पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१२४

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परमात्मा २८३३ परमार इनके अतिरिक्त चावड, खेजर, सगरा, वरकोटा, संपाल, भीवा, कोहिला, पद, देवा, बरहर, निकुभ, टीका, इत्यादि और भी कुल हैं जिनमें से कुछ सिंघ पार रहते हैं और पठान मुसलमान हो गए हैं। परमारों का राज्य मालवा में था। यह तो प्रसिद्ध ही है कि अनेक स्थानों पर मिले हुए शिलालेखो तथा पद्मगुप्त के नव- साहसाकचरित से मालवा के परमार राजामो की वशावली इस प्रकार निकलती है- परमार कृष्ण उपेंद्र वैरिसिंह (१म) सीयक (१ म) वाक्पति (१म) । वैरिसिंह वचट ( द्वितीय ) सीयक हर्ष मन बावरे पापन ही पहचान । तो ही मैं परमातमा लेत नही पहिचान |-स० सप्तक, पृ० १७६ । परमात्मा-सज्ञा पुं॰ [ पु० परमात्मन् ] ब्रह्म । परब्रह्म । ईश्वर । परमाद्वैत-सज्ञा पुं० [पु०] १ सर्वभेदरहित परमात्मा । २ विष्णु । परमानद-सञ्ज्ञा पु० [ स० परमानन्द ] १ बहुत बहा सुख । ब्रह्म के अनुभव का सुख । ब्रह्मानद । ३ आनदस्वरूप ब्रह्म । परमान-मचा पु० [ म०प्रमाण] १ प्रमाण । सबूत । २ यथार्थ वात । सत्य वात । ३ सीमा। मिति । अवधि । हद । उ०- तप बल तेहि करि प्रापु समाना। रखिही इहाँ वरप परमाना। --तुलसी (शब्द० विशेष-इस अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग प्राय अव्ययवत् रहता है। परमानना-क्रि० स० [स० प्रमाण] १ प्रमाण मानना । ठीक समझना । २ स्वीकार करना । सकारना । परमान्न-सज्ञा पु० [स०] खीर । पायस । विशेष-देवताओ को अधिक प्रिय होने के कारण यह नाम पडा। परमामुद्रा-सशा स्त्री॰ [स०] त्रिपुरा देवी की पूजा के समय करणीय एक प्रकार की मुद्रा [को॰] । परमायु-सज्ञा स्त्री० [ स० परमायुस् ] अधिक से अधिक आयु । जीवित काल की सीमा। विशेष-मनुष्य की परमायु १२० वर्ष की मानी जाती है । फलित ज्योतिप में मनुष्य की परमायु चार प्रकार से निकाली जाती है जिसे क्रमश अशायु, पिंडायु, निसर्गायु और जीवायु कहते हैं। लग्न बलवान हो तो निसर्गायु और यदि तीनों दुर्बल हो तो जीवायु निकालनी चाहिए। परमायुष-सज्ञा पु० [स०] वियजसाल का पेड । परमार-सञ्ज्ञा पु० [सं० पर( = शत्रु ) + हिं० मारना ] राजपूतो का एक कुल जो अग्निकुल के अतर्गत है । पंवार । विशेष-परमारो की उत्पत्ति शिलालेखो तथा पद्मगुप्तरचित 'नवसाहसाकचरित' नामक ग्रथ मे इस प्रकार मिलती है। महर्षि वशिष्ठ प्रदगिरि (श्रावू पहाड ) पर निवास करते थे। विश्वामित्र उनकी गाय वहाँ से छीन ले गए । वशिष्ठ ने यज्ञ किया और अग्निकुड से एक वीर पुरुष उत्पन्न हुआ जिसने बात की बात में विश्वामित्र की सारी सेना नष्ट करके गाय लाकर वशिष्ठ के आश्रम के पर बांध दी। वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर कहा 'तुम परमार ( शत्रुओं को मारनेवाले) हो और तुम्हारा राज्य चलेगा। इसी परमार के वश के लोग परमार कहलाए। पृथ्वीराज रासो (आदि पर्व ) के अनुसार उपद्रवी दानवों से प्रावू के ऋषियों की रक्षा करने के लिये वशिष्ठ ने अग्निकुड से परमार की उत्पत्ति की । टाह साहब ने परमारो की अनेक शाखाएं गिनाई हैं, जैसे, मोरी ( जो गहलोतो के पहले चित्तोर के राजा थे ), सोडा, या सोढा, सकल, खैर, उमरा सुमरा (जो आजकल मुसलमान हैं), विहिल, महीपावत, वलहार, कावा, मोमता, इत्यादि । वाक्पति (२ य) सिंधुराज नवसाहसाक भोज 1 उदयादित्य ईसा की आठवी शताब्दी में कृष्ण उपेंद्र ने मालवा का राज्य प्राप्त किया। सीयक (द्वितीय ) या श्रीहर्षदेव के सबंध में पद्मगुप्त ने लिखा है कि उसने एक हूण राजा को पराजित किया । उदयपुर की प्रशस्ति से यह भी जाना जाता है कि उसने राष्ट्रकूट वशीय मान्यखेट ( मानखेडा) के राजा खेट्टिग- देव का राज्य ले लिया। 'पाइपलच्छी नाममाला' नाम का 'धनपाल' का लिखा एक प्राकृत कोश है जिसमे लिखा है कि 'विक्रम संवत् १०२६ में मालवा के राजा ने मान्यखेट पर चढ़ाई. की और उसे लूटा। उसी समय में यह प्रथ लिखा गया । श्रीहर्षदेव या सीयक ( द्वितीय ) के पुत्र वापति राज (द्वितीय) का पहला ताम्रपत्र १०३१ वि० संवत् का मिलता है। ताम्रपत्रो, शिलालेखो और नवसाहसा- कचरित मे वापतिराज के कई नाम मिलते हैं, जैसे, मुज, उत्पलराज, अमोघवर्ष, पृथिवीवल्लभ, श्रीवल्लभ आदि । यह वडा विद्वान और कवि था। मुज वापतिराज के अनेक श्लोक प्रवधचिंतामणि, भोजप्रबध तथा अलकार ग्रथों मे मिलते हैं । इसकी सभा मे कवि धनजय, पिंगल टीकाकार हलायुध, कोशकार धनपाल और पद्मगुप्त परिमल आदि