पीनार पीपल' मनोभाव ही न रहने देना । कुछ भी शेष या बाकी न रखना जैसे, लज्जा पी जाना। ६ मद्य पीना। शराब पीना। सुरापान करना । जैसे,-जब जब वह पीता है तब तब उसकी यही दशा होती है। सयोकि.-जाना। -डालना। -लेना । ७ हुक्के, सुरुट आदि का घुओं भीतर खीचना । धूमपान करना। जैसे, हुक्का पीना, चुरुट पीना, गांजा पीना, चहू पीना प्रादि । संयो० कि०-जाना। -डालना। -लेना। ८ सोखना । शोषण करना । जज्ब करना । जैसे,—(क) यह जूता इतना तेल पिएगा, यह मैंने नही समझा था। (ख) मिट्टी का बरतन तो सारा घी पी जायगा। सयोकि०-जाना । -डालना । पोना-सण पुं० [सं० पीढन ( = पेरना) ] तिल, तीसी आदि की खली। उ०-विना विचार विवेक भए सब एक घानी। पीना भा ससार जाठि ऊपर मर्रानी। -पलटू०, मा० १, पृ० ५६ । पीना-सञ्ज्ञा पुं० [ देश० ] डाट । इट्टा (लश० )। पीनारा-सज्ञा पुं॰ [सं० पिझार ] रुई धुननेवाला। धुनिया । उ०-दादू दास अजब पीनारा, सु दर बलि घलि जाई। -सु दर० ग्र०, भा॰ २, पृ० ८६६ । पोनी- सज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] पोस्त, तीसी या तिल आदि की खली। पीनी- सज्ञा स्त्री० [हिं० पीना ] हुक्के की नली । निगाली । उ०- प्रदर से बुढ़िया निकली तो कुल्ली ने कहा पीनी हमारे पास है , तुम हुक्का भरकर ला दो।-रति०, पृ० ५५ । पोनोध्नी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] भरे हुए स्तनोंवाली गौ [को०] । पोनोरु-वि० [सं० पीन + उरु ] भारी जांघोवाली। जिसके उरु पीन हो । उ०-करके अधिकार किसी भीरु पीनोरु नतनयना नवयौवना पर। -अपरा, पृ०६। पोप'-सज्ञा स्त्री० [सं० पूय ] फूटे फोडे या घाव के भीतर से निकलनेवाला सफेद लसदार पदार्थ जो दूषित रक्त का रूपां- तर होता है। विशेष-इसमे रक्त के श्वेत कण ही अधिकता से होते हैं । उनके अतिरिक्त इसमें शरीर के सड़े हुए और नष्ट घटकों और त तुमो का भी कुछ लाल प्रश होता है। शरीर के किसी भाग मे इस पदाथ के एकत्र हो जाने से ही पण या फोडा होता है और जब तक यह निकल नहीं जाता तब तक बहुत कष्ट होता है। पीपल-सञ्ज्ञा पुं० [प्रा० पिप्पल, हिं० पीपल] दे० 'पीपल' । उ०- सुहल्या जनु पोनय पीप पत ।-पृ० रा०, १११४ । पीपर-सज्ञा पुं० [स० पिप्पल ] दे० 'पीपल' । पीपरपर्न-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पीपल +पर्न>सं० पर्ण ] कान में पहनने का एक प्राभूषण । उ०-पीपरपनं मुलमुली तीखन वह खलेल झूमिका सुसरमन । -सूदन (शब्द०)। पोपरामूल-तज्ञा पुं॰ [ स० पिप्पल + मूल ] दे० 'पीपलामूल' । पीपरि'-ज्ञा पुं० [सं०] छोटा पाकड़ । पीपरि-सज्ञा स्त्री॰ [सं० पिप्पली ] दे० 'पीपल'। पोपरि-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० दे० 'पीपल"। पीपल'-सज्ञा पुं० [सं० पिप्पल ] बरगद की जाति का एक प्रसिद्ध वृक्ष जो भारत में प्राय सभी स्थानो पर अधिकता से पाया जाता है। विशेष-यह वृक्ष चाई मे बरगद के समान ही होता है, पर इसमें उसकी तरह जटाएं नहीं फूटती। पत्ते इसके गोल होते हैं और आगे की ओर लवी गावदुम नोक होती है। इसकी छाल सफेद और चिकनी होती है । लकडी पोली भोर कमजोर होती है और जलाने के सिवा और किसी काम की नहीं होती। इसका गोदा (फल) बरगद के गोदे की अपेक्षा छोटा और चिपटा तथा पकने पर यथेष्ट मीठा होता है। गोदे लगने का समय वैसाख जेठ है । इसकी डालियो पर लाख के कीटे पैदा होते हैं और पाले जाते हैं। बस यही इसका विशेष उपयोग है। गोदे वच्चे खाते हैं और पत्ते बकरियों और ऊँटो, हाथियो को खिलाए जाते हैं । छाल के रेशों से ब्रह्मा (वर्मा) वाले एक प्रकार का हरा कागज बनाते है। पुराणानुसार पीपल प्रत्यत पवित्र और पूजनीय है । इसके रोपण करने का अक्षय पुण्य लिखा है । पद्मपुराण के अनुसार पावंती के शाप से जिस प्रकार शिव को बरगद घोर ब्रह्मा को पाकष्ट के रूप में अवतार लेना पड़ा उसी प्रकार विष्णु को पीपल का रूप ग्रहण करना पड़ा। भगवद्गीता में भी थी- कृष्ण ने कहा है कि वृक्षों में मुझे पीपल जानो। हिंदू लोग बडी श्रद्धा से इसकी पूजा और प्रदक्षिणा करते हैं और इसकी लकडी काटना या जलाना पाप समझते हैं। दो तीन विशेप सस्कारो मे, जैसे, मकान की नीव रखना, उपनयन आदि में ' इसकी लकड़ी काम में लाई जाती है । बौद्घ लोग भी पीपल को परम पवित्र मानते हैं, क्योंकि बुद्ध को सबोधि की प्राप्ति पीपल के पेड़ के नीचे ही हुई थी। वह वृक्ष बोघिद्रुम के नाम से प्रसिद्ध है। वैद्यक के अनुसार इसके पके फल शीतल, अतिशय हृद्य तथा रक्तपित्त, विष, दाह, छदि, शोष, अरुचि और योनिदोष के नाशक हैं । छाल स कोचक है । मुलायम ाल और नए निकले हुए पत्ते पुराने प्रमेह की उत्तम प्रौषध है। फल का चूर्ण सेवन करने से क्षुधावृद्धि और कोष्ठशुद्धि होती है। फ्लों के भीतर के बीज शीतल और धातु परिवर्धक माने जाते हैं। पर्या०-बोधिद्र म । चलदल । पिप्पल । कुजराशन । श्रच्युता- वास । घलपत्र । पवित्रक । शुभद । याज्ञिक । गजभक्षण । श्रीमान् । पीरद्रुम । विप्र । मागल्य । श्यामलय। गुह्यपुण्य । सेव्य । सत्य । शुचिम । धनुवृक्ष । पीपल'-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० पिप्पली ] एक लता जिसकी कलियाँ प्रसिद्ध पोषधि हैं। विशेप-इसके पत्ते पान के समान होते हैं । कलियाँ तीन चार मगुल लबी शहतूत के पाकर की होती हैं और उनका पृष्ठ- .
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३१८
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