पेरो पेश पेरी-सचा मी० [हिं० पीली ] पीले रंग की रंगी हुई धोती जो पेलव-वि० [सं०] १. कोमल । मृदु । २ कृश । दुवंल । क्षीण। ३. विवाह में वर या बधू को पहनाई जाती है । इसे पियरी भी विठल [को०] । कहते हैं। पेलवाना-किस० [हिं० पेलना का सकर्मक रूप ] पेलने का काम पेरु-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ सागर । समुद्र । २ सूर्य । ३. अग्नि । दूसरे से कराना । दूसरे को पेलने में प्रवृत्त करना । दे० प्राग। ४ वह जो रक्षा करे। ५ वह जो पूर्ति करे । 'पेलना'। पूरा करनेवाला । ५. मेरु नामक पर्वत। स्वर्ण पर्वत मेरु पेला'-सशा पुं० [हिं० पेलना ] १ तकरार । झगड़ा । उ०—कहा (को०)। कहत तुमसो मैं ग्वारिनि। सीन्हें फिरति रूप ग्रिभुवन पेरोज-सचा पुं० [सं० ] नीलमणि । फीरोजा [को॰] । को ऐ नोखी बनजारिनि । पेला करति देत नहिं नीके तुम पेरोल-सञ्ज्ञा पुं० [अ०] वचन । शब्द । वचन पर विश्वास करके हो बडी बजारिनि । सूरदास ऐसो गथ जाफे ताके बुद्धि निश्चित अवधि के लिये कारामुक्ति । पसारिनि ।सूर (शब्द०) २ अपराध । कसूर । ३ पेल-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ जाना। गमन । २ मडकोष [को०] । प्राक्रमण। धावा। चढ़ाई। उ०-करयो गढा कोटा पर पेलक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] अडकोष (को०] । पेला । जहाँ सुन छत्रसाल बुंदेला ।-लाल (शब्द०) ४. पेलने की क्रिया या भाव । पेलढ-सञ्ज्ञा पुं० [स० पेल (= प्रकोप) ] 70 'पेल्हह' । पेलना-क्रि० स० [सं० पीडन ) १ दबाकर भीतर घुसाना । जोर पेला-सशा सी० [म०] एक प्रकार का वाघ (फो०] । से भीतर ठेलना या धंसाना। दबाना। उ०-विपति हरत पेलास-राजा पुं० [म.] मगल मौर बृहस्पति फे वीच गा एक हठि पद्मिनी के पात सम, पक ज्यों पताल पेलि पठवै कलुष ग्रह जो सूर्य से २८३ करोड मील की दूरी पर है। को।-केशव ( शब्द०) । २ ढकेलना । धक्का देना । विशेप-चार वर्ष आठ मास में यह ग्रह मूर्य की परिक्रमा करता उ०-(क) गिरि पहाड पवत कहें पेलहिं । वृक्ष उचारि झारि है। प्राकार में यह ग्रह चद्रमा से छोटा है। सन् १८०२ ई० मुख मेलहिं । -जायसी (शब्द॰) । (ख) स्वामि काज में डाक्टर मालवर्ज ने पहले पहल इसका पता लगाया था। इद्रासन पेलो। —जायसी (शब्द०) । ३ टाल देना । अवज्ञा पेलो-सग पुं० [सं० पेलिन् ] घोडा [को०] । करना। उ०-(क) जो न कियो परिने पन पेलि, पपाण परै पुहमीपति के पन।-रघुराज (शब्द॰) । (ख) मारह पेलू-सज्ञा पुं० [हिं० पेलना + ऊ ( प्रत्य० ) ] १ पेलनेवाला । वह जो पेलता हो । २ पति । खाविंद । ३ जार । उपपति । भरत न पेलिहहिं, मन सहुँ राम रजाइ। करिय न सोच ४ वह जो गुदाभजन करता हो। (बाजारू)। ५ जबरदस्त । सनेह वस, कहेउ भूप विलखाइ । —तुलसी (शब्द॰) । (ग) जनक सुता परिहरी अकेली । प्रायह तात वचन मम पेली।- तुलसी (शब्द०)। (घ) प्रगुपितु वचन मोह वस पेली। पेले-प्रव्य० [हिं०] दे० 'पहले' । उ०-साहब इघर ? हमने पायउ यहाँ समाज सकेली ।-तुलसी (शब्द०)। ४ पेले कहा । -भस्मावृत०, पृ० ६५ । त्योगना । हटाना । फेकना। उ०-राज महाल को बालक पेल्हड़-सपा पुं० [ पेल या पेलक ] अउकोप । पोता। पेलि के पालत लालत खुसर को।-तुलसी (शब्द०)। ५ पेवंदा-सज्ञा पुं० [फा०] दे० 'पैवद'। उ०-पांच पेवद की बनी जबरदस्ती करना । बल प्रयोग करना। उ०—कह्यौ युवराज रे गुदडिया, तामे हीरा लाल लगावा । -कबीर० श०, बोलि वानर समाज माज खाहु फल सुनि पेलि पैठे मधुवन भा०१, पृ० ४३ । में।—तुलसी (शब्द०)। ६ प्रविष्ट करना । घुसेठना । पेवा-सचा पुं० [स० प्रेम] प्रीति । प्रेम। उ०-दायज बसन मणि ७ गुदामैथुन करना। ( वाजारू)। ८ दे० 'पेरना' । धेनु धन ह्य गय सुसेवक सेवकी। दीन्ही मुदित गिरिराज जे पेलना-क्रि० स० [सं० प्रेरणा ] १ आक्रमण करने के लिये गिरिजहि पियारी पे" की। -तुलसी (शब्द०)। सामने छोडना । ढीलना । प्रागे बढ़ाना । उ०-(क) कुंभ- पेवक्कड़ा संज्ञा पुं० [हिं० पीना ] दे० 'पियक्कड' । स्थल कुच दोउ मयमता। पैलो सोहं संभारह कता ।- पेषड़ी-सका सी० [सं० पीत ] १ पीले रंग की बुकनी । २ जायसी । (शब्द०) (ख) जी लहि घावहिं ऊसका खेलहु । । पीली रज । रामरज । हस्तिहि फेर जूह सब पेलह ।-जायसी (शब्द॰) । (ग) पेवरी-संज्ञा पुं० [सं० पीत ] पीला रग । ( इतनी ) बात के सुनते ही गजपाल ने गज पेला, ज्यौं वह बलदेव जी पर टूटा, त्यो उन्होने हाथ घुमाय एक पेषस-सज्ञा पुं॰ [ म० पेयूप] १ हाल की व्याई गाय या भैंस का थपेडा ऐसा मारा "। लल्लू (शब्द॰) । २ बिताना। दूध । २. दे० 'पेउसी। गुजारना । 10-मातिथ्य विनय विवेक कौतुक समय पेल्लिन पेवसी-सशा स्त्री० [हिं० पेवस+६] दे० 'पेवस' । सबहिं । -कीति०, पृ० २८ । ३ भेजना । पठाना । उ० पेश-क्रि० वि० [फा० ] सामने । पागे । समुख । में मेले रे मैं मेले । परचह दसू दिस पेले।-रघु० रू०, मुहा०-पेश आना = (१) बर्ताव करना । व्यवहार करना । पृ० १५६ । (२)घटित होना । सामने माना। होना । पेश करना = बलवान।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३९१
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