पावासर २६८१ पाशवपालन निर्वाण के पीछे पावा के लोगों को भी बुद्ध के शरीर का मतलब यह कि तांत्रिको को इन सबका त्याग करना कुछ प्रश मिला था जिसके ऊपर उन्होने एक स्तूप उठाया। चाहिए। यह गांव अब भी इसी नाम से जाना जाता है और गोरख ४ फलित ज्योतिष में एक योग जो उस समय माना जाता है पुर जिले मे गडक नदी से ६ कोस पर है। गोरखपुर से यह जब सब राशि ग्रहपचक मे रहती है। बोस कोस उत्तरपश्चिम पडता है। पाशकठ-वि० [सं० पाशकण्ठ ] जिसके गले मे फदा हो [को०] । पावासर-पञ्चा पु० [?] मानसरोवर । उ०-मोताहल हंसा पाशक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ एक प्रकार का खेल या जुमा । पासा। मिले, पावासर रे पास । -वाँकी० य०, भा० १, पृ० ४८ । चोपट । २ पाश । फदा । वंधन । पावो-मचा सी० [देश॰] एक प्रकार की मैना। पाशकपोठ-सज्ञा पुं० [स०] १ जूमा खेलने का स्थान । २ चौपड खेलने की विसात [को०)। विशेष-इसकी लंबाई १७-१८ अ गुल होती है। यह ऋतु के अनुसार रग बदला करती है और पजाब के अतिरिक्त सारे पाशकेरली-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पाश + केरल ( देश ) ] ज्योतिष की एक गणना जो पासे फेंककर की जाती है । यूनान, फारस भारत मे पाई जाती है। यह प्राय ४ या ५ अडे देती है। आदि पश्चिमी देशो मे पुराने समय में इसका बहुत प्रचार पाश-सज्ञा पुं॰ [स०] १ रस्सी तार, तांत. यादि के कई प्रकार था। वहीं से शायद दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में यह के फेरो पौर सरकनेवाली गाँठो प्रादि के द्वारा बनाया हुआ विद्या आई हो। घेग जिसके बीच में पड़ने से जीव बंध जाता है और कभी कभी वधन के अधिक कसकर बैठ जाने से मर भी जाता है। पाशक्रीड़ा-सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] पासे का खेल । जुआ [को०] । फदा । फांस । वधन । जाल । पाशजाल-सशा पुं० [सं०] दृश्यमान जगत् । ससार [को॰] । विशेष-प्राचीन काल मे पाश का व्यवहार युद्ध में होता था पाशधर-सज्ञा पुं॰ [ स०] वरुण देवता ( जिनका अस्त्र पाश है ) । और अनेक प्रकार का बनता था । इसे शत्रु के ऊपर डालकर पाशन-सज्ञा पुं० [म०] १ फदा । जाल । २ पाश से बांधना । उसे वविते या अपनी पोर खीचते थे। अग्निपुराण मे लिखा जाल में फंसाना [को०] । है कि पाश दस हाय का होना चाहिए, गोल होना चाहिए। पाशपाणि - सज्ञा पुं० [सं०] वरुण देवता (जिनका अस्त्र पाश) है। उसकी डोरी सूत, गून, मज, तांत, चमडे आदि की हो। पाशपाश-वि० [फा० ] चूर चूर । टुकडे टुकडे (को०] । तीस रस्सियां होनी चाहिए इत्यादि' । वैशपायनीय धनुर्वेद पाशवंध-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पाशबन्ध ] फदा । घेरा । फांस (फो०) । में जिस प्रकार के पाश का उल्लेख है वह गला कसकर मारने के लिये उपयुक्त प्रतीत होता है। उसमे लिखा है कि पाश पाशवधक-सज्ञा पुं॰ [ स० पाशवन्धक ] चिडीमार । बहेलिया [फो०। के अवयव सूक्ष्म लोहे के त्रिकोण हो, परिधि पर सीसे की पाशवधन -सञ्ज्ञा पुं० [सं० पाशयन्धन ] जाल [को०] । गोलियां लगी हो । युद्ध के अतिरिक्त अपराधियो को प्राणदड पाशवद्ध-वि० [सं०] फदे में पडा हुना । जाल में फंस देने मे भी पाश का व्यवहार होता था, जैसे आजकल भी हुया [को०] । फांसी मे होता है। पाश द्वारा वध करनेवाले चाडाल पाशभृत-सज्ञा पुं० [सं०] १ वरुण । २. वह व्यक्ति जो 'पाशी' कहलाते थे जिनकी सतान माजकल उत्तरीय भारत लिए हुए हो [को॰] । में पासी कहलाती हैं। पाशमुद्रा-सशा जी० [सं० ] तात्रिकों की एक मुद्रा जो दाह २ पशु पक्षियो को फंसाने का जाल या फदा । और बाएं हाथ की तर्जनी को मिलाकर प्रत्येक के सिरे । विशेप-जिस प्रकार किसी शब्द के आगे 'जाल' शब्द रखकर अंगूठा रखने से वनती है। समूह का अर्थ निकालते हैं उसी प्रकार सूत के प्राकार की पाशरजु-सा स्त्री० [म०] १ बांधने की रस्सी । २ श्रृंखला वस्तुपों के सूचक शब्दो के पागे 'पाश' शब्द रहने से समूह बेही (को०)। का अर्थ लेते हैं, जैसे-केशपाश । कर्ण के आगे पाश शब्द से पाशव'-वि० [स०] १. पशु सबधी । पशुप्रो का । उ०-क्या दु उत्तम समझा जाता है । जैसे, कणंपाश अर्थात् सुदर कान । दूर कर दे बधन, यह पाशव पाश और ऋदन ।-वेला, पू ३ वधन । फंसानेवाली वस्तु । उ०-प्रभु हो मोह पाश क्यो ४६ । २ पशुप्रो का जैसा । जैसे, पाशव व्यवहार । छूट ।-तुलसी (शब्द॰) । पाशव'-मञ्ज्ञा पुं० [सं०] पशुप्रो का झ ड [को०] । विशेप-शैव दर्शन से छह पदार्थ कहे गए गए हैं-पति, विद्या, पाशवता-सज्ञा स्त्री० [सं० पाशव+ता (प्रत्य०) ] पशुता । उ० अविद्या, पशु, पार्थ और कारण । पाश चार प्रकार के कहे निर्वलता का साथ छोड दो। पाशवता का पाश तोड दो गए हैं-~-मल, कर्म, माया, और रोष शक्ति। (सर्वदर्शन- ग्रामिका, पृ० १२२ । सग्रह )। कुलार्णव तत्र में 'पाश' इतने वतलाए गए हैं- पाशवपालन-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १ चरागाह । पशुप्रो के घास पर घृणा, शका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति । का मैदान । २. चारा। घास [को० ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२७२
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