-- - प्रत्यक्पर्णी ३१६६ प्रत्यक्षसिद्ध स्वरूप पहचानने में समर्थ हो वा हो। तरात्मा । ३ अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष शान हुपा। यह प्रत्यक्ष परमेश्वर । शान ६ प्रकार का होता है-(१) चातुप प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है । जैसे, यह पुस्तक नई है। प्रत्यकपर्णी-मज्ञा म्बी० [स०] १. दती वृक्ष । मूसाकानी २. (२) श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, पाँखें वद रहने पर भी घटे का अपामार्ग | चिचडा। शब्द सुनाई पड़ने पर यह शान होता है कि घटा बजा । (३) प्रत्यक्पुष्पी-सज्ञा पी० [सं०] " 'प्रत्यकपर्णी' । स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि यह प्रत्यक्शेणो-सजा सी० [सं०] दती वृक्ष । मूसाकानी । बहुत ठढी है। (४) रसायन प्रत्यश, जैसे, फल खाने पर प्रत्यक्ष'-वि० [सं०] १ जो देखा जा सके । जो खिों के सामने जान पडता है कि यह मीठा है अथवा ग्वट्टा है । (५) प्राणज हो। उ०-स्वप्न था वह जो देखा, ऐसूगी फिर क्या प्रभी? प्रत्यक्ष, जये, फूल सूघने पर पता लगता है कि वह सुगधित है इस प्रत्यक्ष से मेरा परिमाण कहाँ अभी ।-साफेत, पृ० और (६) मानस प्रत्यक्ष जैसे, मुख, दुख, दया प्रादि का ३०७।२ जिसका ज्ञान इद्रियो के द्वारा हो सके । जो अनुभव। किसी इद्रिय की सहायता से जाना जा सके। ३ सुस्पष्ट । प्रत्यक्ष-क्रि० वि० अाखो फे प्रागे । मामने । जमे, प्रत्यक्ष दिसलाई साफ (को०)। पड़ रहा है कि रस पार पानी बरसता है । प्रत्यक्ष-सञ्चा पु० चार प्रकार के प्रमाणो मे से एक प्रमाण जो प्रत्यक्षनान-मरा पुं० [म.] प्रत्यक्ष दर्शन में प्राप्त मान । यह जान सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। जो प्रत्यक्ष दर्शन से प्राप्त हो । चाक्षुष प्रमाण । विशेप-गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि द्रिय के द्वारा प्रत्यक्षता-गजा पी० [ 10 ] प्रत्यक्ष होने या भाव । फिमी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है । जैसे, प्रत्यक्षत्व-ज्ञा पुं० [सं०] - 'प्रत्यक्षता' । यदि हमें सामने भाग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके प्रत्यक्षदर्शन-सगा पु० [ म० ] साक्षी । प्रत्यक्षदर्शी [को॰] । ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है प्रत्यक्षदर्शी-सरा पुं० [सं० प्रत्यक्षदर्शिन् ] वह जिमने प्रत्यक्ष रूप से कि 'भाग जल रही है। इस शान में पदार्थ मोर इद्रिय पा कोई घटना देखी हो। साक्षी । गवाह । प्रत्यक्ष स बध होना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, क्योकि प्रत्यक्षफल-वि० [म०] जिसका परिणाम स्पष्ट हो। जिसका नतीजा साफ हो। इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, प्रत्यक्षमोग-सज्ञा पु० [म० ] किसी वस्तु का उपयोग उसके स्वामी पदार्थ के द्वारा नहीं, इसलिये यह शन्दप्रमाण के अ तगंत चला की जानकारी में करना aai जायगा । पर यदि वही फिताव हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमे इस बात का प्रत्यक्षलपण-सज्ञा पुं० [सं०] वह नमक जो भोजन पक सुयाने पर बाद में अलग से डालने के लिये दिया जाय । साद्य पदार्थ में अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताव पुरानी है'। प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दो द्वाग नहीं होता, इसी पकने के समय डाले हुए नमक के प्रतिरिक्त पोछे से दिया जानेवाला नमक। से उसे भव्यपदेश्य कहते हैं । प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उनके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा विशेष-शास्त्रो में श्राद्ध प्रादि अवसरो पर इस प्रकार नमक देने का निषेध है। ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं । उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' : द्रिय है, प्रत्यक्षवाद-सका पु० [सं० प्रत्यक्ष + वाद ] वह सिद्घात जिसमें इद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य प्रत्यक्ष प्रमाण को ही माना जाय । इद्रियजन्य ज्ञान को पद ने सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो सत्य माननेवाला सिद्धांत । उ०-इस कठोर प्रत्यक्षवाद निविकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है। की समस्या वडी कठिन होती है।-स्कद०, पृ०५। नवीन प्रकार दोनो मतो नो मिलाकर कहते है कि प्रत्यक्ष प्रत्यक्षवादो-सरा पुं० [सं० प्रत्यक्षवादिन् ] [ग्मी० प्रत्यवादिनी ] ज्ञान के करण अर्थात् प्रत्यक्ष तीन प्रमाण हैं-(१) इद्रिय, वह व्यक्ति जो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण माने, और कोई प्रमाण (२) इद्रिय का म बघ भोर (३) इ द्रियसवध से उत्पन्न न माने । वह मनुष्य जो इ द्रियजन्य ज्ञान को ही सत्य माने, ज्ञान । पहली अवस्था में जब केवल इद्रिय ही करण हो जैसे, चार्वाक। तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के प्रत्यक्षविधान-मश पुं० [०] वह ( विधि भादि ) जो स्पष्ट पहले पहल सामने आने से होता है । जैसे, वह सामने कोई हो । वह जिसका विधान प्रत्यक्ष रूप से हो किो०] । चीज दिखाई देती है । इस ज्ञान को निर्विकल्पक ज्ञान' कहते प्रत्यक्षविहित -वि० [सं०] सीधे या प्रत्यक्ष रूप से उपभुक्त या हैं । दूसरी अवस्था मे यह जान पडता है कि जो चीज प्रास्वाद्य [को०] । सामने है, वह पुस्तक है। यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुप्रा । इस प्रत्यक्षसिद्ध-वि० [स०] जो प्रत्यक्ष या चाक्षुष प्रमाण से सिद्ध ज्ञान का कारण इद्रिय का स बध है। जव इद्रिय के स वध हो । उ०-युवराज । यह अनुमान नहीं है, यह प्रत्यक्षसिद्ध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह शान कि यह किताब है। -स्कद०, पृ०६।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४५७
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