पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/८८

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वणभूमिना ५४०० स्वर्णाभ वर्ण भूमिका- सी० [F०] १ अदरक । प्रादी। २ एक प्रकार का स्वर्णवणिक्-तहा पु० [१०] १ सराफ । २ स्वर्णकार (को०] । नज । विगेप दे० 'दारचीनी (०] । स्वर्णवर्ण'--मज्ञा पु० [स०] १ करणगुग्गुल । २ हरताल । ३ सोना- गेरु। स्वर्णगैरिक । ४ दारुहल्दी । म्वर्णभूषण-मरा पु० [४०] १ प्रारग्वध । अमलनाम । २ मोनागेर। बरामि। स्वर्णवर्ण'--वि० स्वरिणम । सुनहला । मोने के रग का [को०] । स्वरण भृ गार-मा पु० [म० स्वा मृद्गार ] १ पीला मंगरा । पीली स्वर्णवर्णाक-सज्ञा पु० [स० स्वर्णवर्णाङ्क] ककुष्ठ । मुरदासग । मंगरया। २ नान को झारी । साने का पात्र (को०)। स्वर्णवर्णा-सज्ञा स्त्री॰ [+] १ हलदी। २ दारुहलदी। स्वर्गमटन-मश पुं० [म० वरणमण्टन] मोनागेर । म्वणगरिक । स्वर्णवर्णाभा-मज्ञा स्त्री॰ [म०] जीवती। म्वर्णमय-वि० [सं०] जो विनकुल माने का हो। जैसे,--स्वर्णमय स्वर्णवल्कल' -~-सज्ञा पुं० [स०] सोनापाठा । श्योनाक । अरलू । मिहामन। स्वर्णवल्कल'- वि० जिसकी ऊपरी तह या छिलक सुनहला हो (को०] । स्वणमहा--मी ०पानिका पुराणोक्त एक नदी (को०] । स्वर्णवल्ली -संज्ञा स्त्री॰ [स०] १ सोनावल्ली। रक्तफला । २ स्व- स्वररामाक्षिक-भसा पु० [४०] सानामाषी नामक उपधातु । विशेष दे० णुली नामक क्षुप । ३ पोली जीवती। मोनामक्खी'। स्वर्णविदु-सज्ञा पुं॰ [स० स्वर्णविन्दु) १ विष्णु । २ महाभारत मे वरिणत प्राचीन काल के एक तीर्थ का नाम । स्वर्णमाता-वरा रसी० [सं० म्बरण मातृ] १ हिमालय की एक छोटी नदीपा नाम । २ जामुन । स्वर्णविद्या-मज्ञा स्त्री० [म०] स्वर्ण निर्माण की विद्या । सोना बनाने की कला । कीमियागरी [को०) । स्वर्णमुखी --मरा स्त्री० [म.] १ म्वणपत्री । सनाय । २ एक प्रकार स्वर्णशिख-सज्ञा पुं० [स०] स्वणचूड या नील कठ नामक पक्षी। की नार। ६४ हाय लगी, ३२ हाय ऊंची और ३२ हाथ स्वर्णशुक्तिका-- [--सज्ञा स्त्री॰ [स०] स्वर्णद्वीप का सोना (को०] । नांडी नार। स्वर्णशृग-वि० [स० स्वणशृङ्ग] जिसकी सीग सोने से मढी या स्वर्णमुद्रा--जसा मी० [स० ) सोने का निमा । अशरफी । स्वरिणम हो ।को०] । स्वर्णमूल-मज्ञा पुं० [सं०] कथामरित्मागर के अनुसार एक पर्वत स्वर्णशृगी-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० स्वर्णशृडिगन् ] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम (को०] । का नाम जो सुमेरु पवत के उत्तर ओर माना जाता है । स्वर्णमूपिका--सा पा० [म०] एक पौधा [को०] । स्वर्णशेफालिका--सशा मा० [सं०] १ आरग्वध । अमलतास । २. स्वर्णयुग--मज्ञा पुं॰ [स०] मुग समृद्वि एव शाति का काल । संभालू । पीला सिंधुभार। स्वणयूयिका, म्वणयूथी-- II मा० [सं०] पीली जूही । स्वर्णशैल-मज्ञा पुं० [म०] सुमेरु पर्वत जो सोने का कहा गया है । स्वर्णरमा-म.१० [सं० स्वरणग्म्मा स्वरणकदली। चपा केला । हेमगिरि (को०] । स्वण राग, स्वर्णराज--71 पुं० [सं०] नफेद कमल [को०) । स्वर्णसिंदूर-सज्ञा पु० [स० स्वर्णमिन्दूर, दे० 'रससिंदूर' । स्वरगरीति- मशा सो [ में०] राजपीतल । सोनापीत न । स्वर्णसू-वि० [म. जहाँ से सोना निकलता हो । सोना उत्पन स्वर्णरेगा-सरा सी० [सं०] २० 'सुवरण या'। करनेवाला [को०)। स्वगता - मरा पुं० [० स्वण रतन्] हिरण्यरेता । सूर्य (को०] । स्वर्णस्य-वि० [स०] जो स्वण मे जडा हुअा हो (को०] । स्वरणरोमा-म . [5० वणरामन्] एक मूयवशी राजा का नाम स्वर्णहालि-सज्ञा पु० [स०] पारग्वध । अमलताम । जा राजा महारोमा का पुत्र पोर ह्रस्वरोमा का पिता था। स्वर्णा ग-सशा पु० [स० स्वर्णाङ्गो पारग्वध । अमलतास । स्वर्णलता-मरा की [म.] १ मालकगनी । ज्योतिप्मती । २ पीली स्वर्णाकर-तशा पु० [स०] वह स्थान जहाँ सोना उत्पन्न होता हो । जीती। स्वरणजीवनी। सोने की खान । स्वर्णलाभ-सपा पुं० [०] १ अस्न अभिमनित करने का एक मन । स्वर्णाचल-सज्ञा पुं॰ [सं०] दे॰ 'स्वर्णाद्रि' । २ सोना मिलना । स्वरण की प्राप्ति [को०] । स्वातप-सशा पुं० [स० स्वण + पातप] पीली धूप जो सोने जैसी स्वर्णली-गमा ले. [म०] सानुनी नामक क्षुप । स्वर्णपुप्पी। विशेष लगती है। उ०--पन्नो पुप्पो से टपक रहा स्वर्णातप, प्रात २० 'स्वरण नी'। समीर के मृदु स्पर्शो मे कंप कप ।--युगात, पृ० ११ । स्वालेवा-सा मो० [सं०] ३० 'गुवर्णरखा' [को०] । स्वर्णाद्रि--संश पु० [स०] १ उडीमा प्रदेश का भुवनेश्वर नामक स्वगंवग--4 पुं० [सं० वणवन] रागे या सोसे का एक प्रकार का तीर्थ जो स्वर्णाचल भी कहलाता है । २ सुमेरु पर्वत (को॰) । स्वर्णाभर-सज्ञा पुं० [स०] हरताल । स्वर्गवन-सुपा पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहा । स्वर्णाभ'--वि० सोने जैसी ग्रामावाला। उ०--जो रजनी ने