पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१२६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वदनी ३३६५ बैदीवन संयो॰ क्रि०-जाना। मुहा०-चढ़ कर चलना= इतराना । घमंड करना । बढ़ बढ़कर बातें बनाना = डीग मारना। शेखी बघारना। गुस्ताखी करना । उ०-जरा शेख जी बढ़ चढ़कर बातें न बनाया कीजिए ।—फिसाना०, भा०, १, पृ० १०॥ बढ़कर बोलना या बढ़ चढ़कर बोलना= दे० 'बढ़ बढ़कर बातें बनाना' । यौ०-बढ़ा यदी = वढ बढ़कर बातें करना । अपनी सीमा भूलकर कुछ कहना या करमा। गुस्ताखी करना । उ०-यह तुम्हारी वढ़ा वढ़ी मैं सहन नही कर सकता।-अजात०, पृ० २४ । ५. किसी स्थान से प्रागे जाना । स्थान छोड़कर भागे गमन करना। अग्रसर होना। चलना । जैसे,—(क) तुम बढ़ो तव तो पीछे के लोग चलें । (ख) बढ़े प्रामो, बढ़े पापो । सयो० कि०-थाना-जाना । मुहा०-पतग बढ़ना = पतंग का और ऊंचाई पर जाना। ६. चलने में किसी से पागे निकल जाना। जैसे,-दौड़ने मे वह तुमसे बढ़ जायगा। संयो० कि०-जाना । ७. किसी से किसी बात मे अधिक हो जाना। जैसे,—पढ़ने मे वह तुमसे बढ़ जाएगा। यो०- बढ़ चढ़कर, या घदा चदा अधिक उन्नत । विशेषतर । ८. भाव का घढ़ना। खरीदने में ज्यादा मिलना | सस्ता होना। जैसे,-प्राजकल अनाज बढ़ गया है। संयो० कि०-जाना। ६. लाम होना । मुनाफे में मिलना । जैसे,-कहो, क्या बढ़ा । १०. दुकान मादि का समेटा जाना । बंद होना । जैसे, पुजापा बढ़ना, दुकान बढ़ना। विशेष-'वंद होना' अमंगलसूचफ समझकर लोग इस क्रिया का व्यवहार करने लगे हैं। ११. दीपक का निर्वाप्त होना । चिराग का वुझना । उ०—ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कुपूत गति सोय। बारे उजियारो लगै, बड़े अंधेरो होय ।-रहीम (शब्द॰) । बढ़नी - संज्ञा स्त्री० [सं० वर्द्धनी, प्रा० चड्ढनी] १. झाडू । बुहारी। कूचा। मानी। २. पेशगी अनाज या रुपया जो खेती या और किसी काम के लिये दिया जाता है। बढ़वन-वि० [हिं० बढ़ना ] वढ़ानेवाला। उ०-सुनि देसांतरा चिरह विनोद । रसिक जनम मन बढ़वन मोद।-न'द० प्र०, पृ०१६३। बढ़वारिरी-सज्ञा सी० [हिं० बढ़ + वारि (प्रत्य॰)] दे० 'बढ़ती' । उ.-मोहन मोहे मोहनी, भई नेह बढ़वारि । -नज० ग्रं० पृ०६। पदान-सहा श्री० [हिं० पढ़ना ] बढ़ने का भाव । वृद्धि । बढ़ती। उ.-शास्त्र की लंबाई की कटान या बढ़ान कला की ऊँचाई निचाई पर निर्भर है।-काव्य ०, पृ०६। बढ़ाना-क्रि० स० [हिं० बढ़ना का सकर्मक अथवा प्रेर०] १. विस्तार या परिमाण में अधिक करना। विस्तृत करना । डील डौल, प्राकार या लंबाई चौड़ाई में ज्यादा करना। धित करना । जैसे, दीवार वढाना, मकान बढ़ाना । संयोक्रि०-देना |-लेना। मुहा०-यात बढ़ाना= झगड़ा करना बात बढ़ाकर कहना%3 प्रत्युक्ति करना। २. परिमाण, संख्या या मात्रा में अधिक करना। गिनती, नाप तौल आदि में ज्यादा करना। जैसे प्रादमी बढ़ाना, खर्च चढ़ाना, खुराफ बढ़ाना । संयो० कि०-देना ।-लेना । ३. फैलाना । लदा करना । जैसे, तार बढाना । ४. बल, प्रभाव गुण प्रादि में अधिक करना। प्रसर या खासियत वगैरह में ज्यादा करना। अधिक व्यापक, प्रबल या तीन करना । जैसे दु.ख बढाना, क्लेश बढ़ाना, यश बढ़ाना, लालच बढाना। संयो० कि०-देना ।-लेना। ५. पद, मर्यादा, अधिकार, विद्या, बुद्धि, सुखसंपत्ति प्रादि में अधिक करना । दौलत या रुतवे वगैरह का ज्यादा करना। उन्नत करना। तरक्की देना । जैसे,—राजा साहब ने उन्हें खूब बढ़ाया । ६. किसी स्थान से आगे ले जाना। आगे गमन कराना । अग्रसर करना । चलाना । जैसे, घोड़ा बढ़ाना, भीड़ बढ़ाना। मुहा.-पतंग बढ़ाना = पतंग और ऊंचे उड़ाना । ७. चलने में किसी से प्रागे निकाल देना। 5. किसी बात में किसी से अधिक कर देना । ऊँचा या उन्नत कर देना । ९. भाव अधिक कर देना । सस्ता बेचना। जैसे,-बनिए' गेहूँ नहीं बढ़ा रहे हैं। १०. विस्तार करना। फैलाना । जैसे, कारवार बढाना । ११. दूकान प्रादि समेटना । नित्य का व्यवहार समाप्त करना । कार्यालय वद करना । जैसे, दुकान बढ़ाना, काम बढ़ाना। १२. दीपक निर्वाप्त करना । चिराग बुझाना । उ०—पंग मंग नग जगमगत, दीपसिखा सी देह । दिया बढ़ाए हू रहै बड़ो उजेरो गेह ।-बिहारी (शब्द०)। बढ़ाना-फ्रि० प्र• घुकना । समाप्त होना । बाकी न रह जाना । खतम होना। उ.-(क) मेघ सबै जल बरखि बढ़ाने विवि गुन गए सिराई । वैसोई गिरिवर ब्रजवासी दूनो हरख बढ़ाई। सूर (शब्द०) । (ख) राम मातु उर लियो लगाई। सो सुख कैसे बरनि बढ़ाई।-रघुराज (शब्द०)। (ग) गिनति न मेरे प्रघन की गिनती नही बढाइ । असरन सरन कहाइ प्रभु मत मोहिं सरन छुड़ाइ।-स० सप्तक, पृ० २२६ । बढ़ाली -संज्ञा स्त्री॰ [ देश० बड्डाली ] कटारी । कटार । बढाव-संज्ञा पुं० [हिं० बढ़ना+भाव (प्रत्य॰)] बढ़ने की क्रिया या भाव । २. फैलाव । विस्तार । प्राधिक्य । अधिकता। ज्यादती । ३. उन्नति । वृद्धि । तरक्की । बढ़ावन-संज्ञा स्त्री० [हिं० बढ़ावना ] १. गोबर की टिकिया जो बच्चों की नजर झाड़ने मे काम भाती है । २. खलिहान में