पुराण' ३०५३ पुराण' सृष्टिलीला, कपिलदेव का जन्म और अपनी माता के प्रति वैष्णव भावानुसार साख्यशास्त्र का उपदेश, मन्वंतर और ऋषिदशावली, अवतार जिसमे ऋषभदेव का भी प्रसग है, ध्रुव, वेणु, पृथु, प्रह्लाद इत्यादि की कथा, समुद्रमथन आदि अनेक विषय हैं। पर सबसे वहा दशम स्कंध है जिसमें कृष्ण की लीला का विस्तार से वर्णन है। इसी स्कंध के आधार पर शृगार और भक्तिरस से पूर्ण कृष्णचरित् सबधी सस्कृत और भाषा के अनेक ग्रथ बने हैं । एकादश स्कप में यादवो के नाश और बारहवें में कलियुग के राजायो के राजत्व का वर्णन है । भागवत की लेखनशैली और पुराणो से भिन्न है । इसकी भाषा पाहित्यपूर्ण और साहित्य अवधी चमत्कारों से भरी हुई है, इससे इसकी रचना कुछ पीछे की मानी जाती है। अग्निपुराण एक विलक्षण पुराण है जिसमें राजवशावलियो तथा सक्षिप्त कथाघों के अतिरिक्त धर्मशास्त्र, राजनीति, राज- धर्म, प्रजाधर्म, प्रायुर्वेद, व्याकरण, रस, मलकार, शस्त्र- विद्या प्रादि अनेक विषय हैं । इममे तत्रदीक्षा का भी विस्तृत प्रकरण है। कलि के राजापों की वशावली विक्रम तक पाई है, अवतार प्रसग भी है। इसी प्रकार और पुराणो में भी कथाएँ हैं। विष्णुपुराण के अतिरिक्त और पुराण जो प्राजकल मिलते हैं उनके विषय में सदेह होता है कि वे असल पुराणो के न मिलने पर पीछे से न बनाए गए हो। कई एक पुराण तो मत मतातरो और संप्रदायो के राग द्वेष से भरे हैं। कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी की। ब्रह्मवैवर्त पुराण का जो परिचय मत्स्यपुराण में दिया गया है उसके पनुसार उसमें रथतर कल्प और वराह अवतार की कथा होनी चाहिए पर जो ब्रह्मवैवर्त आजकल मिलता है उसमे यह कथा नहीं है। कृष्ण के वृदावन के रास से जिन भक्तों की तृप्ति नहीं हुई थी उनके लिये गोलोक मे सदा होनेवाले रास का उसमें वर्णन है। आजकल का यह ब्रह्मवैवर्त मुसलमानो के आने के कई सौ वर्ष पीछे का है क्योंकि इसमे 'जुलाहा' जाति की उत्पत्ति का भी उल्लेख है-'म्लेच्छात् कुविंदकन्याया जोला जातिभूव ह' (१०.१२१)। ब्रह्मपुराण में तीर्थों और उनके माहात्म्य का वणन बहुत अधिक हैं, अनत वासुदेव और पुरुषोत्तम (जगन्नाथ ) माहात्म्य तथा और बहुत से ऐसे तीर्थों के माहात्म्य लिखे गए हैं जो प्राचीन नही कहे जा सकते । 'पुरुषोत्तमप्रासाद' से अवश्य जगन्नाथ जी के विशाल मदिर की प्रोर ही इशारा है जिसे गांगेय वश के राजा चोडगग (सन् १०७७ ई.) ने बनवाया था। मत्स्यपुराण में दिए हुए लक्षण अाजकल के पद्मपुराण में भी पूरे नहीं मिलते हैं। वैष्णव साप्रदाथिको के द्वेष की इसमें बहुत सी बातें हैं। जैसे, पापडिलक्षण, मायावादनिंदा, तामसशास्य, पुराणवर्णन ६-४२ इत्यादि । वैशेषिक, न्याय, साख्य भौर चार्वाक तामस शास्त्र कहे गए हैं और यह भी बताया गया है कि दैत्यों के विनाश के लिये वुद्ध रूपी विष्णु ने असत् बौद्ध शास्त्र कहा। इसी प्रकार मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कद और भग्नि तामस पुराण कहे गए हैं। साराश यह कि अधिकाश पुराणो का वर्तमान रूप हजार वर्ष के भीतर का है। सबके सब पुराण साप्रदायिक हैं, इसमें भी कोई सदेह नही है। कई पुराण (जैसे, विष्णु) बहुत कुछ अपने प्राचीन रूप मे मिलते हैं पर उनमें भी साप्रदायिको ने बहुत सी बातें बढ़ा दी हैं। यद्यपि भाजकल जो पुराण मिलते हैं उनमें से अधिकतर पीछे से बने हुए या प्रक्षिप्त विषयों से भरे हुए हैं तथापि पुराण बहुत प्राचीन काल से प्रचलित थे। बृहदारण्यक और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि गीली लकडी से जैसे धुप्रां अलग अलग निकलता है वैसे ही महान् भूत के नि श्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद, अथर्वागिरस, इतिहास, पुराणविद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान हुए। छांदोग्य उपनिपद् मे भी लिखा है कि इतिहास पुराण वेदों में पाँचवाँ वेद है। प्रत्यत प्राचीन काल मे वेदो के साथ पुराण भी प्रचलित थे जो यज्ञ आदि के अवसरों पर कहे जाते थे। कई बातें जो पुगण के लक्षणो में हैं, वेदों में भी हैं । जैसे, पहले असत् था और कुछ नही था यह सर्ग या सृष्टितत्व है, देवासुर सग्राम, उर्वशी पुरूरवा सवाद इतिहास है। महाभारत के आदि पर्व में (११२३३) भी अनेक राजापो के नाम और कुछ विषय गिनाकर कहा गया है कि इनके वृचात विद्वान् सत्कवियो द्वारा पुराण में कहे गए हैं। इसमें कहा जा सकता है कि महाभारत के रचनाकाल में भी पुराण थे। मनुस्मृति में भी लिखा है कि पितृकार्यों में वेद, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण प्रादि सुनाने चाहिए। प्रश्न यह होता है कि पुराण हैं किसके बनाए । शिवपुराण के अंतर्गत रेवा माहात्म्य में लिखा है कि अठारहो पुराणों के वक्ता सत्यवतीसुत व्यास हैं। यही बात जन साधारण में प्रचलित है। पर मत्स्यपुराण में स्पष्ट लिखा है कि पहले पुराण एक ही था, उसी से १८ पुराण हुए (५३।४)। ग्राह्माड पुराण में लिखा है कि वेदव्यास ने एक पुराणसहिता का सकलन किया था। इसके आगे की बात का पता विष्णु पुराण से गता है। उसमें लिखा है कि व्यास का एक लोमहर्षण नाम का शिष्य था जो सूति जाति का था। व्यास जी ने अपनी पुराण सहिता उसी के हाथ में दी। लोमहर्षण के छह शिष्य थे-सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, शाशपायन, प्रकृतव्रण और सावर्णी। इनमें से प्रकृत- व्रण, सावर्णी और शाशपायन ने लोमहर्षण से पढ़ी हुई पुराणसहिता के आधार पर और एक एक सहिता बनाई। वेदव्यास ने जिस प्रकार मत्रो का सग्रहकर उन का सहितामों में विभाग किया उसी प्रकार पुराण के नाम से चले पाते हुए वृत्तो का सग्रह कर पुराणसहिता का संकलन किया।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३४४
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