पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४९०

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प्रविध्वस्त प्रवृत्ति प्रविध्वस्त-वि० [स०] १ फेंका हुआ। उत्क्षिप्त । २ कपित । क्षुब्ध [को०] । प्रविपल-सज्ञा पु० [सं०] विपल का लघुतम अश (को०] । प्रविर-सज्ञा पुं॰ [ म० ] पीत काष्ठ । एक प्रकार का चदन । प्रविरत-वि० [ सं० ] हटा हुआ । विरत [को०] । प्रविरल-वि० [स०] १ जो बहुत बडे प्रतराल के कारण अलग हो गया हो। पलग । पृथक् । २ बहुत कम । अत्यल्प । प्रविलय, प्रविलयन-सञ्ज्ञा पु० [ स०] १. पिघलना । २ पूर्णत. लय या समाप्त हो जाना [को॰] । प्रविवर-सञ्ज्ञा पुं० [स० ] पदुमकाठ या पदम वृक्ष । पदमख । विशेष-दे० 'पदम' । प्रविविक-वि० [स०] १..पूर्णत. निर्जन । पूर्णत एकाकी । २. निशित । तीक्ष्ण । तीव्र । तिग्म । (को०)। ३ अलग। विच्छिन्न | पृथक् (को०)। प्रविवेक-प्रज्ञा पु० [ स०] पूर्णतः निर्जन स्थान । पूरी तौर से निर्जनता [को०] । प्रविश्लेष-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] मलगाव । विभक्तता [को॰] । प्रविषण्ण-वि० [ स० ] निराश । खिन्न [को॰] । प्रविषय-सज्ञा पुं० [स० ] क्षेत्र । प्रसर (को०] । प्रविषा-सञ्ज्ञा स्त्री० [स] प्रतीस । अतिविषा। प्रविष्ट-वि० [स०] घुसा हुमा । पैठा हुमा । भीतर पहुंचा हुया । उ.-प्रिय, प्रविष्ट हो, द्वार मुक्त है, मिलन योग तो नित्य युक्त है।-साकेत, पृ० ३११ । प्रविसना-क्रि० प्र० [सं०/ प्रयिश् ] घुसना । पैठना । उ०- प्रविसि नगर कीजै सब काजा । —तुलसी (शब्द॰) । प्रविमृत-वि० [स०] १ दौडा हुमा । प्रपलायित । २ साहसी । हिम्मतवर । उग्र [को०] । प्रविस्तर, प्रविस्तार-सज्ञा पुं० [सं०] फैलाव । घेरा [को०] । प्रवीण-वि० [सं०] १ अच्छा गाने, वजाने या बोलनेवाला । २. निपुण । कुशल । दक्ष । धतुर । होशियार । प्रवीणता-सजा सी॰ [ मै० ] निपुणता । चतुराई । कुशलता। प्रवीत-वि० [ स० पवित्र ? ] पवित्र । उ०-यां महाराणी उच्चरे, सुह तजौ सचौत । परवाही खग घार दे, जमणा धार प्रवीत ।-रा० रू०, पृ० ३०। प्रवोन'-वि० [म० प्रवीण ] दे० 'प्रवीण' । प्रवीन@२-सधा सी० [म० प्र+वीणा ] घच्छी वीणा । सुदर वीणा। प्रवीर'-वि० [सं०] सुभट । धेष्ठ योद्धा । अच्छा वीर । भारी योद्धा । वहादुर । उ०-शेर पचनद का प्रवीर रणजीत सिंह भाष मरता है देखो।-लहर, पृ०६१। २ उत्तम । श्रेष्ठ। प्रवीर-वधा पुं० १. भौत्य मनु के एक पुत्र । २ वह जो सर्वश्रेष्ठ वीर हो (को०) । ३ माहिष्मती के राजा नीलध्वज फे पुत्र जो ज्वाला के गर्भ से उत्पन्न थे। विशेष—इनकी फथा जैमिनी भारत में इस प्रकार है। जव युधिष्ठिर का अश्वमेघ का घोडा माहिष्मती में पहुंचा तव राजकुमार प्रवीर बहुत सी स्त्रियो को लिए एक उपवन मे क्रीडा कर रहे थे। अपनी प्रेयसी मदनमजरी के कहने से राजकुमार घोहे को पकड लाए । घोर युद्घ हुअा जिसमें नीलध्वज हारने लगे। सूर्य नीलध्वज के जामाता थे और वर देने के कारण उन्ही के घर रहते थे। सूर्य के समझाने पर नीलध्वज ने घोडे को अर्जुन को लौटाना चाहा। पर उनकी स्त्री उन्हे धिक्कारने लगी और उसने युद्ध करने के लिये उत्तेजित किया। युद्ध मे प्रवीर तथा और बहुत से राजवश के लोग मारे गए। तब नीलध्वज ने घोहे को वापस फर दिया। इसपर ज्वाला क्रुद्ध होकर अपने भाई के पास चली गई और उसे प्रर्जुन से युद्ध करने के लिये उभारने लगी। जब भाई ने भी उसे अपने यहां से भगा दिया तब वह नौका पर चढ़कर गगा पार कर रही थी। गगा देवी को उसने बहुत फटकारा कि तुमने अपने सात पुत्रो को डुबा दिया और तुम्हारे पाठवें पुत्र भीष्म की यह गति हुई कि अर्जुन ने शिख डी को सामने करके उसे मार डाला। इसपर गगादेवी ने कुद्घ होकर शाप दिया कि ६ महीने में मर्जुन का सिर फटकर गिर पड़ेगा। यह सुनकर ज्वाला प्रसन्न होकर भाग मे कूद पडी और पर्जुन के वध फी इच्छा से तीक्ष्ण बाण होकर वभ्र वाहन के तूणीर में जा विराजी। यह कथा महाभारत में नहीं है। प्रवृत-वि० [स०] चुना हुआ। चयन किया हुआ (को०] । प्रवृत्त'-वि० [सं०] १ प्रवृत्तिविशिष्ट । किसी बात की ओर झुका दृया । रत । तत्पर । लगा हुआ । जैसे, किसी कार्य मे प्रवृत्त होना। २. प्रस्तुत । उद्यत । तैयार । ३. जिसकी उत्पत्ति या प्रारभ हुमा हो । उत्पन्न । पारय । ४ लगाया हुआ। नियुक्त । ५. निश्चित (को०)। ६. वाधा रहित । निर्वाघ (को०)। ७ निर्विवाद (को०)। ८. वर्तुंलाकार (को०) । ६. बहता हुआ । प्रवाहित (को०) । प्रवृत्त-तशा पुं० १ एफ गोलाकार प्राभूषण । २. क्रिया । व्यापार । कार्य (को० । प्रवृत्तक-सशा पुं० [ स०] १. रगमच पर प्रवेश करना । २. एफ मात्रावृत्त [को०] । प्रवृत्ति-सशा सी० [सं०] १ प्रवाह । वहाव । २ झुकाव । मन का किसी विषय की योर लगाव । लगन । जैस,--उसकी प्रवृत्ति व्यापार को पोर नही है । ३. वार्ता । वृत्तात । हाल। वात । ४. यज्ञादि व्यापार । ५. न्याय मे पक यत्न विशेष । विशेष-वाणी, बुद्धि और शरीर से कार्य के प्रारंभ को प्रवृत्ति कहते हैं। राग द्वेप भले बुरे कामो मे प्रवृत्त कराते हैं। इप्टसाधनता ज्ञान प्रवृत्ति का पौर विष्टसाधनता ज्ञान निवृत्ति का कारण होता है।