पिठमिरज्ञा २६४ पिण्या गाने पर दूसरी बार उस पिट्ट को वारी लेकर खेलते हैं। पिड़का-सज्ञा सी [सं० पिढका ] दे॰ 'पिटक' । ४.नेर मे नाय रहनेवाला। ५ मघानुकरण करनेवाला। पिड़कना-क्रि० अ० [हिं० पिनकना ] १ आवेश मे आना। २ पिना मम बन्ने किसी का अनुयायी होनेवाला । ६ किसी झंझलाना। पीहर एक बात या समर्थन करनेवाला। हाँ में हाँ मिलाने- पिड़काना-क्रि० स० [हिं० पिडकना ] चिढ़ाना । परेशान करना। वाला । शामदी। झंझलाहट पैदा करना। पिठमिला---० [हिं० पीठ+मिलना ] अंगरखे या कोट प्रादि पिड़किया-सञ्ज्ञा डी० [हिं० पिचुकिया ] एक प्रकार का पकवान या वह भाग जो पीठ पर रहता है । पीठ। गुझिया। पिठर-रात [M०] १ गोथा । मुस्तक । २. मथानी । मयनदड । पिदकी संज्ञा स्त्री० [ स० पिडक ] १. दे० 'पिडक' । २. दे० ३. पाली । ४ एक प्रकार का घर । ५ एफ अग्नि । ६ एक 'पेंडकी'। दान। पिड़गना -सज्ञा पुं० [फा० पर्गन परगनङ्, हिपरगना ] दे० पिटरक-4 पु० [10] १ घाली। पात्र । वर्तन । २ एक नाग 'परगना' । उ०-वावन पिडगना तो रायसल नै साहि दीनां । का नाम । -शिखर०, पृ० २०२। पिठरककपाल-7 पुं० [सं०] टे हुए वरतन का टुकडा [को०] । पिड़भू-सशा, स्त्री॰ [ म० पिण्ड + भूमि ] युद्धभूमि । रणक्षेत्र । पिठरपाक-पु. [ म०] भिन्न भिन्न परमाणुनों के गुणो में उ०-पिडभू भीम पछाडियो, खुरम गयो कर खेह । -चौकी- रोज के गयोग मे फेरफार होना । जैसे, घड़े का पककर दास न०, भा० १, पृ०७३। लाल होना। पिड़वा-सज्ञा स्त्री॰ [ म० प्रतिपदा, हिं० पदिवा ] दे॰ 'प्रतिपदा', पिठरिका-० [३०] थाली। उ.-मसुरा सिर प्रायौ अखौ, पिटवारे परभात।-रा० रू०, पिठरी- सी० [ म०] १ थाली । पात्र । २ राजमुकुट । पृ० २७६। पिठवन-मशा पी० [M० पृष्टपर्णी ] एक प्रसिद्ध लता जो प्रौपष पिड़िका-सा सी० [सं० पिडका ] दे० "पिडका' । उ०-भोज और के काम में प्राती है। पिठौनी । पृष्ठपणी। सुश्रुत के मत से नो पिडिका हैं और चरक के मत से सात विशेप-यह पश्चिम और वगाल में अधिकता से पाई जाती है। ही।-माधव०, पृ० १८७ । परतु दक्षिण में नहीं दिखाई पड़ती। इसके पत्ते छोटे गोल पिड़िया-सा पी० [सं० पिष्टक या पिण्डिका अथवा हिं० पेठा ] गोल होते हैं और एक एक डांडी मे तीन तीन लगते हैं। १ चावल का गुघा हुआ पाटा जो लवोतरे पेडे के प्राकार फूल गोल मोर सफेद होते हैं। जट कम मिलने के कारण का बनाकर अदहन मे छोड दिया जाता है और उबल जाने इमारी लता ही प्राय काम में लाई जाती है । वैद्यक में इसको पर खाया जाता है । २ लवोतरे और गोल आकार के सत्तू पटु, तिक्त, दपण, मधुर, क्षारक, त्रिदोषनाशक, वीर्यजनक, की बडी हुई पिंडिका। तथा दाह, घर, श्वास, तृपा, रक्तातिसार, वमन, वातरक्त, पिडुरी-तशा स्त्री० [हिं० ] दे० 'पिंडरी' । उ० --जांघे भर पाई नग मोर उन्माद प्रादि का नाशक लिखा है। और पिड़री थरथराने लगी।-श्यामा०, पृ० १२१ । पर्या०-फकशनु । कदला । फलशी । च्याप्टुक । मेखला। पिढ़ई-सी० पी० [हिं० पीढ़ा+पई (प्रत्य॰)] १ छोटा पीढ़ा नोटुक । पच्छिका । चरकुल्या । चर्कपणी । तन्वी । या पाटा । २ क्सिी छोटे यन्त्र का प्राधार जो छोटे पीदे के धमनी। दीर्घपर्णा । पृथकपण। पृश्निपर्णी | चित्रपर्णी । समान हो । वह ढाँचा जिसपर कोई छोटा यत्र रखा रहे, विपी। मिहपुच्ची । गुहा । पिष्टपणी । लांगुली । गाल जैसे, रहँट वा। गुता । मेखला । लांगुलिका । वमपर्णा । सिंहपुप्पी । पिढिपानी-सश रसी० [हिं० पीदा+पानी ] प्रागत को बैठने के अग्निपणी । विष्णगुपण । अतिगुहा । घष्टिला। लिये पाटा और हाथ मुंह धोने के लिये जल । पीढ़ा मौर पिठो-० [हिं०]२० 'पिट्ठी' । पानी । उ०-के तो थिकाह ककर कुल जानी । विनु परिचय पिठीनमा [0] एक ऋषि । नहिं दिव पिढिपानी।-विद्यापति, पू० ३६३ । पिठौनी [.. गृटपणी, हि पिठवन् ] पिठवन' पिढ़ो-सहा सी० [ स० पीठिका ] १ मचिया। उ०-कोळ कहै पिठोरो-10 [हिं० पिछी+शौरी (प्रत्य॰)] १ पीठी की बलि पावरी लावी । बलि वलि मोहि पिढ़ी पकरावी ।-नद पसी हुई पाने की कोई नीज, जैसे, वरी पकौरी। २ गुधे ग्र०, पृ०२१५। २० हुए पाटे का वह छोटा पेदा जो पकती हुई दाल में छोड पिण-प्र०प० [सं० पुन ? ] १. परतु । वितु । लेकिन । उ०- दिया जाता है पौर उसी मे उयसकर पक जाता है। दलफरा। पुणजे मुघ प्रखरोट पिण, 4 दश दोम असाध ।-रघु० २०, पिट्ट-० [१० पृष्ट, प्रा० पिष्ठ, हि. पी8] *0 'पीठ' । पृ० १३ । २ भी। 30-म्हे पिण जास्या नरवरह, एकरण 30-प्रगान निभानह पिट्ठ दि।-कौति०, पृ० ११२ । साय खडाह ।-ढोला०, दू० ६२८ । पिदक- [ पिदक ] पोटा फोटा । फुची । म्फोटक । पिण्या-राणा पी० [सं०] मालगनी। 'पीढ़ी'।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२८९
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