पलकर्ण २८७ पलटना देंगे।-चुभते०, पृ०६ । ( किसी के रास्ते में या किसी के लिये पलक बिछाना=किसी का अत्यत प्रेम से स्वागत करना पूर्ण योग से किसी का स्वागत तथा सत्कार करना । उ०- बता हूँ उबारनेवाले। पाइए हैं बिछी हुई पलकें। --चुभते०, पृ. १ । पलक भैजना = (१) पलक का गिरना या हिलना। (२) पलक का इस प्रकार हिलना कि उससे कोई सकेत सूचित हो। इशारा या सकेत होना। जैसे,—उनकी पलक भंजते ही वह नौ दो ग्यारह हो गया। पलक भाँजना = (२) पलक से कोई इशारा करना । पलक मारना = (१) अांखो से सकेत या इशारा करना । (२) पलक झपकाना या गिराना । (३) तद्रालु होना । झपकी लेना। पलक लगना = (१) आँखें मुदना । पलक झपकना । पलक गिरना । उ०--पलक नहिं कहूँ नेकु लागति रहति इक टक हेरि । तऊ कहुँ त्रिपितात नाही रूप रस के ढेरि ।-सूर ( शब्द०)। (२) नींद श्राना । झपकी लगना । जैसे,—ाज तीन दिन से एक छन के लिये भी पलक न लगी। पलक लगाना=(१) आँख झपकाना। आँखें मूंदना। (२) सोने के लिये आँखें बद करना । सोने की इच्छा से आँखें मूंदना। पलक से पलक न लगना%3D (१) पलक न झपकना। टक्टको बँधी रहना। (२) अखि न लगना। नीद न आना। पलक से पलक न लगाना = (१) टकटकी वांधे रहना । पलक न झपकाना । (२) सोने के लिये प्रखें बद न करना। पलकों से तिनके चुनना=अत्यत श्रद्धा तथा भक्ति से किसी की सेवा करना । किसी को सुख पहुंचाने के लिये पूर्ण मनोयोग से प्रयत्न करना। जैसे,—मैं आपके लिये पलकों से तिनके चुनूगा । पलकों से जमीन झाड़ना = पलको से तिनके चुनना। पलकर्ण-सज्ञा पु० [ स० ] धूपघही के शकु को उस समय की छाया की लवाई जब मेष सक्राति के मध्याह्नकाल में सूर्य ठीक विषु- वत् रेखा पर होता है। पलकदरिया -वि० [हिं० पलक + फा० दरिया ] वहा दानी । प्रति उदार। पलकदरियाव-वि० [हिं० पलक+फा० दरयाव] दे० 'पलकदरिया। पलक्नेवाजा- वि० [हिं० पलक + फा० नेवाज ] छन मे निहाल कर देनेवाला । वडा दानी । पलकदरिया। पलकपीटा--मशा पु० [हिं० पलक+पीटना] १ प्रांख का एक रोग । विशेष—इसमें वरौनियाँ प्राय झड़ जाती हैं, अखेिं वरावर झपकती रहती हैं और रोगी धूप या रोशनी की ओर नही देख सकता। २ वह मनुष्य जिसे पलकपीटा रोग हुआ हो। पलकपीटे का रोगी। पलकांतर-सज्ञा पुं० [ म० पलक+ अन्तर ] पलको के गिरने के कारण होनेवाला व्यवधान । पलक गिरने से दृष्टि का व्यव- धान या अतर । उ०—प्रथम प्रतच्छ विरह तू गुनि ले। ताते पुनि पलकातर सुनि ले। नद० ग्र०, पृ० १६२ । विशेष-नददास ने इसे एक प्रकार का विरह माना है। पलका-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० पर्यत या पल्यङ्क][स्त्री० पलकी] पलग । चारपाई। उ०-( क ) अजिर प्रभा तेहि श्याम को पलका पौढायो। पाप चली गृह काज को तह नद बुलायो।-सूर ( शब्द०)। ( ख ) और जो कहो तो तेरो हक सेवो गाढ़ो बन जो कहो तो चेरी ह्व के पलकी उसाई दो। हनु- मान ( शब्द०)। पलका-वि० [देश] चचल । उ०-भाव भगत नाना विधि कीन्हीं पलका कोन करी।-दक्खिनी०, पृ० २५ । पलक्क-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पलक] दे० 'पलक' । उ०—हरि सुख एक पलक्क का ता सम कह्या न जाइ ।-संतवानी०, पृ०७६ । पलक्या-सञ्ज्ञा पुं० [१०] पालक का साग । पालक शाक । पलक्ष-सञ्ज्ञा पु० [स०] सफेद रग । श्वेत वर्ण । पलक्ष-वि० जिसका रग सफेद हो । श्वेतवर्ण युक्त । पलक्षार-सज्ञा पुं॰ [ स० ] रक्त । खून । लहू । पलखन-मञ्ज्ञा पुं॰ [स० पलक्ष, प्रा० पलक्ख ] पाकर का पेड । पलगंड-सज्ञा पुं० [स० पलगण्ड ] कच्ची दीवार में मिट्टी का लेप करनेवाला । लेपक । पलचर-सज्ञा पुं० [सं० पल (= मास)+चर(= भक्षण)] १ एक उपदेवता जिसका वर्णन राजपूतो की कथोत्रो में है। उ०- मिली परस्पर डीठ वीर पग्गिय रिस अग्गिय । जग्गिय जुद्ध विरुद्ध उद्ध पलचर खग खग्गिय । भग्गिय सद्य शृगाल काल दै ताल उमग्गिय । लग्गिय प्रेत पिशाच पत्र जुग्गिन ले नग्गिय । रग्गिय सुररभादि गण रुद्र रहस आवज घमिय । सन्नाह करहि उच्छाह भट दुहुँ सिपरह जब झमझमिय । -सूदन (शब्द०)। विशेष- इसके सबध मे लोगो का विश्वास है कि यह युद्ध मे मरे हुए लोगो का रक्त पीता और आनद से नाचता कूदता है । २ मासभक्षी पक्षी। मास खानेवाले पक्षी। पलच्चर-सज्ञा पु० [ स० पल (= मास) + चर (= भक्षण) ] उ०-घरनि धार धुकि धरनि भिरन इद्राजित सरभर । मुक्कि वान रुकि भान परिय सारगन पलच्चर । -१० रा०,२।२८२। पलटन-सज्ञा सी० [अ० बटालियन, फा० पटेलन या अ० प्लैटून ] १ अंगरेजी पैदल सेना का एक विभाग जिसमे दो या अधिक कपनियाँ अर्थात् २०० के लगभग सैनिक होते हैं । २ सैनिकों अथवा अन्य लोगो का समूह जो एक उद्देश्य या निमित्त से एकत्र हो । दल । समुदाय । झड । जैसे, वहाँ की भीष्ट भाड का क्या कहना पलटन की पलटन खडी मालूम होती थी। पलटना' - क्रि० अ० [सं० प्रलोठन अथवा प्रा० पलोठन ] किसी वस्तु की स्थिति उलटना । ऊपर के भाग का नीचे या नीचे के भाग का ऊपर हो जाना । उलट जाना । (क्य०)।२ अवस्था या दशा बदलना। किसी दशा की ठीक उलटी या विरुद्ध दशा उपस्थित होना। बुरी दशा का अच्छी मे या अच्छी का बुरी मे बदल जाना। आमूल परिवर्तन हो जाना।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१७८
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