पारस २९६६ पारस मनो तामरस पारस खेलत मिलि मधुकर गुजारि ।-सूर (शब्द०) । २ घेग। महल । पारस"-सञ्ज्ञा पुं० [ स० पलास ] बादाम या खूबानी की जाति का एक मझोला पहाडी पेह जो देखने में ढाक के पेड सा जान पड़ता है। विशेष—यह हिमालय पर सिंधु के किनारे से लेकर सिक्किम तक होता है । इसमे से एक प्रकार का गोंद और जहरीला तेल निकलता है जो दवा के काम में आता है। इसे गीदड ढाक और जामन भी कहते हैं । पारस-सज्ञा पुं० [सं० पारस्य ] हिंदुस्तान के पश्चिम सिंधुनद मौर अफगानिस्तान के प्रागे पड़नेवाला एक देश । प्राचीन काबीज और वाह्नीक के पश्चिम का देश, जिसका प्रताप प्राचीन काल में बहुत दूर दूर तक विस्तृत था और जो अपनी सभ्यता और शिष्टाचार के लिये प्रसिद्ध चला पाता है। विशेष-प्रत्यत प्राचीन काल से पारस देश आर्यों को एक शाखा का वासस्थान था जिसका भारतीय पार्यों से घनिष्ट सबध था। प्रत्यत प्राचीन वैदिक युग मे तो पारस से लेकर गगा सरयू के किनारे तक की सारी भूमि आर्यभूमि थी, जो अनेक प्रदेशो मे विभक्त थी। इन प्रदेशो मे भी कुछ के साथ पार्य शब्द लगा था। जिस प्रकार यहाँ आर्यावर्त एक प्रदेश था उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी प्राधुनिक प्रफगानिस्तान से लगा हुमा पूर्वीय प्रदेश 'अरियान' या 'ऐर्यान' (यूनानी- एरियाना ) कहलाता था जिससे ईरान शब्द बना है। ईरान शब्द पार्यावास के अर्थ में सारे देश के लिये प्रयुक्त होता था। शाशानवशी सम्राटों ने भी अपने को 'ईरान के शाहशाह' कहा है । पदाधिकारियो के नामों के साथ भी 'ईरान' शब्द मिलता है-जैसे 'ईरान-स्पाहपत' ( ईरान के सिपाहपति या सेनापति), ईरान प्रबारकपत' (ईरान के भडारी ) इत्यादि । प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ प्रार्य शब्द वहे गौरव के साथ लगाते थे। प्राचीन सम्राट् दारयवह (दारा) ने अपने को 'अरियपुत्र' लिखा है। सरदारो के नामों में भी आर्य शब्द मिलता है, जैसे, अरियशम्न, अरियोवर्जनिस, इत्यादि । प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बंटा था उनमें पारस की खाडी के पूर्वी तट पर पहनेवाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पहा । इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पसिंपोलिस ) थी, जहाँपर आगे चलकर 'इश्तख' बसाया गया। वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था। यह नाम हखामनीय वश के सम्राटो के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिये व्यवहृत होने लगा। यही कारण है जिससे वेद और रामायण मे इस शब्द का पता नहीं लगता। पर महाभारत, रघुवश, कथासरित्सागर मादि मे पारस्य भौर पारसीको का उल्लेख वरावर मिलता है। प्रत्यंत प्राचीन युग के पारमियो और वैदिक आर्यों में उपासना, कर्मकाड आदि मे भेद नही था। वे अग्नि, सूर्य वायु प्रादि की उपासना और अग्निहोत्र करते थे। मिथ (मित्र = सूर्य), वायु ( = वायु ), होम ( = सोम ), अरमइति (= प्रमति), अहमन् ( = अर्यमन् ), नइयंसह ( = नगशस) आदि उनके भी देवता थे। वे भी बड़े वडे यश्न (यज्ञ) करते, सोमपान करते और अध्नवन (अथर्वन ) नामक याजक काठ से काठ रगडकर अग्नि उत्पन्न करते थे। उनकी भापा भी उसी एक मूल पार्य भाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक सस्कृत निकली हैं । प्राचीन पारसी और वैदिक संस्कृत मे कोई विशेष भेद नहीं जान पडना । अवस्ता मे भारतीय प्रदेशो और नदियों के नाम भी हैं। जैसे, हप्तहिंदु ( मप्तसिंधु = पजाव), हरस्बेती ( सरस्वती ), हरयू (सन्यू) इत्यादि । वेदो से पता लगता है कि कुछ देवतानो को असुर सज्ञा भी दी जाती थी। वरुण के लिये इस सश का प्रयोग कई वार हुआ है । सायणाचार्य ने भाष्य मे असुर शब्द का अर्थ लिखा है- 'असुर सर्वेषा प्राणद' । इद्र के लिये भी इस सज्ञा का प्रयोग दो एक जगह मिलता है, पर यह भी लिखा पाया जाता है कि 'यह पद प्रदान किया हुआ है। इससे जान पडता है कि यह एक विशिष्ट सज्ञा हो गई थी। वेदो मे क्रमश वरुण पीछे पडते गए हैं और इद्र को प्रधानता प्राप्त होती गई है । साथ ही साथ असुर शब्द भी कम होता गया है। पीछे तो असुर शब्द राक्षस, दैत्य के अर्थ में ही मिलता है । इससे जान पडता है कि देवोपासक और असुरोपासक ये दो पक्ष प्रार्यों के बीच हो गए थे। पारस की ओर जरथुस्त्र (आधु• फा० जरतुश्त ) नामक एक ऋषि या ऋत्विक् (जोता स० होता ) हुए जो असुरोपासको के पक्ष के थे। इन्होने अपनी शाखा ही अलग कर ली और 'जंद अवस्ता' के नाम से उसे चलाया। यही 'जद अवस्ता' पारसियों का धर्मग्रथ हुआ। इससे देव शब्द दैत्य के अर्थ में पाया है । इद्र या वृत्रहन (जद, वेरेथन ) दैत्यो का राजा कहा गया है । शश्रीवं (शवं) और नाह इत्य ( नासत्य भी दैत्य कहे गए हैं । अन्न (मगिरस ) नामक अग्नियाजको की प्रशसा की गई है और सोमपान की निंदा । उपास्य अहरमज्द ( सर्वज्ञ असुर ) है, जो धर्म और सत्यस्वरूप है। प्रहमन (अर्यमन ) अधर्म और पाप का अधिष्ठाता है। इस प्रकार जरथुस्ल ने धर्म और अधर्म दो द द शक्तियों को सूक्ष्म कल्पना की और शुद्धाचार का उपदेश दिया । जरथुस्त्र के प्रभाव से पारस में कुछ काल के लिये एक बहुमज्द की उपामना स्थापित हुई और बहुत से देवतामो की उपासना और कर्मकाह कम हुपा। पर जनता का सतोष इस सूक्ष्म विचारवाले धर्म से पूरा पूरा नहीं हुप्रा । शाशानो के समय में मग याजको भौर पुरोहितो का प्रभाव बढ़ा तब बहुत से स्यूल देवताओं की उपासना फिर ज्यो की त्यो जारी हो गई और कर्मकांड की जटिलता फिर वही हो गई । ये पिछली पद्धतियाँ भी 'जद अवस्ता' मे ही मिल गई। 'जद प्रवस्ता' मे भी वेद के समान गाथा (गाथ) भोर मय
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