सौजस्क ६०१६ सौत्रामए' विशेष-शुद्ध भाववाचक शब्द 'सौजन्य' ही है। उसमे भी 'ता' सौति' सज्ञा पुं० [स०] १ सूत के अपत्य, कर्ण। २ महाभारत के प्रत्यय लगाकर जो 'सौजन्यता' रूप बनाया जाता है, वह प्रवक्ता एक मुनि। सौति-सज्ञा स्त्री० [हिं० सौत] दे० 'सौत'। उ०--(क) विथुरो सौजस्क-वि० [स०] दे० 'सौजा'। जावक सौति पग निरखि हँसी गहि गाँस । सलज हँसीही लखि सौजा-वि० [सं० सौजस्] अोजयुक्त । ताकतवर । बलवान् । बली। लियो आधी हँसी उसास ।-बिहारी (शब्द०)। (ख) गुर शक्तिशाली [को०)। लोगनि के पग लागति प्यार सो प्यारी बहू लखि सौति जरी। सौजा-सज्ञा पुं॰ [स० श्वापद, प्रा० सावज्ज, साउज, हिं० सावज] -देव (शब्द०)। वह पशु या पक्षी जिसका शिकार किया जाय । उ०-यापुहि सौतिन-सज्ञा स्त्री० [हिं० सौत] दे० 'सौत' । उ०--(क) चौक बन और पापु पखेरू । आपुहि सौजा आपु अहरू । —जायसी चौक चकई सी सौतिन की दूती चली सो तै भई दीन अरिविंद (शब्द०)। उ०-(ख) भॉति भाँति के सौजे दौरत रहत जहाँ गति मद ज्यो ।-केशव (शब्द॰) । (ख) नायक के नैननि मै नित ।--प्रेमघन॰, भा० १, पृ० ४६४ । नाइए सुधा सो सब सौतिन के लोचननि लौन सो लगाइए। सौजात-सञ्ज्ञा पु० [स०] सुजात के वश मे उत्पन्न व्यक्ति । -मतिराम (शब्द०)। (ग) के मोरा जाएत दुरहुक दूर, सहस सौजामि-सज्ञा पुं० [स०] एक प्राचीन ऋषि का नाम । सौतिनि बस माधव पुर।-विद्यापति, पद ५७४ । सौजोर-वि० [फा० शहजोर] दे० 'शहजोर'। उ०-रद छद सौतुक@--सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सो तुख] दे० सौ तुख । उ०--(क) देखि अधर न कीजिए नागर नद किसोर। सास ननद सौजोर चकृत भई सौतुक की सपने ।—सूर (शब्द॰) । (ख) सौतुक मुख कहा कहोगी भोर ।--स० सप्तक, पृ० ३७२ । सो सपनो भयो, सपनो सौतुक रूप।- मतिराम, ग्र० पृ० ३३१ । सौड़-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सौड] दे० 'सौंड' । सौतुख-सज्ञा पु० [हिं० सौ तुख] दे० 'सौं तुख' । उ०--पिय सौडिल, सौड़ो-सज्ञा स्त्री० [हिं० सौंड] १ चादर । मिलाप को सुख सखी कह्यो न जाय अनूप। सौतुख सो सपनो सौड़ोg-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं०] रजाई। उ०—(क) ममिता मेरा भयो सपनो सौतुख रूप । --मतिराम (शब्द॰) । क्या करे, प्रेम उघाडी पौलि । दरसन भया दयाल का, सूल भई सौतुष-सज्ञा पुं० [ हि० सौ तुख] दे० 'सौ तुख' । उ०-पुनि पुनि सुखसौडि ।-कवीर ग्र०, पृ० १६ । (ख) गग जमुन मोरी कर प्रनामु न आवत कछु कहि । देखौ सपन कि सीतुष ससि- पाटलडी रे, हसा गवन तुलाई जी। धरणि पाथरणी नै प्राम सेपर सहि ।-तुलसी (शब्द०)। पछेवडी तो भी सौडी न माई जी।-गोरख०, पृ० ६३ । २ सौतेला-वि० [हि. सौत + एला (प्रत्य॰)] [वि॰ स्त्री० सौतेली] शय्या । सेज? १ सौत से उत्पन्न । सौत का। जैसे,--सौतेला लडका ।२ सौडल-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] एक प्राचीन आचार्य का नाम । जिसका सबध सौत के रिश्ते से हो । जैसे,-सौतेला भाई सौत-सच्चा श्री० [सं० सपत्नी] किसी स्त्री के पति या प्रेमी की दूसरी (अर्थात् माँ की सौत का लडका)। सौतेली माँ (अर्थात् माँ स्त्री या प्रेमिका। किसी स्त्री की प्रेमप्रतिद्वद्विनी। सपत्नी। की सौत) । सौतेले मामा (अर्थात् नानी की सौत का लडका या सौतेली माँ का भाई)। सौक। सवत । उ०—(क) देह दुल्हेया की वढं ज्यो ज्यो जोवन जोति । त्यो त्यो लखि सौते सबै बदन मलिन दुति सौत्य --सबा पुं० [स०] सूत या सारथि का काम । होति ।-बिहारी (शब्द॰) । (ख) काल व्याही नई हो तो सौत्य-वि० १ सूत या सारथि सवधी । २ सुत्य सबधी । सोमाभिषव सवधी। धाम है न गई पुनि आजहू ते मेरे सीस सौत को वसाई है ।- हनुमन्नाटक (शब्द०)। सौत्र--सज्ञा पुं० [स०] ब्राह्मण । महा०-सौतिया डाह = (१) दो सौतो मे होनेवाली डाह या सौत्र--वि० १ सूत का। २ सूत्र सबधी। सूत्र का। ३ सूत्र मे ईर्ष्या। (२) द्वेष। जलन । सौत ला के बिठाना = पत्नी के उल्लिखित या कथित । श्रौत सूत्रग्रथो से सबद्ध या उनका होते हुए दूसरी स्त्री को घर बैठाना या घर मे डाल लेना। अनुसरण करनेवाला। उ०-मतलब यह कि कोई सौत ला के नही विठाएँगे।- सौत्रातिक-सज्ञा पु० [स० सोनान्तिक] बौद्ध दर्शन की एक शाखा या बौद्धो का एक भेद । सौत'- वि० [स०] १ सूत से उत्पन्न । २ सूत सवधी। सूत का। विशेष-इनके मत से अनुमान प्रधान है। इनका कहना है कि सौतन-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सौत] दे० 'सौत' । उ०--कान्ह भए वस वाहर कोई पदार्थ सागोपाग प्रत्यक्ष नहीं होता, केवल एकदेश बाँसुरी के अब कौन सखी हमको चहिहै । निस द्यौस के प्रत्यक्ष होने से शेष का ज्ञान अनुमान से होता है । ये कहते रहै सँग साथ लगी यह सौतन तापन क्यो सहिहै ।- रसखान है कि सब पदार्थ अपने लक्षण से लक्षित होते है और लक्षण सदा लक्ष्य में वर्तमान रहता है। सौतनि--सज्ञा [स० सपत्नी] दे० 'सौत' । उ०--बाढत तो उर सौत्रामए'--वि० [स०] [वि॰ स्त्री० सीतामणी] इद्र सवधी । इद्र का। उरज भर भरि तरुनई विकास । बोझनि सौतनि के हिये प्रावत सौत्रामए'-सज्ञा पु० एक दिन मे होनेवाला एक प्रकार का याग । रूँधि उसास । -विहारी (शब्द॰) । एक एकाह्न यागविशेष । सैर०, पृ० २५। (शब्द०)।
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