पसु २१०४ पसोपेस . विशेष-पसीना केवल स्तनपायी जीवो को होता है। ऐसे जीवो तरन, घातु रसाइन जानु । रतन परख पौ चातुरी, सकल के सारे शरीर में त्वचा के नीचे छोटी छोटी ग्रथियां होती हैं मग सग्यानु |--माधवानल०, पृ० २०८ । जिनमें से रोमकूपों मे से होकर जलकणों के रूप मे पसीना पसुरिया —सा नी० [हिं० पसली +इया (प्रत्य॰)] द० 'पसली' । निकलता है। रासायनिक विश्लेषण से सिद्ध होता है कि उ०—यहि बन गनन वजाव बंसुरिया । कौनहु नहि गुमान पसीने में प्रायः वे ही पदार्थ होते हैं जो मूत्र में होते हैं । परंतु तकि भूलो, अग अग गलि जाइ पसुरिया ।-जग० वानी, वे पदार्थ बहुत ही थोडी मात्रा में होते हैं । पसीने में मुख्यत पृ० ३४ । कई प्रकार के क्षार, कुछ चर्बी और कुछ प्रोटीन (शरीरधातु) पसुरो-सच्चा सी० [हिं०] दे० 'पसली'। होती है। ग्रीष्मऋतु में व्यायाम मा अधिक परिश्रम करने पर, पसुली-सच्चा स्त्री० [हिं० ] ३० 'पसली' । शरीर में अधिक गरमी के पहुंचने पर या लज्जा, भय, क्रोध पसू-सज्ञा पुं० [सं० पशु ] दे० 'पशु'। उ०-करे गान तान पसू आदि गहरे आवेगों के समय अथवा अधिक पानी पीने पर पच्छि मोहै ।-ह० रासो, पृ० ३७ । बहुत पसीना होता है। इसके अतिरिक्त जव मूत्र कम प्राता है तब भी पसीना अधिक होता है। औषषों के द्वारा अधिक पसूज-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] वह सिलाई जिसमें सीधे तोपे भरे जाते हैं। पसीना लाकर कई रोगो की चिकित्सा भी की जाती है। शरीर स्वस्थ रहने की दशा मे जो पसीना आता है, उसका पसूजना-फि० स० [ देश०] सीना । सिलाई करना । न तो कोई रग होता है और न उसमे कोई दुर्गंध होती है। पसूता-सञ्ज्ञा सी० [सं० प्रसूता ] जिस स्त्री ने अभी हाल मे वच्चा परतु शरीर में किसी भी प्रकार का रोग हो जाने पर उसमें जना हो । प्रसूता । जच्चा । से दुगंध निकलने लगती हैं। पसूस-वि० [हिं० ] कठोर । क्रि० प्र०-माना ।—छूट |-निकलना। -होना। पसेउ, पसेज-सज्ञा पुं० [हिं० पसेव ] दे० 'पसेव' । उ०—जानु मुहा०-पसीना गारना या बहाना = किसी कार्य या वस्तु के सो गारे रकत पसेऊ । सुखी न जान दुखी कर भेऊ । —जायसी लिये अत्यधिक श्रम करना। पसीने पसीने होना = बहुत ग्र० (गुप्त), पृ० २७१ । अधिक पसीना होना। पसीने से तर होना । गाढ़े पसीने पसेपुश्त-क्रि० वि० [ फा० ] पीछ पीछे । परोक्ष में। उ०—यह की कमाई = कठिन परिश्रम से अर्जित किया हुआ धन । मेरा प्यारा जसोदा है, जिसकी गरदन में वाहें डालकर मैं बड़ी मेहनत से कमाई हुई दौलत । वागो की सैर किया करता था। हमारी सारी दुशमनी पसे- पसु-सञ्ज्ञा पुं० [ स० पशु ] दे॰ 'पशु' । उ०-जैसे कीट पतंग पुश्त होती थी।-काया०, पृ० ३३५ । पषान, भयो पसु पक्षी । -घरम०, पृ० ८१। पसेरो-सका सी० [हिं० पाच + सेर+ई (प्रत्य॰)] पांच सेर पसुआ-सञ्ज्ञा पु० [ स० पशुता ] पशु । जानवर । उ०—ोगुन का बाट । पसेरी। कहीं सराव का ज्ञानवत सुनि लेय । मानुष से पसुमा करे, पसेव-मशा पुं० [सं० प्रस्वेद ] १ वह द्रव पदार्थ जो किसी द्रव्य गाँठि को देय । सतबानी०, पृ०६१ । पदार्थ के पसीजने पर निकले। किसी चीज मे से रसकर पसुघ्न-वि० [ स० पशुध्न ] पशु का वध करनेवाला । उ०—विना निकला हुआ जल । २ पसीना। उ०-तमु पसेव पसाहनि पसुघ्नहिं पुरुष सु कौन । कहै कि हरि गुन हौं न सुनौ न । भासलि, पुलक तइसन जागु । -विद्यापति०, पृ० ३१ । -नद० ग्र०, पृ० २१८ । ३. वह तरल पदार्थ जो कच्ची अफीम को सुखाने के समय पसुचारन-सशा पुं० [ सं० पशुचारण ] गाय, बैल प्रादि जानवरो उसमें से निकलता है। इस प्रश के निकल जाने पर अफीम को चराने का काम । उ०-जव पसुचारन पलत चरन कोमल सूख जाती और खराव नहीं होती। धारि वन मैं। सिल त्रिन कटक भटकत कसकत हमरे मन पसेवा-सच्चा पुं॰ [ देश० ] सानारों की अंगीठी पर चारों मोर रहने- मैं । -नद० न०, पृ० १८ । वाली चारों ईटें। पसुपर-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पशुप ] पशुओ का रक्षक । पशुपालक । पसैहा-सञ्ज्ञा पुं० [ देश० ] एक पेड । 30-विहरत मोहन मदन गोपाल । उ०—पसु अरु पसुप तृषित अति भए । चले चले गुपाल । कदम पसैहू ताल रसाल । --धनानद, पृ० ३०३ । कालीदह गए। नद ०, पृ० २७८ । पसोपेश-सच्चा पुं० [फा० पस घ पेश ] १ पागा पीछा । सोच पसुपति-सञ्ज्ञा पुं॰ [ से० पशुपति ] महादेव । उ०-उन कपर्दी विचार । हिचक । दुविधा । जैसे,—जरा से काम मे तुम भूतपति पसुपति मृठ ईसान । -अनेकार्थ०, पृ०७५ । इतना पसोपेश करते हो? २ भला बुरा। हानि लाभ । पसुपाल–सचा पुं० [सं० पशुपाल ] दे० 'पशुपाल' । उ. ऊँच नीच । परिणाम । जैसे,—इस काम का सब पसोपेश इनके दिए बाढ़ो हैं गैया वच्छ बाल । सग मिलि भोजन करत सोच लो तब इसमें हाथ लगायो । हैं जैसे पसुपाल। -दो सौ बावन०, भा॰ २, पृ० ४ । पसोपेस-सहा पुं० [हिं०] दे० 'पसोपेश'। उ०-पसोपेस तजि पसुभाषा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० पशुभाषा ] पशुओं की बोली समझने माइए पहिने कुन ससपज । कर मुकुताइ न जाइए मुकुता की विद्या । पशुमो की वोली। उ०-पसुभाषा और जल- बरसत कज।-स० सप्तक, पु. २४७ ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१९५
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