पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/८१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

स्वरता ५३६३ स्वरसंगति स्वरता--सज्ञा स्त्री० [सं० ] स्वर का भाव या धर्म । म्वरत्व । २ उच्चारण मे स्वरो की ग्रम्पप्टना (को०) । ३. मगीत में स्वगे स्वरतिक्रम--सज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग का अतिक्रमण कर वैकुठलोक जाना। का भेद होना। गगीत मे स्वरो का भेद या अतर । स्वरत्व--स० पुं० [सं०] दे० 'स्वरता' । स्वरमचनृत्य-सरा पुं० [ म० बरमञ्चनृत्य] सगीतमार मग्रह के स्वरदीप्त--वि० [सं०] जो स्वर के विचार से शुभ न हो [को०] | अनुसार एक प्रकार का नृत्य । स्वरधीत-सज्ञा पु० [स०] मेरु पर्वत [को०] । स्वरमडल--मया पु० [सं० स्वरमण्डल] १ एक प्रकार का वाद्य जिसमे बजाने के लिये तार लगे होते हैं। स्वरनादी --सज्ञा पुं० [सं० स्वरनादिन]वह बाजा जो मुंह से फूककर वजाया जाता हो। (सगीत)। विशेप--सगीत शास्त्रो के अन्गार ७ स्वर, ३ ग्राम, २१ मूर्छनाएँ और ८६ नाम, उन्हें स्वरमडल कहा गया है। स्वरनाभि----साश पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जो मुह मे फूककर बजाया जाता था। स्वरमटलिका-मजा जी० [सं० स्वग्मण्डलिया] प्राचीन काल की एक प्रकार की वीणा। स्वरपत्तन-मज्ञा पुं० [सं०] सामवेद । स्वरपरिवर्त--मञा पुं० [८०] ध्वनि या स्वर का परिवर्तन होना। स्वरमात्रा--सरा जी० [सं०] उच्चारण की मात्रा [को०] । स्वरपात--संज्ञा पुं० [ म० ] उच्चारण करने मे किसी स्वर पर स्वरयोग--सज्ञा पुं० [सं०] शब्द । ध्वनि [को०] । रुक जाना [को०] । स्वरलहरी --सज्ञा की [सं०] स्वरो की तन्ग । स्वरो की लहर । स्वरपुरजय--सज्ञा पुं० [म० म्वरपुरञ्जय] शेष का एक पुत्र [को०। स्वरलासिका--सज्ञा स्त्री० [सं०] वशी या मुरली नाम का बाजा जो स्वरप्रत्रिया-- स्त्री स्त्री० [स०] १ स्वरो की प्रत्रिया. उनकी विधि मुंह मे फूककर बजाया जाता है । या प्रम। २ वैदिक स्वरो के सबंध मे लिखित एक ग्रथ स्वरलिपि-सज्ञा स्त्री० [म० स्वर + लिपि] सगीत में प्रयुक्त होनेवाले का नाम । वे सकेत चिह्न जिनमे किसी राग मे ग्रारोह अवरोह का ज्ञान स्वरप्रधान-सज्ञा पुं० [स०] राग का एक प्रकार । वह राग जिसमे होता है । २ वह पाठ या गेय रचना जो उक्त चिही के आधार स्वर का ही प्राग्रह या प्रधानता हो, ताल की प्रधानता न हो। पर पठित हो। स्वरवद्ध--वि० [स.] ताल और स्वर मे निवद्ध (को०] । स्वरवान --वि० [सं० स्वरवत] १ ध्वनियुक्न। निनादी । २ मुरीला स्वरब्रह्म--सज्ञा पुं० [सं० स्वरब्रह्मन्] वेद प्रादि ग्रथ [को०] । ३ स्वरविषयक । ४ स्वराघात से युक्त (को॰] । स्वरभग-सज्ञा पुं० [स० स्वरभङ्ग] आवाज का बैठना । २ वैद्यक स्वरवाही 1-सहा पुं० [सं० स्वरवाहिन्] वह बाजा जिसमे से केवल के अनुसार गले का एक रोग । स्वर निकलता हो और जो ताल प्रादि का सूचक न हो । केवल विशेष-वैद्यक मे कहा गया है कि बहुत जोर जोर से बोलने या स्वर उत्पन करनेवाला वाद्य । पढने, विपपान करने, गले पर भारी प्राघात लगने या शीत स्वरविकार--सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] स्वर या अावाज मे विकार पा जाना (को० ॥ आदि के कारण, वायु कुपित होकर स्वरनली मे प्रविष्ट हो स्वरविज्ञान--संज्ञा पुं० [स०] स्वरो की विवेचना करनेवाला शास्त्र । जाती है, जिससे ठीक ठीक स्वर नही निकलता। इसी को स्वरो का विज्ञान [को०) । स्वरभग कहते है। स्वरविभक्ति-सहा स्त्री० [सं०] स्वर का विभेद या पार्थक्य । स्वरो स्वरभगी--सज्ञा पुं॰ [सं० स्वरभङ्गिन्] १ वह जिसे स्वरभग रोग का पार्थक्य या पृथकग्भाव । हुआ हो । वह जिसका गला बैठ गया हो और मुंह से साफ अावाज न निकलती हो । २ एक प्रकार का पक्षी । स्वरवेधी-सज्ञा पुं० [स० स्वरवेधिन्] दे० 'शब्दवेधी' । उ०-स्वरवेधी सव शस्त्र विज्ञाता वेधक लक्ष विहीना । पन्मुख पेखि न पदह स्वरभक्ति-रज्ञा स्त्री० [ म०] र और ल के उच्चारण मे अत- प्रहारत कर लाघव लवलीना । -रामस्वयवर (शब्द॰) । निविष्ट स्वर की ध्वनि । स्वरशास्त्र-सवा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिममे म्वर मवधी सब बातो विशेष--जब र और ल अक्षरो के पश्चात् कोई ऊष्मवर्ण का विवेचन हो । स्वरविज्ञान । (क्ष् प् स् ह.) या कोई व्यजन हो तब स्वरभक्ति होती है । जैसे 'वर्ष' का 'वरिप' उच्चारण मे । स्वरशुद्ध-वि० [सं०] मगीत मे मावा ग्रादि के विचार मे शुद्ध । जिसके म्बर अशुद्ध न हो।यो । स्वरभानु--सा पुं० [स०] मत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के स्वरशून्य--वि० [स०] मगीत के ताल और स्वरो से रहित । स्वरहीन । दस पुत्रो मे से एक पुत्र का नाम । वेसुरा [को०)। स्वरभाव--सज्ञा पुं० [स०] सगीत में भाव के चार भेदो मे से एक । स्वरसक्रम-सा पुं० [स० स्वरम मनम] मगीत मे म्यरो का प्रारोह विना अगसचालन किए केवल स्वर से ही दुख सुग आदि का और अवरोह । म्वरो का उतार और चढाव । मरगम । भाव प्रकट करना। स्वरसगति-सरा पुं० [मरम्बर सजनि] वर्ग का उपयुक्त मयोजन स्वरभेद-सशा पुं० [सं०] १ गला या मायाज बैठ जाना । स्वरमग । या मेल (फो०] ।