सौभरि' ८०१६ सौका कियो भख विहार लखि ताहूँ । करि इच्छा विवाह कहें कीन्हा । वास ते पास रहत नहिं । महत गर्व जो सहत सौह मर दहत शतमधात सुता कह लीन्ह ।-गिरिधर (शब्द॰) । ताहि तहिं ।- गोपाल (शब्द०)। सौभरिएर क्रि० वि० [सं० सम्भृत] (किसी से) भरी हुई। उ०- सौह-कि० वि० सामने । समग । उ०-(क) कपट नतर भौंहैं मन के सकल मनोरथ पूरन, सौभरि भार नई। सूरनास फल करी मुख सतर्गहें वैन। सहज हैनौह जानि के सौं है करति न गिरिधर नागर, मिलि रस रीति ठई । सूर०, १०११७६२ । नैन ।-बिहारी (शब्द॰) । (ख) सही रगील रति जर्ग' जगी पगी सुख चैन । अलसी है मो है किऐ कहै हमी है नन । सौमहल अव्य० [सं० सम्मुख, प्रा० सउमुंह] दे॰ 'सम्मुख' । उ०-जैसे देखा सपन सब, सौमुह पाए चीन्ह । कुँअर कहा -विहारी र०, दो० ५११। (ग) प्रेमक लुबूध पियादे पाऊँ। सब सुबुधि सो, जस कौतुक विधि कीन्ह ।-चित्रा०, पृ० ४० । ताकै सौह चल कर ठाऊँ। --जायमी (शब्द॰) । सौर-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सौरी] मिट्टी के बरतन, भाडे प्रादि जो सौ हन-भा पुं० [फा० मोहान, हिं० मोहन] ३० 'सोहन'। उ०- सतानोत्पत्ति के दसवें दिन (अर्थात् सूतक हटने पर) तोड कुदग खुरपा बेल गुल मफा छुरा कतरनी। नहनी सौहन परी दिए जाते है। डरी यह भरना भरनी।-मूदन (शब्द०)। सी ही-सज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार का हथियार । उ०--यह मों ही सौरसशा मी० दे० 'सौरी' । केहि देशहि केरी । कह नृप है फिरग करेरी। सुनतहुँ नरपति सौरई -सशा स्त्री० [हिं० साँवरा] सांवलापन । उ०—पीत पट छांह मन मुसक्याई। सोही दै वाणी यह गाई। तुर हथियारह प्रकटत मुख माह सौरई को भाव मौहन मोरि झलकाइयतु है । केवल तर। सदा रहे हम विन अवसर ।--बघेलवश० -देव (शब्द०)। (शब्द०)। सौरनाg-क्रि० स० [सं० स्मरण, हिं० सुमरना] स्मरण करना। सोही--क्रि० वि० दे० 'सोह' । उ०-पाठी सिद्धि जहाँ कर जोरै। चिंतन करना। ध्यान करना । उ०--(क) सोइ अन्न तोडो सौ ही ताक मुख नहिं मोर।-चरण० बानी०, पृ० ६२ । भेजि लाखन जेवाये सत सौरि भगवत नहिं प्रतता को ढं सौ--वि० [म० णत] जो गिनती मे पचान का दूना हो। नब्बे पौर गयो।-रघुराज (शब्द०)। (ख) श्री हरि गुरुपद पकज दस । शत । २. सिख्या में अधिक । वहुन । सौरी। सैन्य सहित वृदावन ओरी ।-रघुराज (शब्द०)। सौ--सशा पुं० नवे और दस की सग्या या प्रक जो इस प्रकार लिखा २ याद करना । स्मरण करना । उ०-कहा कही कछु कही जाता है-१००। न जाई । हिय सौ रत वृधि जाइ हेरई ।-चित्रा०, पृ० ४० । मुहा०-सौ वान की एक बात = साराश । तात्पर्य । निष्कर्ष । सौ रना-क्रि० अ० [हिं० सँवरना] दे० 'संवरना' । निचोड। उ०-(क) सौ बातन की एक वात । सव तजि सौरा-वि० [सं० श्यामल सांवला। भजो जानकीनाय । -सूर (शब्द०)। (ब) सो वातन की सौंसार-सञ्ज्ञा पुं० [स० ससार] दे० 'ससार'। उ०—(क) एक बात । हरि हरि हरि मुमिन्हु दिन राति ।--सूर सोसार मडल सारा मार चलाया। गरीव निवाज रघुराज मैं (शब्द०)। सौ की सीधी एक = सागश। मब का सार । पाया।-दक्खिनी०, पृ० १३५। (ख) हमा जाय मिले निचोड। उ०--रोम रोम जीभ पाय कहै तो कह्यो न जाय, करतारा। बहुरि न पावहि एहि सौ सारा ।-सत. दरिया, जानत ब्रजेश सब मर्दन मयन के। मूघी यह वात जानो गिरधर ते बखानो सौ कि सीधी एक यही दायक चयन के।-गिरधर सौसे-वि० [सं० समस्त] सब । कुल । पूरा । तमाम। (पू०हिं०) । (शब्द०)। सो का सवाया = पचीम पनिशत मुनाफा । सौ कोस भागना % एक दम दूर रहना। अलग रहना। सो जान से सौह-सशा सी० [हिं० सौगद] सौगद । शपथ । कसम । प्राशिक, कुर्वान या फिदा होना = अत्यत प्रेम करना या मुग्ध किरिया। उ०--(क) जो कहिए घर दूरि तुम्हारे बोलत होना । पूरी तरह मुग्ध होना । उ०---और उसकी चटक मटक सुनिए टेर । तुमहिं सौह वृषभान बबा की प्रात साँझ एक फेर। पर हमारा हिंदोस्तान सौ जान मे कुर्वान है।--प्रेमघन॰, भा. —सूर (शब्द०)। (ख) तुलसी न तुम्ह सो राम प्रोतम कहत २, पृ० २५६ । मी सौ बार = बहुत बार। अनगिनत मतवा । हौ सौ हे किए। परिनाम मगल जानि अपने आनिए धीरज उ०-जो निगरा सुमिरन कर, दिन मै सौ सौ पार। नगर हिए।-तुलसी (शब्द०)। (ग) जव जव होत भेंट मेरी भटू नायका सत कर, जर कौन की लार।-कबीर सा० स०, भा० तब तब ऐसी सी हैं दिन उठि खाति न अघाति है। -केशव । १, पृ० १७ । (घ) धमहि की कर सौह कहौं हो। तुव सुख चाहि न और सौ@!-वि० [सं० सम ( = समान) प्रा० स], दे० 'सा' । उ०-- चहौ हौं ।-पद्माकर (शब्द०)। (क) हे मुंदरी तेरो सुकृत मेरो ही सौ हीन ।-लक्ष्मण क्रि० प्र०--करना ।-खाना ।-देना।--लेना। (शब्द०)। (ख) वर बीरन जुद्ध इतौ संपज्यो, तिहि ठौर सौह-सज्ञा पुं० [स० सम्मुख, प्रा० सम्मुह] समुख । सामने । भयानक सो उपज्यो ।-पृ. रा०, २४११६६ । समक्ष । उ०—(क) लरत सौह जो आय निधनु तेहि करत सौक-मज्ञा स्त्री० [हिं० सीत] किसी स्त्री के पति या प्रेमी की दूसरी संघद्र, कर ।--गोपाल (शब्द०) । (ख) गहत धनुप अरि बहुत स्त्री या प्रेमिका। किसी स्त्री की प्रेमप्रतिद्वद्विनी। सौत । सपत्नी। पृ०६४1
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४९६
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