सौधर ८०१५ सौभरि ये उस अज्ञता के कीचड के बाहर न होगे, दक्षिणा के लोभ से सार सौपियतु है।-केशव (शब्द०)। (ज) स्याम बिना ये उसी मे सौदे पडे रहेंगे।-बालकृष्ण (शब्द॰) । (ख) सत चरित कर को यह कहि क तनु सौ पि दई । —सूर (शब्द॰) । सगत मे सौद ज्ञान सावुन दीजै ।-पलटू० वा०, पृ० १३ । क्रि० प्र०-देना। सौघg:-सा पुं० [स० सौध] दे० 'सौध' । उ०—(क) नृप सध्या २ सहेजना। विधि वदि राग वारुणी अधर रचि, मदिर गयो अनदि खड सांतये सौंध पर।-गुमान (शब्द॰) । (ख) एक महातर सौंफ-सशा स्त्री० [सं० शतपुष्पा] १ औषध और मसाले आदि मे हेरि बहेरो। सौंध ममीप रहै नल केरो।-गुमान (शब्द॰) । प्रयुक्त होनेवाला पांच छह फुट ऊंचा एक पौधा और उसके फल जिसकी खेती भारत मे सर्वत्र होती है । सौघ-सज्ञा स्त्री० [स० सुगन्ध] सुगध । खुशबू । उ०-सौंध सी सनिय लसै बिच बीच मोतिन की कली।-गुमान (शब्द०)। विशेष-इस पौधे की पत्तियां सोए की पत्तियो के समान ही सौधना-क्रि० स० [हिं० सौ दना] दे० 'सौदना' । बहुत बारीक और फूल सोए के समान ही कुछ पीले होते हैं । फूल लवे सीको मे गुच्छो के रूप मे लगते है। फल जीरे के सौंधना-क्रि० स० [म० सुगन्ध, प्रा० सुअध, पु०हिं० सौंध + हिं० समान पर कुछ बडे और पीले रंग के होते है। कार्तिक महीने ना (प्रत्य॰)] सुगधित करना । सुवासित करना। वासना । मे इसके बीज बो दिए जाते हैं और पांच सात दिन मे सौंधा-सक्षा पु० [स० सुगन्ध, प्रा० सुअध] दे० 'सौंधा'। उ०- ही अकुरित हो जाते है । माघ मे फूल और फागुन मे फल लग (क) सौंधे की सी सौ धी देह सुधा सो सुधारी पांवधारी देव जाते हैं। फागुन के अत या चैत के पहले पखवाडे तक, फलो लोक ते कि सिंध ते उवारी सी। केशव (शब्द०)। (ख) के पकने पर मजरी काटकर धूप मे सुखा और पीटकर बीज कचुकी चोवा के सौंधे सों बोरि के स्याम सुगधन देह भरी है। अलग कर लेते हैं। यही वीज सौंफ कहलाते हैं । सौंफ स्वाद --पद्माकर (शब्द॰) । (ग) सौंधे सनी सुथरी विथुरी अलक मे तेजी लिए मीठी होती है। प्रौपध के अतिरिक्त मसाले मे हरि के उर पाली बेनी (शब्द॰) । (घ) गधी को सौ धो भी इसका व्यवहार करते हैं। इसका अर्क और तेल भी निकाला नही, जन जन हाथ विकाय ।-नद० ग्र०, पृ० १३३ । (ड) जाता है जो प्रोषध और सुगधि के काम मे पाता है। वैद्यक तिल तालिब गुल पीर मिलि सुहवति सौधा होय ।-रज्जव०, मे यह चरपरी, कडुवी, मधुर, गर्भदायक, विरेचक, वीर्यजनक, पृ० ८॥ अग्निदीपक, तथा वात, ज्वर, दाह, तृष्णा, व्रण, अतिसार, सौधा-वि०१ दे० 'सोंधा' । उ०-सुठि सौंधे प्रोवर्न, जनक सुख आम तथा नेत्ररोग को दूर करनेवाली मानी गई है। इसका अर्क युक्त घरी के । सकल मनोहरता वारे प्यारे सवही के |-श्रीधर शीतल, रुचिकर, चरपरा, अग्निदीपक, पाचक, मधुर तथा तृपा, (शब्द०)। २ रुचिकर । अच्छा । उ०-जो चितवन सौंधी वमन, पित्त और दाह का शमन करनेवाला कहा गया है। लग चितइए सबेरे । —तुलसी (शब्द०)। पर्या०--शतपूष्पा। मरिका। माधुरी। मिता। मिश्रेया। सौनमक्खि, सौनमक्खी-सज्ञा स्त्री० [हिं० सोनामक्खी सं० स्वर्ण- मधुरा । सुगधा । तृषाहरी । शतपत्रिका । वनपुप्पा। माधवी। मक्षिका] दे० 'सोनामक्खी' । उ०-सौनमक्खि सखिया सुहागा। छना। भूरिपुष्पा। तापसप्रिया। घोपवती। शीतशिवा । सूल सम्हालू सवरस सागा। -सूदन (शब्द०)। तालपर्णी । मगल्या। सघातपत्रिका । अवाक्पुप्पी। सौंनी-सशा पुं० [सं० स्वर्ण] स्वर्णकार । सुनार । २ सौफ की तरह का एक प्रकार का जगली पौधा जो कश्मीर सौंपना-क्रि० स० [सं० समर्पण, प्रा० सउप्पण] १ किसी व्यक्ति या मे अधिकता से पाया जाता है। वस्तु को दूसरे के अधिकार मे करना। सुपुर्द करना। हवाले विशेष-इस पौधे की पत्तियां और फूल सी फ के समान ही होते करना । जिम्मे करना। समर्पण करना। जैसे,(क) मैं इस हैं। फल झुमको मे चौथाई से तीन चौथाई इच तक के घेरे लडके को तुम्हे सौ पता हूँ, इसे तुम अपनी देख माल मे रखना। मे होते हैं। बीज गोल और कुछ चिपटे से होते हैं। हकीम (ख) सरकार ने उन्हें एक महत्व का काम सौंपा । (ग) जहाँ लोग इसका व्यवहार करते है। इसे वडी सौफ, मौरी, मेउडी लडके ने होश सँभाला, बाप ने उसे अपना घर सौंपा। (घ) या मोडी भी कहते है। लोगो ने उसे पकडकर पुलिस को सौंप दिया। उ०—(क) सौफिया'. -सज्ञा स्त्री० [हिं० सौंफ + इया (प्रत्य॰)] सौफ की बनी चितचोरन कर सौप चित अव काहे पछताइ।-रसनिधि हुई शराव । २ एक प्रकार की बीडी। (शब्द०)। (ख) जव लग सोस न सो पिए तब लग इस्क न सोफिया--वि० सौफ के सुगध या योग से युक्त । होइ।-दादू (शब्द०)। (ग) सो सोपि सुत को राज नृप तप करन हिमगिरि को गए। पदमाकर (शब्द॰) । (घ) सौंफी'-सा स्त्री० [हिं० सोफ] वह शराव जो सौफ से बनाई जाती उन हरकी हसि के उतं इन सौपी मुसकाय । नैन मिले मन हैं । सौ फिया। २ एक तरह को बीडी जिसमे सौ फ सी सुगध मिलि गयो दोऊ मिलवत गाय |--विहारी (शब्द०)। (च) रहती है। सोपे भूप रिषिहि सुत बहु विधि देइ असीस। जननी भवन सौफी'- वि० सोफ के सुगध या योग मे युक्त । गए प्रभु, चले नाइ पद सीस।--तुलसी (शब्द०) । (छ) सौभरिर--मज्ञा पुं० [स० सौभरि] दे० 'सोभरि'। उ०-वृदावन चचल चरित्न चित चेटिकी चेटका गायो चोरी के चितन अभि- महँ मुनि रहे सौं भरि सो जल माहु। अयुत अब्द अति तप
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४९५
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