. पियार पिराग हैं। इस वृक्ष के सबध मे यह समझ रखना चाहिए कि यह पियूष - मशा पुं० [ सं० पीयूप ] दे० 'पीयूष' । जगलो मे आपसे आप उगना है, कही लगाया नहीं जाता। पियूषभानुला-मज्ञा पुं॰ [सं० पीयूपभानु ] चद्रमा । पीयूषभानु । इसे कहीं कही प्रचार भी कहते हैं। उ०-तीछन जुन्हाई भई ग्रीपम को घागु, भयो भीषम पियूप- पियार-वि० [हिं० ] दे० 'प्यारा' । भानु भानु दुपहर को। -मति० ग्र०, पृ० ३०३ । पियारा-सधा पु० २० 'प्यार' । पिरंनिgt-सज्ञा पुं० [स० प्राणी, हिं० परानी ] प्राणी। जीव । पियारा-सा पुं० [हिं० पलाल ] दे० 'पयाल' । उ०-दादु पसु पिरनि के, येही मझि कलूब । बैठो आहे विच पियारा-वि० [हिं०] दे० 'प्यारा' । उ०—भाई वधु पो लोग मैं पाणजो महबूब ।-दादू०, पृ०६०। पियारा, बिनु जिय घरी न राखं पारा। -जायसी ग्र० पिरकी-सज्ञा मी० [सं० पिटिका, पिडक, पिडका, ] फोडिया । (गुप्त), पृ० २५३ । फुसी। पियाल-मचा पुं० [सं०] चिरौंजी का पेड । विशेष ० 'पियार' । यौ०-पिरकी पाका फोडा फुसी। पियालाg+ - सशा पुं० [हिं०] दे० 'प्याला' । उ०-अजब चीज पिरता-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रियतम ] दे० 'प्रियतम' । उ०-वलाय खुरदनी पियाल ए मस्ता।-दादू०, पृ० १०६ । जाऊँ मैं तो चरण ऊपर सू। महबुब साहेब तू ही पिरतम तुम पियाला-सञ्ज्ञा पु० [हिं०] दे० 'प्याला'। बाज नहीं। दक्खिनी, पृ० १२६ । पियावबड़ा--सञ्ज्ञा पु० [देश॰] एक प्रकार की मिठाई । पिरता-सशा पु० [सं० पट्ट या हिं० पेरना (= दबाना)?] काठ या विशेष—इसके बनाने की विधि इस प्रकार है-पहले चावल को पत्थर का टुकडा जिसपर रूई की पूनी रखकर दवाते हैं। पकाकर सिल पर पीसते हैं, फिर गुलाब का अतर और पांचो पिरथम-वि० [सं० प्रथम ] दे० 'प्रथम' । उ०—तामु कला मेवे मिलाकर बड़े की तरह बनाते हैं। अनतर घी मे तलकर चाशनी में डाल देते हैं। पिरथम सुन्न पाई। कबीर सा०, पृ० ६१ । पियास-सच्या स्त्री० [हिं०] दे० 'प्यास' । पिरथिमी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ म० पृथिवी ] दे० 'पृथ्वी' । उ०-सब पिरथिमी भसीसइ जोरि जोरि के हाथ । —जायसी ग्र० पियासा-वि० [हिं० पियास ] दे० 'प्यासा'। उ०—जैसे कवल (गुप्त) प० १३० । सुरुज के पासा। नीर कठ लहि मरे पियासा ।—जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० २७२ । पिरथी-सशा स्पी० [ स० पृथिवी, पुं० हिं० पृथी ] दे० 'पृथ्वी' । उ.-पिरथी पवन के बीच पानी । दरमियान मे तेज पियासाल-सज्ञा पुं० [सं० पोतसाल, प्रियसालक ] बहेडे या अर्जुन ककोलता है।-कवीर० रे०, पृ० २६ । की जाति का एक बडा पेड । विशेष—यह भारतवर्ष के जगलो मे प्राय सर्वत्र होता है । इसके पिरथोनाथ-सा पुं० [हिं० यिरथी+० नाथ] दे० 'पृथ्वीनाथ' । पत्ते बहेडे के पत्तो के समान चौह चौहे होते हैं जो शिशिर पिरना-सज्ञा पुं॰ [दश०] चौपायो का लँगडापन । ऋतु में झड जाते हैं। फल भी बहेडे के समान होते हैं और पिरभू-सशा पुं० [ स० प्रभु ] ईश्वर । प्रभु । स्वामी। उ०- कही कही चमडा सिझाने के काम में पाते हैं। लकडी इसकी परतष ही दीसरे प्राणी, परभू भजण तणो परताप ।-रघु० मजबूत होती है और मकानों में लगती है । गाडी, नाव और रू० पृ० २३ । मूसल प्रादि भी इस लकडी के अच्छे होते हैं। इसकी छाल से पिरम्म-सज्ञा पुं॰ [ मं० प्रेम, हिं० पिरेमा ] दे० 'प्रेम' । उ०- पीला रग बनता है। रग के अतिरिक्त छाल दवा के काम जो तुहि साध पिरम्म की सीस काटि करि गोइ । खेलत खेलत में पाती है। लाख भी इसमें लगता है । छोटा नागपुर हाल करि जो किछु होइ त होइ ।-कबीर ग्र०, पृ० २५४ । और सिंहभूमि के आसपास टसर के कोए पियासाल के पेडो पर पाले जाते हैं। वैद्यक में पियासाल कोढ, विसर्प, प्रमेह, पिराई-सज्ञा स्त्री० [हिं० पीला, पोरा] दे॰ 'पिय राई'। उ०- कृमि, कफ और रक्तपित्त को दूर करनेवाला तथा त्वचा भोर यों उजराई, पिराई, ललाई, मलाई हू के न मुलायमी है तन । केशो को हितकारी माना गया है। इसे सज भी कहते हैं । -(शब्द०)। पर्या०-पीतसार । पीतसालक । प्रियक । असन । पीतशाल । पिराक-सचा पुं० [सं० पिष्टक, प्रा. पिडक, पिडक ] एक पकवान । महासर्ज। गोझा । गुझिया । गोझिया। पियासी-सा स्त्री॰ [देश॰] एक तरह की मछली। विशेष-इसको बनाने की विधि यह है कि मोयन दिए हुए मैदे पियुख-सज्ञा पुं० [सं० पीयूप] 70 'पीयूष' उ०—पियुख पयोधि की पतली लोई के भीतर सूजी, खोवा, मेवे आदि मोठे के मद्ध मनिन सौं बद्ध भूमि रोध सौं रुधिर रुचि रोचक रवन साथ भरते हैं और उसे अर्घचद्राकार मोडकर कोर को गूंथ मै ।-मति० ग्र०, पृ० ३३७ । देते हैं फिर उसे घी में तलकर निकाल लेते हैं। पियूख-सज्ञा पुं॰ [ स० पीयूप ] दे० 'पीयूप' । पिराग-सज्ञा पुं० [सं० प्रयोग ] दे० 'प्रयाग'। उ०—जैसे कासी 1
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३०१
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