पीतल धातु। पित्तपांडु २००४ पित्तश्लेश्माल्वण हैं और वह कडा, बढा हुप्रा और पत्थर का सा मालूम पित्तल-वि० [सं० पित्त ] जिससे पित्त का उभाड हो। जिससे होता है। कुछ काल तक इस रोग की स्थिति होने से पित्तदोष बढे । पित्तकारी (द्रव्य) । कामला, प्रांतों के कार्य में रुकावट और यकृत में फोहा पित्तल-सञ्ज्ञा पु० [ स०] १ भोजपत्र । २. हरताल । ३ पीतल आदि अन्य रोग होते हैं। घातु । यह रोग आयुर्वेदीय ग्रथो मे नहीं मिलता, इसका पता पाश्चात्य पित्तल-सज्ञा स्त्री. १ जलपीपल । २ सरिवन । शालपर्णी। ३ डाक्टरो ने लगाया है। पित्तपांडु-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० पित्तपाण्ड ] एक पित्तजनित रोग जिसमें पित्तला-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] १ जलपीपल । २ योनि का एक रोग रोगी के मंत्र, विष्ठा, नेत्र विशेष रूप से और सपूर्ण शरीर जो दुषित पित्त के कारण उत्पन्न होता है । 'भावप्रकाश' के सामान्य रूप से पीला हो जाता है और उसे दाह, तृष्णा, मत से योनि में अत्यत दाह, पाक तथा ज्वर इस रोग के तथा ज्वर रहता है। लक्षण हैं। पित्तपापड़ा-सञ्ज्ञा पु० [हिं०] दे॰ 'पितपापड़ा' । पित्तवर्ग-सशा पुं० [सं०] मछली, गाय, घोडे, रुरु मृग और मोर के पित्तप्रकृति-वि० [सं०] जिसकी प्रकृति पित्त को हो । जिसके पित्तो का समूह । पचविध पित्त । शरीर में वात और कफ की अपेक्षा पित्त की अधिकता हो । विशेष-मतातर से सूअर, बकरे, मैसे, मछली और मोर के विशेष-वैद्यक के अनुसार पित्तप्रकृति व्यक्ति को भूख और पित्त पित्तवर्ग के अतर्गत माने गए हैं। प्यास अधिक लगती है। उसका रग गोरा होता है, हथेली, पित्तवल्लभा-सज्ञा स्त्री० [सं०] काला अतीस । तलुवे और मुह पर ललाई होती है, केश पाडवणं और विकार से पेट रोएँ कम होते हैं, वह बहुत शूर, मानी पुष्प चदनादि के लेप पित्तवायु-सञ्ज्ञा मी० [ स०] पित्त की वृद्धि में वायु का बढ़ना [को०] । से प्रीति करनेवाला, सदाचारी, पवित्र, प्राश्रितो पर दया करनेवाला, वैभव, साहस और बुद्धिवल से युक्त होता है, पित्तविदग्धदृष्टि-सज्ञा पुं॰ [ स०] अाँख का एक रोग जो दूषित भयभीत शत्रु की भी रक्षा करता है, उसकी स्मरण शक्ति पित्त के दृष्टिस्थान में आ जाने से होता है। उत्तम होती है, शरीर खूब कसा हुआ नहीं होता, मधुर, विशेष-इसमें दृष्टिस्थान पीतवर्ण हो जाता है और साथ ही शीतल, कडवे और कसैले भोजन पर रुचि रहती है, शरीर सारे पदार्थ भी पीले दिखाई पडने लगते हैं। दोष प्रांख के मे बहुत पसीना और दुर्गघि निकलती है। उसे विष्ठा अधिक तीसरे परदे या पटल में रहता है इससे रोगो को दिन मे नही होती है और भोजन जलपान वह अधिक मात्रा में लेता है। सुझाई पडता, वह केवल रात मे देखता है। उसे क्रोध और ईया अधिक होती है। वह धर्म का द्वेपी पित्तविसर्ग-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] विसपं रोग का एक भेद । और स्त्रियो को प्राय अप्रिय होता है, नेत्रो की पुतलियाँ पित्तव्याधि-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म०] पित्तदोष से उत्पन्न रोग। पित्त के पीली और पलकों में बहुत थोडे बाल होते हैं, स्वप्न मे कनेर विगडने से पैदा हुई बीमारी । ढाक आदि के पुष्प, दिग्दाह, उल्कापात, बिजली, सूर्य पित्तशमन-वि० [सं० ] पिच को दूर करनेवाला [को०] । तथा अग्नि को देखता है, क्लेशभीत, मध्यम आयु और बल- वाला होता है और बाघ, रीछ, वदर, विल्ली, भेडिया प्रादि पित्तशूल-सञ्ज्ञा पु० [सं०] एक प्रकार का शूल रोग जो पित्त के प्रकोप से होता है। से उसका स्वभाव मिलता है। विशेष-इसमे नाभि के आसपास पीडा होती है। प्यास लगना, पित्तप्रकोप-सज्ञा पु० [सं०] पित्त का बढ़ना [को०] । पसीना निकलना, दाह, भ्रम और शोप इस रोग के लक्षण पित्तप्रकोपी-पि० [ स० पित्तप्रकोपिन् ] पिच को बढाने या कुपित हैं। डाक्टरो के मत से पित्त के अधिक गाढ़े होने अथवा उसकी करनेवाला (द्रव्य)। (वस्तु) जिसके भोजन से पित्त की पथरियो के प्रांतो में जाने से यह रोग उत्पन्न होता है। ऐसे वृद्धि हो। पित्त या पथरियो के सचार मे जो पीडा होती है वही विशेप-तक, मद्य, मास, उष्ण, खट्टी, चरपरी आदि वस्तुएँ पित्तशूल है। पित्तप्रकोपी हैं। पित्तशोथ-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] पित्तवृद्धि से होनेवाली सूजन [को०] । पित्तप्रमेह-सज्ञा पुं० [सं० पित्त + प्रमेह ] एक प्रकार का प्रमेह पित्तश्लेश्मज्वर-नशा पुं० [स०] वह ज्वर जो पित्त और कफ रोग जिसमें मूर्धा तथा पतले दस्त होते हैं, वस्ति और दोनो के प्रकोप अथवा अधिकता से हुआ हो । लिंग में पीडा होती है। (माधव०, पृ० १८५) । विशेप-मुख का कड वापन, तद्रा, मोह, खांसी, अरुचि, तृष्णा, पित्तभेषज-सज्ञा ० [सं०] मसूर । मसूर की दाल । क्षणिक दाह और कुछ ठढ लगना आदि इसके लक्षण हैं । पित्तर-नशा पुं० [सं० पितृ, हिं० पितर ] दे० 'पितृ' । उ० पित्तश्लेश्माल्वण-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर । कबीर० श, भा०, पृ० ३३ । विशेप-इसमें शरीर के भीतर दाह और वाहर ठढा रहता पित्तरक्त-सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'रक्तपित्त'। है। प्यास बहुत अधिक लगती है, दाहिनी पसलियो, छाती,
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