1 पातालकेतु २६४० पासित धन, सुख और शोभा से परिपूर्ण हैं। इन विषयो मे ये स्वर्ग पर्या॰—गर्तालाबु । भूतुंबी । देवी । वल्मीकस भवा। दिव्यतुवी। से भी बढ़कर हैं । सूर्य और चद्रमा यहाँ प्रकाश मात्र देते हैं, नागतु बी । शऋचापसमुद्भवा । गरमी तथा सरदी नहीं देने पाते । पृथ्वी या भूलोक के बाद पातालतोबो-सच्चा भी० [सं० पातालतुम्धी ] ६० पातालतु बी' । ही जो पाताल पडता है उसका नाम अतल है। यहां की पावालनिलय-सज्ञा पुं० [सं०] १ दैत्य । सर्प । भूमि का रग काला है । यहाँ मय दानव का पुत्र 'वल' रहता पातालनिवास-सज्ञा पुं० [ स० ] दे० 'पातालनिलय' । है जिसने ६६ प्रकार की माया की सृष्टि कर रखी है। दूसरा पातामनृपति-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] सीसा । पाताल वितल है। इसकी भूमि सफेद है। यहाँ भगवान शकर पार्षदो और पार्वती जी के साथ निवास करते हैं। पातालयत्र-सद्या पुं० [सं० पातालयन्त्र ] १ वह यत्र जिसके द्वारा उनके वीर्य से हाटकी नाम की नदी निकली है जिससे हाटक कडी पोषधियाँ पिघलाई जाती हैं या उनका तेल बनाया नाम का सोना निकलता है। दैत्यो की स्त्रियाँ इस सोने को जाता है। बड़े यत्न से धारण करती हैं। तीसरा अघोलोक सुतल है । विशेष—इस यत्र मे एक शीशी या मिट्टी का वरतन ऊपर और इसकी भूमि लाल है। यहाँ प्रह्लाद के पौत्र बलि राज करते एक नीचे रहता है । दोनो के मुंह एक दूसरे से मिले रहते हैं हैं जिनके दरवाजे पर स्वयं भगवान् विष्णु पाठ पहर चक्र और सषिस्थल पर कपडमिट्टी कर दी जाती है। ऊपर की लेकर पहरा देते हैं। यह अन्य पातालो से अधिक समृद्ध, शीशी या बरतन में औषधि रहती है और उसके मुह पर सुखपूर्ण और श्रेष्ठ है । तलातल चौथा पाताल है । दानवेंद्र कपडे की ऐसी हाट लगा दी जाती है जिसमें बहुत से वारीक मय यहाँ का अधिपति है। इसकी भूमि पीले रंग की है। सूराख होते है । नीचे के पात्र के मुंह पर डाट नही रहती। यह मायाविदो का प्राचार्य और विविध मायाप्रो में निपुण फिर नीचे के पात्र को एक गढे मे रख देते हैं और उसके गले है। पांचावा पाताल महातल कहाता है । यहाँ की मिट्टी तक मिट्टी या वालू भर देते हैं । ऊपर के पात्र को सब मोर से खाँड मिली हुई है । यहाँ कद्रु के महाक्रोधी पुत्र सर्प निवास कहों या उपलो से ढककर आग लगा देते हैं। इस गरमी से करते हैं जिनमें से सभी कई कई सिरवाले हैं। कुहक, तक्षक, औषधि पिघलकर नीचे के पात्र में आ जाती है। सुपेन और कालिय इनमें प्रधान हैं। छठा पाताल रसातल २ वह यत्र जिसमें ऊपर के पात्र में जल रहता है, नीचे के पात्र है। इसकी भूमि पथरीली है। इनमें दैत्य, दानव और पाणि को पाँच दी जाती है और बीच में रस की सिद्धि होती है । (पणि) नाम के असुर इद्र के भय से निवास करते हैं। पातालवासिनी-सञ्चा स्त्री० ] नागवल्ली लता। सातवा पाताल पाताल नाम से ही प्रसिद्ध है। यहां की भूमि पातालवासी-स पु० [सं० पातालवासिन् ] दे० 'पातालोकस' । स्वर्णमय है । यहाँ का अधिपति वासुकि नामक प्रसिद्ध सर्प है। शख, शखचूड, कूलिक, धनजय प्रादि कितने ही विशाल- पावाली-सजा स्त्री० [ देश० ] ताड़ के फल के गूदे की बनाई हुई टिकिया जो प्राय. गरीब लोग सुखाकर खाने के काम में काय सर्प यहाँ निवास करते हैं। इसके नीचे तीस सहस्र योजन के तर पर अनत या शेष भगवान का स्थान है। पातालौकस-सक्षा पुं० [सं० पातालौकस, पातालौका ] १. वह ३ विवर । गुफा । विल । ४. बडवानल । चालक के लग्न से जिसका घर पाताल में हो । २ शेषनाग । ३ वलि । चौथा स्थान । ६ छद शास्त्र में वह चद्र (पक्र) जिसके द्वारा मात्रिक छद की सख्या, लघु, गुरु, कला मादि का पाताषत -सहा पुं० [हिं० पात + अाखत ] पत्र और अक्षत । पूजा ज्ञान होता है । ७ पातालय त्र । वि० दे० 'पातालयत्र' । की स्वल्प सामग्री । तुच्छ भेंट । पासि-सचा स्त्री॰ [ सं० पत्र ] १ पत्ती । पर्ण । दल । २ चिट्ठी । पातालकेतु--सज्ञा पुं॰ [ सं० ] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य । पत्रिका । पत्र। पातालखंड-सज्ञा पुं० [सं० पातालखण्ड ] पाताल लोक । पाति:-सझा पुं० [ स०] १ प्रभु । मालिक । स्वामी । २ खाविंद । पति । ३ पक्षी। चिड़िया (को०] । पातालगंगा-सशा स्त्री० [सं० पातालगमा] पाताल लोक की गगा [को०)। पातिक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] सूस नामक जलजतु । पातालगरुड़-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० पातालगरुड ] छिरिहटा । छिरेंटा । पातिक, पाविक्क-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पातक ] दे० 'पातक' । उ०-(क) कलिजुग अति पातिक भये यह भावसिंधु अपार । 'चतुरानन पातालगरुड़ी-सज्ञा पुं० [सं० पातलिगरुडी] पातालगरुड । छिरेंटा । सुनि चतुर चित मम सिर भार उतार ।-40 रासो, पु०७। पाताल तुंबी-सच्चा पी० [ म० पातालतुम्यो ] एक प्रकार की लता (ख) करय दरस शिवनाथ के कटय कोट पातिक तह ।- जो प्राय सेतो में होती है। पातालतोवी। प० रासो, पृ० १८१। विशेष-इसमे पीले रंग के बिच्छू के डक के से काटे होते हैं। पातिग-सञ्चा पुं० [सं० पातक ] पाप । पातक । वैद्यक में इसे चरपरी, कडवी, विषदोपविनाशक, तथा पातित-वि० [ स०] १ जो फेंका गया हो। फेंका हुआ । २ जो प्रगूतकालीन अतिसार, दातों की जस्ता और सूजन, पसीना नीचे गिराया या ढपेला गया हो। ३ अवनत या नम्र किया तथा प्रलापवाले ज्वर को दूर करनेवाली माना है। हुधा (को०)। स० लाते हैं।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२३१
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