संघकाश्ये ४८७१ सप्रतिष्ठित 3 सप्रकाश्य-वि० [म० सम्प्रकाश्य] जो संप्रकाशन के योग्य हो अथवा सप्रणीत-वि० [सं० सम्प्रणीत] १ एक साथ किया हुआ या उपस्था- जिसका सप्रकाशन किया जाय (को०] । पित । २. विरचित । रचित । निबद्ध । जैसे, कविता, रचना सप्रकीर्ण--वि० [स० सम्मकोर्ण] जो एक मे मिला हो। मिश्रित किो॰] । आदि (को०)। | सप्रकीर्तित-वि० [म० मम्प्रकीर्तित १ अभिहित । उक्त । कयित । सप्रणेता-सञ्ज्ञा पुं० [स० सम्प्रणेतृ] १. नायक (सेना आदि का) । २. २. वरिणत [को०)। विचारपति । शासक । ३ प्रणता। विधान करनेवाला (दड, सप्रक्षान-सचा पु० [म० सम्प्रक्षाल) १ पूर्ण विधि से स्नान करने- सजा आदि का)। ४ वह जो धारण, पालन या भरण वाला । २. एक प्रकार के यति या साधु । ३ प्रजापति के पैर करता हो (को०] । धोए हुए जल से उत्पन्न एक ऋषि । सप्रतर्दन -वि० [म० सम्प्रतदन] चुभनेवाला। भेदन या विदारण करनेवाला। मप्रक्षालन-शा पु० [स० सम्प्रक्षालन] १ अच्छी तरह धोना। खूब घोना । २ पूर्ण स्नान । ३ जलप्रलय । जलप्लावन । सप्रतापन -सक्षा पु० [स० सम्प्रतापन] १ प्रतप्त करना । तपाना । सप्रक्षालनी-ज्ञा श्री० [सं० सम्प्रक्षालनो] एक प्रकार को जीविका जलाना । २ कष्ट देना । पोडन । उत्पीडन । ३ मनु द्वारा उक्त एक नरक का नाम किो०) । या वत्ति । (बौद्ध)। सप्रक्षुभित -वि० [स० सम्प्रक्षुभित] जो विशेष रूप मे उत्तेजित या सप्रति' -अव्य० [स० सम्प्रति] १ इस समय । अभी। अाजकल । २ मुकाबले मे। ३ ठोक तौर से । ठीक ढग से । ४. उपयुक्त क्षुब्ध हो |को०)। समय पर । ठीक समय पर । यौ०--सप्रक्षुभितमानस = जिसका मन क्षुब्ध हो । व्याकुल । संप्रति'---सञ्ज्ञा पुं० १ पूर्व अवपिणो के २४ वे अर्हत् का नाम । सप्रगजित सञ्चा पु० [स० सम्प्रगजित] जोरो को चिल्लाहट । ,जोर (जैन) । २ अशोक का पोता । कुनाल का एक पुत्र । से चिल्लाने की आवाज [को०] । सप्रचोदित-वि० [स० सम्प्रचोदित] १ प्रेरित । उत्साहित । आगे सप्रतिनदित-वि० [स० सम्प्रतिनन्दित] पूर्णत मन्कृत किो०] । किया हुअा । २. आकाक्षित । इच्छित । अभीष्ट (को०] । संप्रतिपत्ति -सञ्चा पु० [स० मम्प्रतिपति] १ पहुँच । गुजर ।। २ सप्रजात -वि० [स० सम्प्रजात] उत्पन्न । उद्भूत । आविर्भूत । प्रकट । प्राप्ति । लाभ । ३ सम्यक् बोध । ठीक ठीक समझ मे आना । जात किो॰] । ४ समझ । बुद्धि । ५ मतैक्य । एकमत होना। एक राय होना । ६ स्वीकृति । मजूरी । ७ अभियुक्त का न्यायालय मे सप्रजाता-मचा स्त्री० [सं० सम्प्रजाता] वह (गाय) जिसने बछडा सत्य बात स्वीकार करना । (स्मृति) । ८. सपादन । सिद्धि । जनन किया हो किो०] । कार्य की पूर्णता । ६ प्रत्युत्पन्नमतित्व (को०)। १० सहयोग सप्रज्ञात'-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० सम्प्रज्ञात] योग मे समाधि के दो प्रधान (को०)। ११. हमला । आक्रमण (को०) । १२. मौजूदगी। उप- भेर्दो मे से एक। वह समाधि जिसमे आत्मा विषयो स्थिति (को०)। के बोध से सर्वथा निवृत्त न होने के कारण अपने सप्रतिपन्न-वि० [स०] १ पहुँचा हुआ। गया हुआ । उपस्थित । स्वरूप के वोध तक न पहुँचो हो । २. स्वीकृत । मजूर । ३. उपस्थित बुद्धि का । तेज समझने- विशेष-ध्यान या समाधि की पूर्व दशा मे चार प्रकार की वाला । ४ सपन्न । पूर्ण किया हुआ (को॰) । समापत्तियाँ कही गई है जिनमे शब्द, अर्थ, विषय आदि मे से संप्रतिपादन-पज्ञा पुं० [स० सम्प्रतिपादन] १ प्राप्त कराना। २. किसी न किमी का बोध अवश्य बना रहता है। इन चारो मे देना (को०)। से किसी समापत्ति के रहने से समाधि सप्रज्ञात कहलाती है। सप्रज्ञात समाधि या समापत्ति के चार भेद है-सवितर्क, सप्रतिमास-सञ्ज्ञा पु० [स० सम्प्रतिभास] वह उपलब्धि या अनुभव जो सप्रतिप्राए-सञ्ज्ञा पु० [स० सम्प्रतिप्राण] शरीरस्थ प्राणवायु [को॰] । निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार । समिलन की अोर अभिमुख करता हो [को०] । सप्रज्ञात'-वि० अच्छी तरह विवेचित, ज्ञात या वोधयुक्त (को०] । यौ॰—सप्रज्ञात योगी = वह योगी जिसका विपयवोध बना हुअा सप्रतिमुक्त-वि० [५० सम्प्रतिमुक्त] पूर्ण बद्ध । अच्छी तरह से कसा या वाँधा हुआ (को] । हो । सप्रजात समाधि-दे० 'सप्रज्ञात'। सप्रतिरोधक-सञ्ज्ञा पु० [स० सम्प्रतिरोधक] पूर्णत अवरोध, रोक सप्रज्वलित-वि० [स० सम्प्रज्वलित] १ जलता हुआ। जिसमे से या बधन । २ विघ्न । वाधा (को०] | खब ली निकल रही हो । २ द्योतित । प्रकाशित । दीप्त (को०] । सप्रतिष्ठा-मचा स्त्री० [स० सम्प्रतिष्ठा] [वि० सप्रतिष्टित] १. सप्रएदित-वि० [स० सम्प्रणदित] चिल्लाया हुअा। शोर किया हुआ । नदित (को०] । सुरक्षण । २ सातत्य । नैरतर्य (शुरु होने या अत का उलटा)। ३ उच्च पद या श्रेणी (को०] । सप्रपाद --सञ्ज्ञा पुं० [मं० सम्प्रणाद] [वि० सप्रणादित] आवाज । सप्रतिष्ठित-वि० [स० सम्प्रतिष्ठिन] १ दृढतापूर्वक स्थित। अच्छी शोर तरह जमा हुआ। सुस्थिर । २ जो सप्रतिष्ठा से युक्त हो। सप्रपादित-वि० [म० सम्प्रणादित] जो ध्वनित किया हुआ हो किो०] । ३. अस्तित्व युक्त । सत्तात्मक (को०] । गुल (को०] ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/५५
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