहा०) । उ०-जम किंकर मोर कि करत अंगे। रह अपराधी बलिया संगे। विद्यापति, बलींडा - संज्ञा स्त्री० [सं० वलीक ] बड़ेरा। उ०-ौ लौ ठीका चढ्या बली. जिनि पीया तिनि माना | -कबीर न, पु०५७६। पृ०६०। बलिवर्द-संज्ञा पुं० [सं०] १. सांड़ । चेल । बली'-वि० [ स० लिन् ] बलवान् । बलवाला । पराक्रमी । बलिवैश्वदेव-संज्ञा पुं० [सं०] भूतयज्ञ नामक पाँच महायज्ञों में बली२-१. साड़। वृषभ । २. महिष । ३. ऊंट । ४. शूकर । ५. चौथा यज्ञ। इसमें गृहस्थ पाकशाला में पके अन्न से एक ग्रास एक तरह की वमेली। ६. बलराम । ७. सैनिक । सिपाही । लेकर मंत्रपूर्वक घर के भिन्न स्थानों में मूसल आदि पर तथा काकादि प्राणियों के लिये भूमि पर रखता है। बलि:--सज्ञा सी० [सं० बलि, वली ] १. चमड़े पर की अरौं । २. वलिश-संञ्चा पुं० [सं०] बंसी। कंटिया । वह रेखा जो चमड़े के मुड़ने या सिकुड़ने से पहती है । दे० 'बली' । ३. दे० 'बलि' । ४.@ लता। वल्ली। बलिष्ठ'-वि० [सं०] अधिक बलवान । बलिष्ठ-संक्षा पुं० [सं०] ऊँठ। बलीक-संचा पुं० [सं०] छाजन के किनारे का भाग [को०] । बलिष्णु-वि० [सं०] अपमानित । बलोता-सञ्ज्ञा पुं० [ हिं० ] दे॰ 'पलीता' उ०—दोइ पुड़ जोड़ चिगाई भाठी, तुया महारस भारी। काम कोष दोइ किया घलिसद्म-संज्ञा पुं० [सं० बलिसझन् ] बलि का गृह या वेश्म । बलीता, छूटि गई संसारी। -कबीर पं०, पृ० ११० । पाताल [कोग। बलीन'-ज्ञा पुं० [स०] १. विच्छू । २. एक असुर का नाम । वलिसुत-संज्ञा पुं० [सं० बलिसुत] बलि का पुत्र | बाणासुर को०] । लिहार-संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'बलिहारी'। उ०-जीवन या बलीन-वि० [सं० बलिन् ] दे० 'बली'। बलिहार, तुम्हारा पार न पाया ।-प्रचंना, पृ० २२ । बलीना-सज्ञा स्त्री॰ [ यू० फैलना ] एक प्रकार की हल मछली। 'पलिहारना-कि० स० [हिं० बलि+हारना] निछावर कर देना। बलीबैठक-संशा सा [हिं० बली + बैठकं ] एक प्रकार की बैठक कुर्बान कर देना । चढ़ा देना । उ०-विश्व निकाई विधि ने जिसमें जंधे ,पर भार देकर उठना बैठना पड़ता है। इससे उसमें की एकत्र बटोर । बलिहारी त्रिभुवन धन उसपर वारों जांघ शीघ्र भरती है। काम करोर ।-श्रीधर (शब्द॰) । बनीमुख-संज्ञा पुं० [सं० वलिमुख ] बंदर । उ०-चली वलीमुख बलिहारी--संक्षा नी[हिं० वलि + हारी ] निछावर । फुरबान । सेव पराई । अति भय त्रसित न कोउ समुहाई। -तुलसी प्रेम, भक्ति, श्रद्धा आदि के कारण अपने को उत्सर्ग कर (शब्द०)। देना। 30-(क) सुख के माथे सिख परे हरि हिरदा सो यनीयस्-वि० [सं०] [ वि० सी० बलीयसी ] अत्यधिक बलवाला ।