पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१६६

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बेलइयों ६४०५ बलकाना फलों के रस से लोहे पर के दाग भी साफ किए जाते हैं । कमर बल खाती जाति ( गीत ) । (ख) बल खात दिग्गज इसकी लकड़ी से खेती के प्रौजार भी बनाए जाते हैं । कोल कूरम शेष सिर हानति मही।-विधाम (शब्द०)। बलइया -संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'वलया' । उ०-संत की सकल ७. कज । कसर। कमी। अंतर। फर्क । जैसे,—(क) पांच बलइया लेवें। संत कू अपनो सर्वस देवै ।-चरण बानी, रुपए का बल पड़ता है नही तो इतने में मैं प्रापके हाथ वेव पृ० ३१०। देता । (ख) इसमें उसमें बहुत बल हैं । बल'-संज्ञा पुं० [मं०] १. शक्ति । सामर्थ्य । ताकत । जोर । बूना । मुहा० - बल खाना = घाटा सहना । हानि सहना । खचं करना । पर्या० -पराक्रम । शक्ति । चीयं । जैसे,—विना कुछ बल खाए यहाँ काम न होगा। बल्ल पड़ना = (१) मतर होना । फर्क रहना । (२) कमी वा घाटा मुहा०-बलभरना = बल दिखाना । जोर दिखाना । जोर करना । होना। बल की लेना= इतराना । घमंड करना। ८. अधपके जौ की वाल । २. भार उठाने की शक्ति । सँभार । सह । ३. प्राश्रय । सहारा । बल-अव्य [हिं० ] तरफ । अोर । उ०-सांवला सोहन जैसे, हाथ के बल, सिर के घल, इत्यादि। ४. प्रासरा । भरोसा । मोहन गभरू इत बल प्राह गया ।-घनानद, पृ० ४४ । बिर्ता। उ०—(क) जो पंतह पस करतब रहेऊ। मांगु मागु तुम्ह केहि बल कहेऊ ।-तुलसी (शब्द०)। (ख) बला --संज्ञा पु० [हिं०] 'वाल' शब्द का समासगत रूप । जैसे, कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर वल बलट और बलतोड़ । पाई।—तुलसी (शब्द० 1 ५. सेना। फौज । ६. बलदेव । वलकंद-पशा पुं० [सं० बलकन्द ] माला कंद । वलराम । ७. एक राक्षस का नाम । ८. वरुण नामक वृक्ष । बलक-शा पुं० [स०] १. स्वप्न जो अर्धरात्रि के बाद हो । २. ६. सत्य (को०)। १० काम (को०)। ११. पुरुष तेज । शुक्र दूध और सीरे का मिश्रण को०] । (को०)। १२. प्रौषधि (को०) । १३. मोटाई । स्यूलता (को॰) । बलकट-ज्ञा पुं० [हिं० बाल+काटना] पौधे की बाल को बिना १४. रक्त (को०)। १५. काक, कौमा (को०)। १६. हाथ काटे तोड़ लेना। (को०) । १७. पावं । पहलू । जैसे, दहने बल, वाएं बल । बलफट-वि० [१] पेशगी। पगाऊ । अगौढ़ी। वल-संज्ञा पुं० [सं० वलि ( = भुरीं मरोड़ ) श्रयवा वलय ] बलकटी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० बल (=जौ की थाल)+कट ] मुसल- ऐंठन । मरोड़। वह चक्कर या घुमाव जो किसी लचीली या मानी राज्य काल की एक प्रकार की किस्त जो फसल कटने नरम वस्तु को बढ़ाने या घुमाने से बीच बीच में पड़ जाय । के समय वसूल की जाती थी। क्रि० प्र०-पड़ना।-होना । चलकना -क्रि० अ० [सं० वल्गन (= बढ़कर बोलना)] १. उबलना । उफान खाना । खौलना। २. उमड़ना । उमगना । मुहा०-बल खाना = ऐंठ जाना । पेच खाना । बटने या घुमाने उमंग या मावेश मे होना । जोश में होना । उ०—(क) प्रेम से घुमावदार हो जाना। बल देना = (१) ऐंठना । मरोड़ना । पिए बर बारुणी बलकत बल न संभार | पग डग मग जित. (२) वटना। तित धरति मुकुलित अलक लिलार ।-सूर (शब्द॰) । २. फेरा । लपेट । जैसे,-कई वल वाघोगे तब यह न छूटेगा। (ख) बलकि बलकि वोलति बचन ललकि ललकि लपटाति । ३. लहरदार घुमाव | गोलापन लिए वह टेढ़ापन जो कुछ बिहारी (शब्द०)। ३. बकना झकना । बढ़कर बोलना। दूर तक चला गया हो । पेच । उ०-कहत है और करत है औरे बलकत फिरत अनेरा।- क्रि० प्र०-पदना। भीखा० श०, पृ०४। मुहा०-पल खाना = घुमाव के साथ टेढ़ा होना । कुंचित होना । वलकनि-मंशा स्त्री० [हिं० वलकना ] बलकने की स्थिति या उ०-कंधे पर सुदरता के साथ बनाई गई काल सापनी ऐसी भाव । मौज । उफान । लहर । तरंग । उ०-नीकी पलकनि वल खाती हिलती मन मोहनेवाली चोटी थी।-प्रयोध्या पीक लोक झलकनि सोहै, रस वलकनि उनमदि न कहूँ सिंह (शब्द०)। रुके ।-घनानद, पृ०११ । ४. टेढ़ापन | कज । खम । जैसे,—इस छड़ी में जो वल है वह हम बलकर'-वि० [स०] [वि० सी० बलकरी] बल देनेवाला । बलजनक । निकाल देंगे। वलकर-संश्चा पुं० हड्डी। मुहा०-बल निकालना = टेढ़ापन दूर करना । बलकल -संज्ञा पुं० [सं० पल्कल ] दे० 'वल्कल'। उ०- ५. सुरुहन । शिकन । गुलझट । उरझ्यो काहू रूख में कहूँ न बलकल चीर ।-शकुंतला, क्रि० प्र०-पड़ना। पृ० ३७॥ ६. लचक । झुकाव । सीधा न रहकर बीच से झुकने की मुद्रा । बलकाना-क्रि० स० [हिं० बलकना ] १. उबालना । खोलाना। मुहा०-बल खाना = लचकना । झुकना। उ०—(क) पतलो २. उभारना। उमगाना। उत्तेजित करना। उ०-जोवर पेच ।