पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२७७

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पासाही
पाहुना
२९८६
उ॰––पाप भया पासाह कौन के मुजरे जावे। ––पलटू॰,

पृ० २३।
पासाही†–– संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'पातशाही'। उ॰––निरगुन सरगुन दोउ न जाही। तेहि घर सत करे पासाही। ––घट॰, पृ॰ २१९।
पासि₢–– संज्ञा पुं॰ [सं॰] फंदा। पाश।
पासिक–– संज्ञा पुं॰ [सं० पाश] पाश। फंदा। जाल। बंधन। उ॰––खैंचत लोभ दसौ दिसि को महि, मोह गहा हत पासिक डारे। ––केशव (शब्द॰)।
पासिका––संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] पास। फंदा। जाल। बंधन। उ॰–– भ्रुव तेग, सुनैन के बान लिए मति बेसरि की सँग पासिका है। बहु भावना की परकासिका है तुम नासिका घीर विनासिका है। ––मतिराम (शब्द॰)।
पासी––संज्ञा पुं॰ [सं॰ पाशिन्, पाशी] १ जाल या फंदा डालकर चिड़िया पकड़नेवाला। २ एक नीचे और अस्पृश्य मानी जाने वाली जाति जो मथुरा से पूरब की ओर पाई जाती है।
विशेष––इस जाति के लोग सूअर पालते तथा कहीं कहीं ताड़ पर से ताड़ी निकालने का काम करते हैं। प्राचीन काल में इनके पूर्वज प्राणदंड पाए हुए अपराधियों के गले में फाँसी का फंदा लगाते थे इसी से यह नाम पड़ा।
पासी––संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ पाश, हिं॰ पास+ई (प्रत्य॰)] १ फंदा। फाँस। पाश। फाँसी। २ घास बाँधने की जाली ३ घोड़े के पैर बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी।
पासीहारा₢––संज्ञा पुं॰ [हिं॰ पासी (=फाँसी+हारा (प्रत्य॰)] वह व्यक्ति जो फाँसी लगाता है। फाँसीवाला। उ॰––यहु ऐसा रूप छलावा। ठग पासीहारा आवा। सब ऐसा देखि विचारे। ये प्रानघात बटवारे। ––दादू॰, पृ॰ ५४६।
पासुरी₢––संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'पसली'।
पाहँ₢––अव्य॰ [सं॰ पार्श्व, प्रा॰ पास, पाह] १ निकट। समीप। पास। उ॰––मैं जानेउ तुम्ह मोही माहाँ। देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ। –– जायसी (शब्द॰)। २ पास जाकर। संबोधन करके। किसी के प्रति। किसी से। उ॰ –– जाइ कहौ उन पाहँ सँदेसू––जायसी (शब्द॰)।
पाह––संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ पाहन] एक प्रकार का पत्थर जिससे लौंग, फिटकरी और अफीम को घिसकर आँख पर चढ़ाने का लेप बनाते हैं।
पाह––संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'प्यास'। उ॰––कोटि अरब्ब परब्ब असषि प्रिथी पति हौन की पाह जगैगी।––सुंदर ग्र॰, भा॰ २, पृ॰ ४२३।
पाहण₢––संज्ञा पुं॰ [हिं॰ पाषाण, प्रा॰ पाहण] दे॰ 'पाषाण'। उ॰––जल तिरिया पाहण सुजड पतसिय नाम प्रताप।–– रघु॰ रू॰, पृ॰ २।
पाहत––संज्ञा पु॰ [सं॰] शहतूत का वृक्ष [को॰]।
पाहन₢––संज्ञा पुं॰ [सं॰ पाषाण प्रा॰ पाहण, पाहण] १ पत्थर। प्रस्तर। उ॰––(क) महिमा यह न जलधि कै बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कै करनी। ––तुलसी (शब्द॰)। (ख) पाहन ते हरि कठिन कियो हिय कहत न कछु बनि आई। ––सूर (शब्द॰)। २ पारस पत्थर। स्पर्श मणि।
पाहरू₢†––संज्ञा पुं॰ [सं॰ प्रहर, हिं॰ पहर, पहरा] पहरा देनेवाला। पहरेदार। चौकसी करनेवाला। रखवाली करनेवाला। उ॰––(क) नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद यत्रिका प्रान जाहिं केहि बाट।––तुलसी (शब्द॰)। (ख) जागत कामी चिंतित चकोर, बिरही बिरहिन पाहरू चोर। ––तुलसी (शब्द॰)।
पाहा––संज्ञा पुं॰ [सं॰ पथ, हिं॰ पाथ] पान की बेलों या किसी ऊँची फसल के खेतों के बीच का रास्ता। मेड।
पाहात––संज्ञा पुं॰ [सं॰] ब्रह्मदारू वृक्ष। शहतूत का पेड़।
पाहिं––अव्य॰ [सं॰ पार्श्व, प्रा॰ पास, पाह] १ पास। निकट। समीप। २ पास जाकर। संबोधन करके। किसी के प्रति। किसी से। उ॰––कोउ न बुझाइ कहै नृप पाही। ये बालक, अस हठ भल नाही।––तुलसी (शब्द॰)।
पाहि––क्रिया पद [सं॰] एक संस्कृत पद जिसका अर्थ है 'रक्षा करो',
'बचाओ'। उ॰––पाहि पाहि। रघुबीर गुसाई।––तुलसी (शब्द॰)।
पाहीं––अव्य॰ [सं॰ पार्श्व] दे॰ 'पाहिं'। उ॰––निज बुधि बल भरोस मोहि नाही। ताते बिनय करौं सब पाही।––मानस १।८।
पाही––संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ पाह] वह खेती जिसका किसान दूसरे गाँव में रहता है।
पाहुँच––संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ पहुँचना] दे॰ 'पहुँच'। उ॰––आपनी भाँति सब काह कही है। मंदोदरी, महोदर, मालिवान, महामति राजनीति पाहुँच जहाँ लौं जाकी रही है।––तुलसी (शब्द॰)।
पाहुन₢––संज्ञा पु॰ [हिं॰ पाहुना] दे॰ 'पाहुना'।
पाहुना––संज्ञा पुं॰ [सं॰ प्राघूर्ण, प्राघूर्णक प्राघुर्ण (=अतिथि), अथवा सं॰ उप॰ प्र+आह्वयनेय, प्राह्वयनेय, पा॰ पाहुणेय्य] [स्त्री॰ पाहुनी] १ अतिथि। मेहमान। अभ्यागत। संबंधी, इष्ट- मित्र या कोई अपरिचित मनुष्य जो अपने यहाँ आ जाय और जिसका सत्कार उचित हो। २ दामाद। जामाता।
विशेष––इस शब्द की व्युत्पति यों तो प्राघुण से सुगम जान पड़ती है। पर प्राघुण शब्द प्राघूर्ण से ही बनाया गया है। प्राघूर्ण शब्द का प्रयोग भी प्राचीन नहीं है। कथा सरित्- सागर में प्राघुण और पंचतंत्र में प्राघूर्ण शब्द आया है। नैषध में भी प्राघुणिक मिलता है। कोशों में तो 'प्राहुण' तक संस्कृत शब्दवत् आया है। पृथ्वीराज रासो (६६।३६०) में 'प्राहुन्ना' शब्द का प्रयोग मिलता है––'चित्रग राय रावर

चवै प्राहुन्ना भग्गा फिरै'। पाली का 'पाहुणेय' शब्द इन