पनाती २८१२ पनिसिगा याकी ही पनि पार तू छोटि जीय की गांस । -ग्रज० न०, पृ०५३। उ०-रहट , मिला देते हैं । लौंग, कपूर और कभी कमी नमक तथा लालमिर्च भी पन्ने में मिलाई जाती है और हीग, जीरे, आदि का बघार दिया जाता है । वैद्यक के अनुसार पना रुचि- कारक, तत्काल वलवर्धक और इद्रियो को तृप्ति देनेवाला है। पनाती-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पनप्त ] [ सी० पनातिन] पुत्र प्रथया कन्या का नाती । पोते अथवा नाती का पुत्र । पनार-सज्ञा पुं० [ स० प्रणाली ] दे० परनाला' । पनारा-सज्ञा पु० [म० प्रणालि ] दे० 'परनाला'। चलत वा ग्राम तह, ठहरत प्रीति अपार । लगे पनारे रहट के, परत अखडित पार ।-प० रासो, पृ० २३ । पनारि-मशा ग्त्री० [सं० पर + नारी] परस्त्री। परकीया स्त्री या नायिका। पनारिर--सज्ञा स्त्री॰ [स० प्रणाली ] नाली। पनाली । मोरी । उ०—दई पनारि खुलाइ, सरिता ज्यों विथिन गयो।-नद० ग्र०, पृ० ३३४। पनारी --सज्ञा पी० [सं० प्रणाली ] लबी रेखा । उ०—सिर पर रोरी और सिंदूर की पनारी निकाल सु दर चुटिला देकर वह सुढार वेणी गएँ।-पोद्दार० अभि० ग्र०, पृ०१६३ । यौ०-पनारीदार = जिसमें नालियां बनी हो । पनाला-सज्ञा पुं० [म० प्रणाली] [ सी० पनाली ] दे० 'परनाला'। पनासना-क्रि० स० [सं० पानाशन ] पोपण करना। पोसना। परवरिश करना। उ०—कन्व जी इसके पिता इसलिये कहाते हैं कि पडी हुई को उठा लाए थे। और उन्होंने पाली पनासी है।-लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। पनाह-सचा रखी० [ फा०] १ शत्रु से, सकट या कष्ट से बचाव या रक्षा पाने की क्रिया या भाव । प्राण । वचाव । उ०- महिमा मंगोल ताको पनाह । वैठ्यो अडोल तिन गही वाह । हम्मीर०, पृ० १६ ॥ क्रि०प्र०-पाना ।-मांगना। मुहा०-(किसी से) पनाह माँगना = किसी बहुत ही अप्रिय या अनिष्ट वस्तु अथवा व्यक्ति से दूर रहने की कामना करना । किसी से बहुत बचने की इच्छा करना । जैसे,--पाप दूर रहिए, मैं आपसे पनाह मांगता हूँ। २ रक्षा पाने का स्थान । बचाव का ठिकाना। शरण । प्राड । प्रोट । कि०प्र०-हूँदना ।देना ।—पाना ।-माँगना।' मुहा०—पनाह लेना = विपत्ति से बचने के लिये रक्षित स्थान मे पहुँचना । शरण लेना। पनाही-सञ्चा स्त्री॰ [फा० पनाह + ई (प्रत्य॰)] एक प्रकार का अर्थदड । उ०-'पनाही' दहस्वरूप उस जुर्माने को कहते हैं जो चोर को इसलिये वाध्य होकर देना पडता हैं जिससे चोर चोरी का माल वापस कर दे।-नेपाल०, पृ० १०५ । पनि'-सचा झी [ स० प्रण, प्रा. पण ] प्रतिज्ञा। प्रण । उ०- पनि-सज्ञा पुं० [हिं० पानी] पानी शब्द का यौगिक पद प्रयुक्त रूप । जैसे, पनिगर, पनिघट, पनिहारी। पनि-क्रि० वि० [सं० पुनः, हिं० पुनि ] | फिर । पुन उ०-तौ पनि सुजन निमित्त गुन रचिए तन मन फूल । जू का भय जिय जानि के क्यो डारियै दुकूल ।-पृ० रा०, ११५४ । पनिका-मा पु० [२०] १ जोलाहो का एक वंचीनुमा मौजार जिस पर ताना फैलाकर पाई करते हैं। २ कडाल। विशेष-70 'कडाल'। पनिखो-शा पुं० [ दा०] २० "पनिक' । पनिगर-वि० [हिं० पानी+फा गर ] दे० 'पानीदार'। पनिघट-सज्ञा पुं० [हिं० पानी+घाट ] २० 'पनघट' । उ०—(क) पनिघट परम मनोहर नाना । तहाँ न पुरुप करहिं भस्नाना।- मानस, ७।२६। (स) पनिवारे घट मैं बसे पनिघटि पोर न जात ।-स० सप्तक, पृ० १७४ । पनिच-यज्ञा गरी० [सं० पतश्चिका ] घनुष की ज्या। उ०- ( क ) संघि पनिच भृकुटी धनुक वधिक समरु तजि कानि । हनत तरुन मृग तिलक सुर सुरक भाल भरि तानि । -विहारी ( शब्द०) । (ख ) पुहुप को चाप पनिच मलि किए। पच वान पाँचौ कर लिए। नद० ग्र०, पृ० १४० । पनिदी-सरा स्री० [स० पण्डरीक ] पुडरिया। पडरीक वृक्ष । पनियाँ-वि० [हिं० पानी+इया (प्रत्य॰)] १ पानी के सवध का। २ पानी में उत्पन्न । ३ जिसमें पानी मिला हो । ४ पानी में रहनेवाला । ५ दे० 'पनिहा'। पनियाँ २–सशा पुं० [हिं० पानी ] पानी। उ०—पहिल गवनवा ऐलू, पनियां के भेजलन हो।-घरम०, पृ० ६४ ॥ पनियाना-कि० स० [हिं० पानी+याना (प्रत्य॰)] १. पानी से सींचना या तर करना । २. तग करना। परेशान करना। दिक करना । ३ पानी से युक्त होना । ( वाजारू)। पनियारा-सरा पुं० [हिं० पानी+यार (प्रत्य॰)] वह स्थान जहाँ पानी ठहरता हो। २ वह दिशा जिसकी ओर पानी वहता हो। पनियारा-सा पुं० [हिं० पानी ] वाढ । पनियाला-सज्ञा पुं० [हिं० पानी+इयाल (प्रत्य०) ] एक प्रकार का फल । पनियासोता-वि० [हिं० पानी+सोत ] (तालाब, खाई मादि) जिसमे पानी का सोता निकला हो। मत्यत गहरा । जैसे, पनियासोत खाई । पनियाहो-वि० [हिं० ] पानी में भीगी। पानी से नम । उ०- पनियाही घासो की हाथ भर मोटी घनी तह छाई हुई थी। नई०, पृ० ३१ । पनिवा-सशा पु० [हिं०] दे० 'पनौं । पनिसिगा-सज्ञा पुं० [हिं०] जलपीपल ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१०३
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