पताकरा २०५४ पतारी' वैजयंती। ताकरा-सञ्ज्ञा पुं॰ [ देश ] एक वृक्ष जो वंगाल आसाम और ६ नाटक में वह स्थल जहां किसी पात्र के चिंतागत भाव पश्चिमी घाट मे होता है। इसकी लकडी सफेद रंग की और या विषय का समर्थन या पोषण आगंतुक भाव से हो । मजबूत होती है और गृहनिर्माण में इसका बहुत उपयोग विशेष-जहाँ एक पात्र एक विषय में कोई बात सोच रहा हो किया जाता है । इसके फल खाए जाते हैं। और दूसरा पात्र पाकर दूसरे सबध में कोई बात कहे, पर ताकांक-प्रज्ञा पुं० [स० पताका] दे० 'पताकास्थान' । उसकी बात से प्रथम पात्र के चिंतागत विषय का मेल या ताकांशु, पताकांशुक-सशा पु० [ स० ] झडा। झडी। पताका । पोषण होता हो वहाँ यह स्थल माना जाता है। विशेष दे० 'नाटक'। पताका का कपडा। पताका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स०] १ लकही आदि के डडे के एक सिरे ७ पिंगल के प्रत्ययो में से ८वां जिसके द्वारा किमी निश्चित पर पहनाया हुपा तिकोना या चौकोना कपडा, जिसपर गुरुलघु वर्ण के छद अथवा छदो का स्थान जाना जाय । कभी कभी किसी राजा या सस्था का खास चिह्न या सकेत विशेष-उदाहरणार्थ, प्रस्तार द्वारा यह मालूम हुआ कि ८ चित्रित रहता है। कहा । झडी। फरहरा । विशेष -दे० मात्रामो के कुल ३४ छदभेद होते हैं और मेरु प्रत्यय द्वारा 'ध्वज' । उ०-धवल घाम चहुँ ओर फरहरत घुजा पताका । यह भी जाना गया कि इनमे से ७ छद १ गुरु और ६ लघु -भारतेंदु ग्र०, मा० १, पृ० २८२ । वर्ण के होगे। अब यह जानना रहा कि ये सातो छद किस विशेष-साधारणत मगल या शोभा प्रकट करने के लिये किस स्थान के होंगे । पताका की क्रिया से यह ज्ञात होगा कि पताका का व्यवहार होता है । देवताओ के पूजन मे भी लोग १३३, २१, २६वें, २६वें, ३१वें, ३२, ३३वें, स्थान के पताका खडी करते या चढाते हैं। युद्धयात्रा, मगलयात्रा छद १ गुरु और ६ लघु के होगे। पादि मे पताकाएं साथ माथ चलती हैं। राजा लोगो के ८ नाट्यशास्त्र के अनुसार प्रासगिक कथावस्तु के दो भेदो मे ते साथ उनके विशेष चिह्न से चित्रित पताकाएं चलती एक । वह कथावस्तु जो सानुबध हो और वरावर चलती हैं। कोई स्थान जीतने पर राजा लोग विजयचिह्न स्वरूप रहे । प्रासगिक कथावस्तु का दूसरा भेद 'प्रकरी' है। अपनी पताका वहाँ गाडते हैं। पताकादड-सञ्ज्ञा पु० [ म० पताकादण्ड ] पताका का डडा । झडे का पर्या-कदुली । कदली । कदालिका । जयती । चिढ़। ध्वजा । डडा। ध्वजदड। पताकास्थान-सञ्ज्ञा पुं० [म.] नाटक में वह स्थान जहाँ पताका क्रि०प्र०-उदना ।-उहाना ।-फहराना। हो। दे० 'पताका-६'। मुहा०-(किसी स्थान मे अथवा किसी स्थान पर) पताका पताकास्थानक-मशा पु० [सं०] दे० 'पताकास्थान'। उड़ना = अधिकार होना । राज्य होना। जैसे,-कोई समय पताफिक-सज्ञा पु० [स०] पताकाधारक । झडाबरदार । झडी था जब इस सारे देश में राजपूतो की ही पताका उडा उठानेवाला। करती थी। समकक्षरहित होना। सर्वप्रधान होना । सबसे पताकिनी-सञ्ज्ञा स्त्री० [म०] १ सेना । ध्वजिनी । २ एक देवी। श्रेष्ठ माना जाना । जैसे,-याज व्याकरण शास्त्र मे अमुक पताकी-मञ्चा पु० [ म० पताकिन् ] [ली. पताकिनी ?] १ पताका- पडित की पनाका उह रही है। ( किसी वस्तु की ) पताका घारी। झही उठानेवाला। २. रथ। ३. एक योद्धा जो उहना = प्रसिद्ध होना । धूम होना। जैसे,—( क ) आपकी महाभारत मे कौरवो की ओर से लडा था । ४ झडा । ध्वज । दानशीलता की पताका चारो ओर उड रही है। पताका ५ फलित ज्योतिष में राशियो का एक विशेष वेध जिससे उड़ाना = अधिकार करना। विजयी होना। जैसे,-घबराने जातक के अरिष्ट काल की अवधि जानी जाती है। की बात नहीं, आज नहीं तो कल आप अवश्य ही इस दुर्ग पर अपनी पताका उडावेंगे। पताका गिरना = हार होना। पग- पतापत-वि० [न०] अतिशय पतनशील । बहुत गिग हुआ (को०] । पतामी- संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की नाव । जय होना । जैसे,—दिन भर शत्रुप्रो के "नाको चने चववाने के पीछे अत को सायकाल पराक्रमी राजपूतो की पताका पतार@-मज्ञा पु० [ म० पाताल ] १ ० 'पाताल'। उ०- गिर गई। पताकापतन या पताकापात = पताका गिरना । विक्रम घसा पेम के वारी। सपनावति कह गएउ पतारी। पताका फहराना = (१) पताका उटना। (२) पताका उडाना -पदमावन, पृ० २७६ । . जगल । सघन वन । उ०- विजय की पताका - विजयी पक्ष की वह पताका जो विजित निकमि ताडुका वन ते रघुपति निरस्यो दूरि पहारा । ताके पक्ष की पताका गिराकर उसके स्थान पर उडाई जाय । निकट मेघ इव महित देख्यो श्याम पतारा । -रघुराज विजयसूचक पताका । (शब्द०)। २ वह इडा जिसमे पताका पहनाई हुई होती है। ध्वज। ३ पतारी'-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] वत्तख की जाति का एक जलपक्षी। सौभाग्य । ४ तीर चलाने मे उँगलियों का एक विशेष विशेष-यह उत्तर भारत मे जलाशयो के किनारे पाया जाता न्यास या स्थिति । ५ दस खर्व की संख्या जो प्रको मे है। ऋतु के अनुसार यह अपने रहने के स्थान में परिवर्तन इस प्रकार लिखी जायगी--१०,००,००,००,००,००० । करता रहता है । इसका शिकार किया जाता है। 1
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