पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/५२४

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प्रार्थक प्रायश्चित्त ३२३३ प्रायश्चित्त-सज्ञा पुं० [सं०] १ शास्त्रानुसार वह कृत्य जिसके करने प्रयोद्वीप-समा पु० [सं०] दे 'प्रायद्वीप'। से मनुष्य के पाप छूट जाते हैं। उ०-में जिऊ लोकापवाद प्रयोपगमन-उमा पु. [ ०] पाहार त्याग कर मरने पर उधत निमित, तब न होगा तनिफ प्रायश्चित्त ।-साकेत, पृ० १६० होना। अनशन व्रत द्वारा प्राण परित्याग करने का प्रयत्न । विशेष-यह दो प्रकार का होता है एक व्रत दूसरा दान । भूखों मरकर जान देना। पाास्त्रो मे भिन्न भिन्न प्रकार के कृत्यो का विधान है। किसी प्रायोपयोगिक-वि० [स] प्राय. उपयोग मे पानेवाला । सामान्य । पाप में व्रत का, किसी मे दान का, किसी में व्रत और दान साधारण [को०)। दोनो का विधान है। लोक में भी समाज के नियमविरुद प्रायोपविष्ट-वि० [१०] जिसने प्रायोपवेषा प्रत किया हो । कोई काम करने पर मनुष्य को समाज द्वारा निर्धारित कुछ कर्म करने पडते हैं जिससे वह समाज में पुन व्यवहार योग्य प्रायोपवेश-मक्षा पुं० [ 10 ] १ वह घनशन प्रत जो प्राण त्यागने के निमित्त किया जाता है। २. अन्न और जल त्याग कर होता है। इस प्रकार के कृत्यो को भी प्रायश्चित्त कहते हैं। मरने के लिये तैयार होकर बैठना । २. जैनियो के मतानुसार वे नौ प्रकार के कृत्य जिनके करने से पाप की निवृत्ति होती है-(१) पालोचन (२) प्रतिक्रमण, प्रायोपवेशन-शा पुं० [ मं० ] ० 'प्रायोपवेश' । (३) मालोचन प्रतिक्रमण, (४) विवेक, (५) व्युत्सर्ग, (६) प्रायोपवेशनिका-मझा रही [ म०] प्रायोपवेशन । अनशन प्रत । तप, (७) छेद, (८) परिहार, (९) उपस्थान और (१०) प्रायोपवेशी-वि० [स० प्रायोपवेशिन् ] [वि० मा प्रायोपवेगिनी ] दोप। प्रायोपवेशन व्रत करनेवाला। क्रि० प्र०-लगना। प्रायोपेत-वि० [सं०] प्रायोपवेशन व्रत का नती। प्रायोपवेश व्रत प्रायश्चित्ति-सशा सी० [स०] दे० 'प्रायश्चित्त' । करनेवाला। प्रायश्चित्तिक-वि० [सं०] १. प्रायश्चित्त के योग्य । प्रायश्चित्ताहं । प्रायोभावी-वि० [स० प्रायोभायिन् ] जो प्राय. होता हो [को०] । २. प्रायश्चित्त सवधी। प्रायोवाद-सञ्ज्ञा पु० [मं०] कहावत [को०] | प्रायश्चित्ती-वि० [सं० प्रायश्चित्तिन् ] १. प्रायश्चित्त के योग्य । प्रारभ-भज्ञा पुं॰ [स० प्रारम्भ ] १. प्रारभ । शुरू । २ प्रादि । २ जो प्रायश्चित्त करे । प्रायश्चित्त करनेवाला। प्रारंभण-पज्ञा पुं॰ [ प्रारम्भय ] [वि० प्रारब्ध ] भारंभण । प्रारम प्रायश्चित्तीय-वि० [सं०] प्रायश्चित्त सवधी । करना । शुरू करना। प्रायाणिक'-वि० [स० ] प्रयाण सवधी । यात्रा सबधी। प्रारभिक-वि० [सं०] १. प्रारम सवधी। प्रारभ का । २.पादिम । प्रायाणिकर--सशा पुं० शख, घंवर मादि मगल द्रव्य जो यात्रा के ३. प्राथमिक। समय आवश्यक होते हैं । प्रारब्ध-वि० [सं०] प्रारभ किया हुया । प्रायात्रिक-वि० [सं०] दे० 'प्रायाणिक (को०] । प्रारब्ध-मका पु०१ तीन प्रकार के फर्मों में से वह जिसका फल- प्रायास-तज्ञा पुं० [०] एक देश का वैदिक नाम । भोग भारभ हो चुका हो। २ भाग्य । फिसगत । जैसे, जो प्रायिक-वि० [सं०] प्राय होनेवाला। जो बहुधा या अधिकता प्रारब्ध में होगा वही मिलेगा। ३. वह कार्य मादि जो पारंग से होता हो। कर दिया गया हो। प्रायुद्ध पी--सा पुं० [स० प्रायुद्धोपिन् ] पश्व । घोडा को०] । प्रारब्धि-सजा नी० [स०] १ प्रारभ । शुरू । २ हाथी के योपने प्रायोगिक-वि० [स] जो नित्य फाम में पाता हो। जिसका की रस्सी या सुंटा। प्रयोग नित्य होता हो। प्रारब्धी-वि०[स० प्रारधिन् ] भाग्यवाला । भाग्यवान् । किसमतबर । प्रायोज्य'-वि० [म.] प्रयोग में पानेवाला। जिससे प्रयोजन प्रारूप-सजा पु० [स०(उप०) + प्र(= धारंभ, आदि)+रूप अथवा चलता हो। प्रायोज्य-- पु. मिताक्षरा प्रादि धर्मशास्त्रों के अनुसार वह वस्तु प्राक् +रूप] किसी योजना, प्रस्ताव, विधेयक प्रादि का वह प्राथमिक रूप जिसमें पागे पावश्यक होने पर संशोधन प्रादि जिसका काम किसी को नित्य पडता हो। जैसे, पढनेवाले को किया जा सके । मसौदा । प्रायमिक रूप । प्रालेस। पुस्तफादि का, अषक को हल चैल आदि का, योद्धा को पस्त्र शस्थ का इत्यादि। प्रारोह-सज्ञा पुं० [सं०] अ फुर । प्ररोह (को०)। विशेष-ऐसी यस्तुएं शास्त्रों मे विभाजनीय नहीं मानी गई हैं, प्राजेयिता -वि० [म० प्रार्जयित ] [वि० ० प्राजयिनी ] दान विभाग के समय वे उसी को मिलती है जिसके प्रयोजन पी फरनेवाला । पानी। हो मथवा को उन्हे व्यवहार मे लाता रहा हो या जिसको प्रार्जुन-संश पुं० [म.] एक प्राचीन देश पा नाम । उनसे जीविका चलती हो। प्रार्थना [मं०] प्रधान ग्राण । मुख्य ऋण फे०) । प्रायोदेवता-सझा पुं० [स०] सर्वमान्य देवता। यह देवता जिसे प्रार्थक-वि० [सं०] [वि० सी० प्राधिका ] प्रार्थना परवाना। सब मानते हों। प्रार्थी।