हुमा [को०)। पंचचोल पचकोसी परमारथ को जानि पाप अपने सुपास वास दियो है। बनाया हुमा एक घृत जो अपस्मार (मिरगी ) और उन्माद मे दिया जाता है। —तुलसी (शब्द०)। पचकोसी-पज्ञा सी० [हिं० पञ्चकोश ] १ काशी की परिक्रमा । विशेष-गाय का दूध, घी, दही, गोवर का रम और गोमूत्र चार ३ वह व्यक्ति जो पाँच कोस दूर का हो । उ०—-मगर सुना चार सेर और पानी सोलह सेर सबको एक साथ एक दिन पंचकोसी आदमी अगर पाए तो सारा भेद खुल जाय । नहीं पकाने पर यह बनता है। पांच कोस के उपर का प्रादमी अगर पाए तो उसपर जादू पचगीत-मज्ञा पुं० [ म० पश्चगीत ] श्रीमद्भागवत के दशमम्कध के का असर खाक न हो।—फिसाना०, मा० ३, पृ० २० । मतर्गत पाँच प्रसिद्ध प्रकरण जिनके नाम हैं, वेणुगीत, गोपी- पचक्रोश-सञ्ज्ञा पुं० [स० पञ्चक्रोश ] पचकोस । काशी। उ० गीत, युगलगीत, भ्रमरगीत और महिपीगीत । स्वारथ परमारय परिपूरन पचक्रोश महिमा सी।-तुलसी पंचगु-वि० [ स० पञ्चगु ] पांच गाएं देकर विनिमय किया (शब्द॰) । पचक्लेश-नज्ञा ॰ [ म० पञ्चक्लेश ] योगशास्त्रानुसार विद्या, पंचगुण'--पशा पु० [ म० पञ्चगुण ] १ शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक पाँच प्रकार गध—ये पाँच गुण । २ आयुर्वेदोक्त एक प्रकार का वात- के क्लेश। नाशक तेल । पचक्षारगण-मशा पु० [ म० पञ्चक्षारगण ] वैद्य के अनुसार पाँच पचगुण-वि० पांचगुना किो०] । मुख्य क्षार या लवण-काचलवण, संघव, सामुद्र, विट् पचगुणी-सशामा [म. पञ्चगुणी ] जमीन । पृथ्वी [को॰] । और सौवर्चल। पचगुप्त-सज्ञा पु० [म० पञ्चगुप्त] १. कछुवा । २ चार्वाक दर्शन पचखट्व-सज्ञा पु० [ मे० पञ्चखट्व ] पाँच खाटो का समूह को॰] । जिसमे पचे द्रिय का गोपन घान माना गया है। पंचखट्वी-सज्ञा स्त्री॰ [पञ्चखट्वी] पांच छोटी खाट (को०] । पचगुप्तिरसा-मशा सी० [स० पञ्चगुप्तिरसा] असवरग । स्पृक्का । पचगग-सक्षा पुं० [ स० पञ्चगङ्ग ] पांच नदियो का समूह । दे० पचगौड़-पचा पु० [स० पश्चगौद] देशानुसार विध्य के उत्तर वसने- 'पचगगा'-१। वाले ब्राह्मणो के पांच भेद-सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड, पंचगगा-सज्ञा सी० [ स० पञ्चाङ्गा ] १ पाँच नदियो का समूह- मैथिल और उत्कल । गगा, यमुना, सरस्वती, किरणा और धूतपापा । इसे पचनद विशेष—यह विभाग स्कदपुराण के सह्याद्रि खड मे मिलता है भी कहते हैं। २ काशी का एक प्रसिद्ध स्थान जहाँ गगा के और किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिलता । दे० 'गोड' । साथ किरणा और धूतपापा नदियां मिली थी। ये दोनो पचग्रामी-तशा सी० [म० पञ्चग्रामी]पांच गांवो का समाहार [को०] । नदियाँ भव पटकर लुप्त हो गई हैं। पचनास-सज्ञा पुं० [स० पञ्चग्रास] पांच ग्रास। पांच कौर । उ०- पंचगण-सज्ञा पुं० [स० पञ्चगण ] वैद्यकशास्त्रानुसार इन पांच केचित् करहि कष्ट तन भारी। भोजन पचग्रास आहारी। ओषधियो का गण-विदारीगघा, बृहती, पृश्निपर्णा, निदि -सु दर ग्र०, भा० १, पृ० ११ । ग्धिका और भूकूष्माह। पंचधात-सजा पु० [सं० पञ्चधात] संगीत में प्रयुक्त एक ताल [को०] । यो०-पचगणयोग। पचचक्र-वी० पुं० [स० पञ्चचक्र] तत्रशास्त्रानुसार पाँच प्रकार के पचगव-सज्ञा पुं॰ [ स० पञ्चगत ] वीजगणित के अनुसार वह चक्र जिनके नाम ये हैं-राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वोग्चत्र राशि जिसमे पांच वर्ण हो । और पशुचक्र । पंचगब्ब-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पञ्चगव्य, प्रा० पच - गच्च ] दे० पचचतु-सज्ञा पु० [#० पञ्चचक्षुस्] गौतम बुद्ध का एक नाम [को॰] । 'पचगव्य'। उ०—पञ्चगब्ब अस्नान करि सीस सहस घट पंचचत्वारिंश-वि० [म० पञ्चचत्वारिंश] पैतालीसवाँ । मडि । दीपदान घृत सहस सिव कुसुमजलि सिर छडि। -पृ० पचचत्वारिंशत्-मज्ञा श्री॰ [ स० पञ्चचत्वारिंशत् ] पैतालीस । रा०, ७२। पचचामर- संज्ञा पुं० [म० पञ्चचामर] एक छद का नाम । इसके पंचगव-सञ्ज्ञा पुं० [ स० पञ्चगव ] पाँच गायो का समूह [को०] । प्रत्येक चरण मे जगण, रगण, जगण, रगण, मगण और पचगव्य-शा पु० [ स० पञ्चगव्य ] गाय से प्राप्त होनेवाले पांच अंत मे गुरु होते हैं। इसे नाराच और गिरिराज भी कहते हैं। द्रव्य–दूध, दही, घी, गोवर और गोमूत्र जो बहुत पवित्र दे० 'नाराच'। माने जाते हैं और पापो के प्रायश्चित्त आदि में खिलाए पंचचीर-सज्ञा पुं॰ [सं० पञ्चचीर] एक बुद्ध । मजुघोष [को०] । जाते हैं। पचचूह-वि० [ स० पञ्चचूड़ ] पाँच कलें गियोवाला । पाँच चोटियो- विशेष—पचगव्य में प्रत्येक द्रव्य का परिमाण इस प्रकार कहा वाला [को०] । गया है-धी, दूध, गोमूत्र एक एक पल, दही एक प्रसृति पचचूड़ा-ज्ञा स्त्री॰ [सं० पञ्चचूड़ा] एक अप्सरा। (रामायण)। ( पसर ) और गोवर तीन तोले । पचचोल-संज्ञा पु० [स० पञ्चचोल ] हिमालय पर्वत पर एक पचगव्यघृत-पज्ञा पुं० [सं० पञ्चगव्यघृत ] मायुर्वेद के अनुसार भाग [को॰] ।
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