परतक २८२५ परत्र इसपर गीली मिट्टी की एक परत चढा दो। उ०--बालू की परतिग्या-सहा स्त्री० [म० प्रतिज्ञा ] १० 'प्रतिज्ञा'। उ०-तुम परत पर परत जमने से ये चट्टानें बनी हैं। शिवप्रसाद सतत पालहु मम नेहू । आज मोर परतिग्या लेहू । ( शब्द०) । २. लपेटी जा सकनेवाली फैलाद की वस्तुप्रो परतिच्छ-वि० [सं० प्रत्यक्ष ) द० 'प्रत्यक्ष' । उ०-काम कहें (जैसे, कागज, कपडा, चमडा, इत्यादि ) का इस प्रकार सुन सु दरी दरसन तीन प्रकार । स्वप्न चित्र परतिच्छ प्रिय का मोड जिससे उनके भिन्न भिन्न भाग ऊपर नीचे हो जाये । प्रगट प्रेम विस्तार ।-रसरतन, पृ० ३० । तह । जैसे,—इस कपडे को परत लगाकर रख दो। परविज्ञा-सशा स्त्री० [स० प्रतिज्ञा ] दे॰ 'प्रतिज्ञा'। उ०-हम कि प्र०-लगाना। भक्तनि के, भक्त हमारे । सुनि अर्जुन परतिज्ञा मेरी यह प्रत ३ कपडे, कागज आदि के भिन्न भिन्न भाग जो जोडने से नीचे टरत न टारे ।-सूर०, ११२७२ । ऊपर हो गए हों। तह । परविषा-सञ्ज्ञा सी० [ मे० प्रत्यक्ष ] द० 'प्रत्यक्ष' । उ०-पाड्यो परतका-क्रि० वि० [ मं० प्रत्यक्ष, हिं० परतच्छ, परतछ, परतख ] कह कइ परतिष (इ) भांड। झूठ कथइ छइ नै वोलइ सामने । प्रत्यक्ष । समक्ष । उ०-चांप परतक कटक चलाया, छइ मारण।-वी० रासो०, पृ० ४१ । ऊपरि खान तण फिर पाया।-रा० रू०, पृ० २८६ । परतिसठा --अशा स्त्री॰ [ स० प्रतिष्ठा ] समान । प्रतिष्ठा। उ०- परतख-क्रि० वि० [स० प्रत्यक्ष ] प्रत्यक्ष । रूबरू । उ०-जिम हमको कुल परतिसठा इतनी प्यारी नही है ।-गोदान, सुपनतर पामियउ तिम परतख पामेसि । सज्जन मोती हार पृ० १०२ । ज्यू कठा ग्रहण करेसि । ढोला०, दू० ५१३ । परतिहारी-सज्ञा पुं० [स० प्रतिहार ] दे० 'प्रतिहार' । उ०- परतच्छ-वि० [स० प्रत्यक्ष ] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ०-अनूमान परतिहार सो कहा हकारी। अव जनि जान देहूँ कहूँ कारी। साछी रहित होत नही परमान । कह तुलसी परतच्छ जो सो --चित्रा०, पृ० १२४ । कहु अमर को पान ।-स० सप्तक, पृ० ४० । परती-सशा श्री० [हिं० परना ( = पड़ना ) ] १ वह खेत या परतछ-वि० [स० प्रत्यक्ष ] दे० 'प्रत्यक्ष' । उ०-ताके आगे कहा जमीन जो विना जोती हुई छोड दी गई हो। मिसिर का अरवी को बल। इन सो सपनहुँ वैर किए पाए क्रि० प्र०-छोदना । -डालना ।—पड़ना । परतछ फल ।-भारतेंदु ग्र०, भा॰ २, पृ० ८०६ । २ वह चद्दर जिससे हवा करके भूमा उडाते हैं । परतछि-क्रि० वि० [ स० प्रत्यक्ष ] दे० 'प्रत्यक्ष'। उ० -पर- मुहा०-परती लेना = चद्दर से हवा करके भूसा उडाना। तछि पानि के उपा मिलाई ।-नद ग्र०, पृ० १२८ । वरसाना । मोसाना। परतल्ल-सज्ञा पुं० [स० पट ( = वस्त्र ) + तल (-नीचे ) ] लादनेवाले घोडे की पीठ पर रखने का बोरा या गून । परतीक@+-वि० [स० प्रत्यक्ष, हिं० परतिप] दे० 'प्रत्यक्ष' । उ०-सखि तू कहै प्रान बवू के अधीन हैं सो परतीक किधौं यौ०-परतल का टटू = लद्द घोडा । सपनै। केशव प्र०, भा० १, पृ०६ । परतला-संशा पु० [सं० परितन ( = चारों ओर खींचा हुआ ) ] चमड़े या मोटे कपडे की चौडी पट्टी जो कधे से लेकर कमर परतीत, परतीति-सचा सी० [म० प्रतीति ] दे० 'प्रतीति' । तक छाती और पीठ पर से तिरछी होती हुई आती है और उ०-(क) जानतो जो इतनी परतीति तो प्रीति की रीति को नाम न लेती।-ठाकुर०, पृ० १७ । (ख) खर क्वार जिसमे तलवार लटकाई जाती है तथा कारतूस आदि रखे जाते हैं । उ०-दूजे पैसावरी परतला परि मन मोहत ।- कन विदेश छाए, कनक ही के वश हुए। कह कौन सी पर- तीति जो कि शपथ, कर मेरे हुए।-ग्राराधना, पृ. ६६ । प्रेमघन०, मा० १, पृ०१३ । परतली, परतल्ली-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० परतल] दे० 'परतला' । उ० परतेजना-क्रि० स० [म० परित्यजन ] परित्याग करना। कारतूसो की परतल्ली उनके कधो पर थी।-इंद्र०, १०२३ । छोडना । उ०-जैसे उन मोको परतेजी कवह फिरि न परतपा-क्रि० वि० [हिं०] दे० 'प्रत्यक्ष' । उ०-ौ दरपन चित्रा- निहारत है ।-सूर (शब्द०)। वलि । परतष देख कुंपर जेहि हेरा-चित्रा०, परतेला-वि० [हिं० पडना ] वह (रग) जो तैयार होने के लिये पृ० ११०। कुछ समय तक घोल या उवालकर रखा जाय । (रगरेज)। परता-सज्ञा पुं० [हिं० परना ] २० 'पडता'। परतोखा-नचा पुं० [स० परितोप] प्राश्वासन । परितोप । प्रमाण । परताजना-सञ्ज्ञा पुं० [ देश० ] सोनारो का एक औजार जिससे वे उ०-इसी गाँव मे एक दो नहीं, दस बीस परतोख दे दूं। गहनो पर मछली के सेहरे का प्राकार बनाते हैं। -गोदान०, पृ० २१३ । परताप-सज्ञा पुं० [सं० प्रताप ] दे० 'प्रताप' । उ०-सुवा प्रसीस परतोली-तशा स्त्री॰ [ स० प्रतोली ] गली।-(डि.)। दीन्ह बड साजू । वड परताप अखडित रात । -जायसी परत्र-क्रि० वि० [सं०] १ गौर जगह । अन्यत्र । २ पर काल मे। ग्र०, पृ० ३२॥ ३ परलोक मे । उ०-सो परत्र दुख पावै सिर धुनि घुनि परताल-सञ्ज्ञा पी० [हिं०] दे० 'पडताल'। पछिताइ। कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोम लगाइ। परतिचा-सचा सी० [स० प्रत्यञ्चा] दे० 'पतचिका'। -मानस, ७१४३
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/११६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।