पोखर पोटा माने पर, हाथ पर आदि का ढीला पड़ जाना भौर थन का उ०-पाखिर प्रादमी को कुछ तो अपने पोजाशन का ख्याल सज पाना। थलकना। करना चाहिए। -मान०, भा० १, पृ० ८५ । पोखर-सञ्ज्ञा पुं० [ स० पुष्कर, प्रा० पुक्खर, पोक्खर ] १ तालाव । पोट'-सज्ञा सी० [ म० पोट ] १ गठरी । पोटली । वकुचा । पोखरा । २ पटेबाजी में एक वार जो प्रतिपक्षी की कमर मोटरी । उ०—(क) पहले बुरा कमाय के बाँधी विषय के पोट । कोटि कम फिरे पलक में जब भायो हरि प्रोट पर दाहिनी ओर होता है। कवीर (शब्द०)। (ख) खुलि खेलौ ससार में बाँघि पोखरा--सञ्ज्ञा पु॰ [सं० पुष्कर, प्रा. पुक्खर, पोवखर ] [स्त्री० अल्पा नहिं कोय । घाट जगाती क्या करे सिर पोट न होय । पोखरी] वह जलाशय जो खोदकर बनाया गया हो । तालाब । (शब्द०) । २. ढेर । अटाला । जैसे, दुख की पोट, 111 सागर । उ०-पांच भीट के पोखरा हो, जा में दस द्वार - की पोट। कबीर श॰, भा॰ २, पृ० ५२ पोटर-सज्ञा स्त्री॰ [ स० पृष्ट, हिं० पुट्ठ ] पुस्तक के पन्नों की 4 पोखराज-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पुष्पराज ] दे॰ 'पुखराज' । जगह जहाँ से जुजवदी या सिलाई होती है । पोखरी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० पोखरा ] छोटा पोखरा । तलया। पोट-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पोत (= वस्त्र) ] मुर्दे के ऊपर की चादर पोखार-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'पोखरा' ।--उ०-मजर अबीर कफन के ऊपर का कपडा। कुमकुमा केसरि उमगो प्रेम पोखार ।-भीखा श०, पृ० ४६ । पोट-सशा पुं० [सं०] १ घर की नीवें । २. मेल । मिलान । पोगह-सज्ञा पुं० [सं० पोगण्ड ].१ पांच से दस वर्ष तक की पोटक-पज्ञा पुं० [सं०] नौकर । भृत्य । सेवक । [को०] । मवस्था का बालक । पोटगल-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स०] १ नरसल । नरकट । २ काश । कांस विशेष-कुछ लोग ५ से १५ तक पोगड मानते हैं। ३ मछली। ४ एक प्रकार का साप । २ वह जिसका कोई भ ग छोटा, बड़ा या अधिक हो । जैसे, छह पोटना-क्रि० स० [हिं० पुट ] १ समेटना। बटोरना । उ० गलियाँ होना, बाएँ हाथ दाहने से छोटा होना। (क) ऐसो पोटि भोंठ रस लेत । हठ सो परसि । पोगर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पुष्कर, प्रा० पुक्कर, पोक्कर ] हाथी का नख देत । -गुमान (शब्द०) । (ख) पोटि भटू तट मुख । हाथी की सूई का भग्न भाग। ७०-तिहि ठाम धाइ कटी के लपेटि पटी सो कटी पटु छोरत । -देव (शब्द०) उहि हस्तिनी। बोर लियो पोगर सुनिम । --पृ० रा० २ हथियाना । पंजे मे करना। फुसलाना। बात मे लाना २७४। उ.-ललिता के लोचन मिचाइ चद्रभागा सों, दुराइवे पोच-वि० [फा० पूच] १. तुच्छ । क्षुद्र । बुरा। निष्कृष्ट । नीच। ल्याई वै तहाई 'दास' पोटि पोटि। -भिखारी० ग्र उ०-(क ) मिट्यो महा मोह जी को यूट्यो पोच सोच सी भा० १.१० १४२। को जान्यो अवतार भयो पुरुष पुरान को -तुलसी पोटरी@ -रामा सी० [सं० पोट्टली ] दे० 'पोटली' । (शब्द०)। (ख ) भलो पोच कह राम को मोको नरनारी । विगरे सेवक स्वान सो साहेव सिर गारी ।—तुलसी (शब्द०)। पोटल-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] पोटली । पोटरी (को०] । (ग ) भलेट पोच सघ विधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद पोटलक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० पोटलिका] पोटली । पोटरी [को॰] । बिलगाए।—तुलसी (शब्द॰) । (घ) कहिहै जग पोच न पोटला-सञ्चा पु० [सं० पोटलक ] बडी गठरी। सोच कळू फल लोचन मापनो तो लहिहै ।--तुलसी (शब्द०)। पोटली-सञ्ज्ञा नी० [ स० पोट्टली ] १. छोटी गठरी । (च) कौन सुनै काके श्रवण काकी सुरति सकोच। कौन बकुचा । २. भीतर किसी वस्तु को रखकर बटोरकर 4 निडर कर पापको को उत्तम को पोच ।—सूर ( शन्द०)। हुमा कपमा मादि । जैसे,-(क) मनाज को पोटली (छ) प्रीति भार लै हिए न सोचू । वही पथ भल होय कि बांधकर ले चला । (ख) सूजन पर नीम की पोटली व पोचू । —जायसी (शब्द०) । २ पशक्त । क्षीण । हीन । सेंको। पोच-सञ्ज्ञा स्त्री० दे० 'पोची' । पोटा-वि० [सं० प्लुत ] तराबोर । उ०--मेह सुजल लेचारा-सज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पुचारा'। महीं, सावण करता सैल ।-बांकी० ग्रं॰, भा॰ २ पृ०७ । पोची-सशा श्री० [हिं० पोच ] निचाई। हेठापन । बुराई । पोटा-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पुट (=थैली) अथवा देशी, पोट्ट, उ०-यद्यपि मों ते के कुमातु ते होइ पाई भति पोची। पोट (पेट)] [ सी० अल्पा० पोटी ) १ पेट को यल सन्मुख गए सरन राखहिंगे रघुपति परम संकोची । तुलसी उदराशय। (शब्द०)। मुहा०-पोटा तर होना = पास में धन होने से प्रसन्नता पोछना-क्रि० स० [सं०-प्रोञ्छन ] दे० 'पोछना'। उ०—कुमकुम निश्चितता होना । पास में माल रहने से वेफिक्री होना। केर चोरि भलि फाउलि काँधन मेलि ए पोछी।-विद्यापति, २ कलेजा । साहस । सामर्थ्य । पित्ता। जैसे,-विसका पृ०१०५। है जो उनके विरुद्ध कुछ कर सके । ३. समाई। श्रा पोजीशन-सदा स्त्री० [५० पोजीशन ] पद । मोहदा । स्थान । बिसात । ४ आँख की पलक । ५ उँगली का छोर । .
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४०४
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