पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२९६

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पित्तसंशयन ३००५ पित्ती' 1 द सिर और गले में दर्द रहता है, कफ और पित्त बहुत कष्ट उत्तेजना को दबा रखना। जन्त करना । जैसे,-मैं पिता से बाहर निकलता है। मल पतला होकर निकलता है। मारकर रह गया नहीं तो अनर्थ हो जाता। (२) विना सांस फूलती है और हिचकियां पाती हैं। उद्विग्न हुए या ऊबे कोई कठिन काम करते रहना। कोई पित्तसशयन-सज्ञा पुं॰ [स०] आयुर्वेदोक्त पोषधियो का एक वर्ग अरुचिकर या कठिन काम करने में न कवना । जैसे,—जो या समूह जिसमें की प्रोपधियां प्रकुपित पित्त को शात वडा पित्ता मारे वह इस काम को कर सकता है। पित्तमार करनेवाली मानी जाती हैं। काम = वह काम जो रुचिकर न हो भरुचिकर और कठिन काम । कर्ता को उबा देनेवाला काम । मन मारकर विशेष-सुश्रु त के अनुसार इस वर्ग में निम्नलिखित प्रोषधियाँ किया जानेवाला काम । हैं-चदन, लालचदन, नेत्रवाला, खस, अकंपुष्पी, विदारीकद, सतावर, गोदी, सिवार, सफेद कमल, कुई, नील कमल, २ हिम्मत । साहस । हौसला। जैसे, --उसका कितना पिता है केला कॅबलगट्टा, दूब मरोरफली ( मूर्वा ), काकोल्यादिगण जो दो दिन भी तुम्हारे मुकाबले ठहर सके । न्यग्रोधादिगण और तृणपचमूल । पित्तातिसार-सज्ञा पु० [सं०] वह अतिसार रोग जिसका कारण पित्त का प्रकोप या दोष होता है। पित्तस्थान-सज्ञा पुं० [सं०] शरीर के वे पांच स्थान जिनमें वैद्यक प्रथो के अनुसार पाचक, रजक आदि पाँच प्रकार के विशेष-मल का लाल, पीला अथवा हरा और दुगंधयुक्त होना, पित्त रहते हैं। ये स्थान प्रामाशय पक्वाशय, यकृत प्लीहा, गुदा पक जाना, तृषा, मूर्खा और दाह की अधिकता इस र के लक्षण हैं। हृदय, दोनो नेत्र और त्वचा हैं । पित्ताधिक-सञ्ज्ञा पु० [सं० पित्त + अधिक, आधिक्य ] सन्निपात का पित्तस्यंद-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पित्स्यन्द ] पित्त के कारण उत्पन्न एक एक रोग ।-माधव०, पृ० २८ । नेत्र रोग को। पित्तस्राव -सञ्ज्ञा पुं॰ [ म० ] सुश्रुत के अनुसार एक नेत्ररोग जिसमें पित्ताभिष्यद, पित्ताभिस्यद-मज्ञा पुं० [स० पित्ताभिप्यन्द, - भिस्यन्द ] अाँख का एक रोग। पित्तकोप से आँख पाना । नेत्रसंघि से पीला या नीला और गरम पानी बहता है। विशेष-आंखो का उष्ण और पीतवर्ण होना, उनमें पित्तहर' - सञ्चा पु० [सं० ] खस । उशीर । और पकाव होना उनमे घुप्रां उठता सा जान पहना म पित्तहर-वि० [स०] पित्त का नाशक (को०] । बहुत अधिक आंसू गिरना इस रोग के लक्षण हैं । पित्तहा'-मञ्चा पु० [ स० पित्तहन ] पित्तपापडा । पित्तारि-सज्ञा पुं० [सं०] १ पित्तपापडा। २ लाख । ३ "ल पित्तहार-वि० पित्तनाशक ( द्रव्य )। पित्ताड-सज्ञा पुं॰ [सं० पित्ताण्ड ] घोडो के अंडकोश मे होनेवाला पित्ताशय-सज्ञा पुं० [म०] पित्त की थैली । पित्तकोष । एक रोग। विशेष—यह यकृत या जिगर मे पीछे भौर नीचे की अं पित्ता-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पिच] १ जिगर में वह थैली जिसमें पित्त रहता होता है। इसका प्राकार अमरूद या नासपाती का हैं। पित्ताशय । विशेष विवरण के लिये दे० 'पित्ताशय'। होता है। यकृत में पित्त का जितना प्रश भोजनपाक क मुहा०—पिचा उवलना = दे० 'पित्ता खौलना'। पित्ता खौलना= आवश्यकता से अधिक होता है वह इसी में प्राकर सा वडा क्रोध प्राना । मिजाज भडक उठना । जैसे,—तुम्हारी रहता है। वातें सुनकर तो उसका पित्ता खौल गया। पित्तिका-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] एक ओषधि । एक प्रकार की शतपदी विशेष-पित्त का नाम अग्नि तथा तेज मी है, इन्ही कारणो पित्ती'-सज्ञा स्त्री॰ [ स० पित्त + ई ] एक रोग जो पित्त की अ से इन मुहावरों की उत्पत्ति हुई है। पित्ता उबलना, पित्ता कता अथवा रक्त मे बहुत अधिक उष्णता होने के कार खौलना, आदि पित्त उबलना या पित्त खौलना का लक्षणा- त्मक रूप है। विशेष—इसमें शरीर भर में छोटे छोटे ददोरे पड जाते हैं भी पिता निकालनाtकाम कराके अथवा और किसी प्रकार से उनके कारण त्वचा में इतनी खुजली होती है कि रो. किसी को प्रत्यत पीडित करना। बहुत अधिक परिश्रम जमीन पर लोटने लगता है। का काम कराना । पित्ता पानी करना = बहुत परिश्रम क्रि० प्र०-उछलना। करना । जान लडाकर काम करना। अति कठोर प्रयास २ लाल लाल महीन दाने जो पसीना मरने से गरमी के दि करना । जैसे,—इस काम में बहा पित्ता पानी करना में शरीर पर निकल पाते हैं। अभौरी । पडेगा। पिशा मरना = कुद्ध या उत्तेजित होने की आदत पित्तो-सज्ञा पुं॰ [स० पितृ ] पितृष्य । चाचा। काका । छुट जाना । गुस्सा न रह जाना । जैसे,-मब उसका का भाई। पित्ता विलकुल मर गया । पिता मारना=(१) क्रोध पित्ती-सशा स्त्री० [?] एक प्रकार की वेल जिसे रक्तवल्ली दवाना । क्रोध होने पर चिच पात रखना। सहना । कहते हैं। चदन । होता है।