८०१४ सौदना सौंदर्यशास्त्रं - सौंदर्यशास्त्र-मज्ञा पु० [सं० सौन्दर्य + शास्त्र] सौदर्यसबधी शास्त्र माछी वार। फूहर वही सँराहिए परसंत टपकै लार। (अ० एइम्थेटिक्स)। उ०—कुछ दिन पहले जब विदेश के परसत टपकै लार झपटि लरिका सोचावे। चूतर पोछ हाथ सौदर्यशास्त्र का छायाप्रभाव हिंदी पर पडा । प्राचार्य, दोऊ कर सिर खजुवावै ।-गिरिधर (शब्द॰) । पृ० १३२। सौज-सज्ञा स्त्री० [हिं० सौज] दे० 'मौज'। उ०—(क) हरि सौंदर्यात्तुभूति-तशा स्रो० [सं० सौन्दर्यानुभूति] प्राकृतिक सुदरता के को दर्शन करि सुख पायो पूजा वहु विधि कीन्ही। अति अवलोकन एव विवेचन से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान या अनुभव । आनद भए तन मन मे सौज बहुत विधि दीन्ही।-सूर उ०—वह अपनी सौदर्यानुभूति को बरबस कविता का रूप (शब्द०)। (ख) आए नाथ द्वारका नीके रच्यो मांड्यो छाय । प्रदान कर देता है। हिं० का० प्र०, पृ० १३५। व्याह केलि विधि रची सकल सुख सौज गनी नहिं जाय ।- सौ@'-- --सज्ञा स्त्री० [हिं० सोह] दे० 'सोह'। उ०—(क) सु दर स्याम सूर (शब्द०)। (ग) विनती करत गोविंद गोसाईं । दै हसत सजनी सो नद बबा की सौ री।-सूर (शब्द०)। (ख) सब सौज अनत लोक पति निपट रक की नाई।-सूर वाभन को सौ ववा की सौ मोहन मोह गऊ की सौ गोरस की (शब्द०)। सी। -देव (शब्द०)। (ग) मारे लात तोरे गात भागे जात सौजाई-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सौंज + प्राई (प्रत्य॰)] सौंज । सामग्री। हा हा खात कह तुलसी सराषि राम की सौ टेरि के । तुलसी उ.-स्याम भजन विनु कौन बडाई ? बल, विद्या, धन, धाम, (शब्द०)। रूप गुन और सकल मिथ्या सौजाई।-सूर०, १२४ । सौं—प्रव्य० [हिं०] दे० 'सा' या 'सा' ! उ०-याही ते यह प्रादरं सौंड, सौड़ा-सज्ञा पुं० [हिं० सोना + प्रोढना या स० शुण्ड (= सूड जगत माहि सब कोइ। वोले जवै बुलाइए अनवोले चुप होइ । की तरह लवा या भारी)] अोढने का भारी कपडा। जैसे,- हुक्का तो कहु कौन पं जात निवाहो साथ । जाकी स्वासा रहत रजाई, लिहाफ आदि । है लगी स्वास के साथ ।-रसनिधि (शब्द॰) । सौं'–प्रत्य० [हिं०] दे० 'सा' या 'से' उ०-ले वाम बाहुबल ताहि सोणा-सद्या पुं० [स० शकुन, प्रा० सउण, हिं० सगुन] शकुन । शुभ । मौडी–सञ्चा मी० [सं० सौण्डी] पीपल । पिप्पली । शौडी। राखत कठ सौ खसि खसि परं । तिमि धरे दक्षिन बाहु कोहूं गोद मे विच ले गिरं ।-हरिश्चद्र (शब्द॰) । मु०-सौण बंदाना = शकुन बदाना। एक रीति जिसमे सबेरे कोई सौकारा, सीकेरा-सज्ञा पुं० [सं० सकाल] प्रात काल। सबेरा। पक्षी (नीलकठ आदि) लेकर सामने आते है। उ०-एक वासउँ प्रो (र) बाटइ वसउँ। उठी प्रभात सौण वदाई।- सौंकेरे क्रि० वि० [स० सकाल या सु+ काल, पु० हिं० सकारे] १ वी० रासो, पृ० १३॥ तडके । सबेरे । २ समय से कुछ पहले। जल्दी। सौतना@+-क्रि० स० [स० समावर्तन, प्रा० समावट्टण] १ जमा सौघा-वि० [सं० सु + अर्घ] सस्ता । करना। इकट्ठा या सचित करना। २ तलवार आदि को म्यान से बाहर खीचना । दे० 'सेतना'। सौघा ----वि० [स० सुगन्धित] सुगध युक्त । उ०—केसर सौ घं बसन, सकल उमरावन सज्जे। -ह. रासो, पृ० १२५ । सौंतुखg: -सज्ञा पु० [म० सम्मख] प्रत्यक्ष । समुख । उ०--दृग भौर से है के चकोर भए जेहिं ठौर पै पायो बडो सुख है। सौघाई--सज्ञा स्त्री॰ [स० समर्घता या हिं० सौ घा?] अधिकता। वहु- तायत । ज्यादती। उ०—काक कक लेइ भुजा उडाही। एक लहर उठे सौरभ की सुखदा मच्यो पून्यो प्रकास चहूँ रुख है। ते छीन एक लेइ खाही। एक कहहिं ऐसिउ सौ घाई। सठहु ठगि से रहे सेवक स्याम लखे सपनो है किधौं यह सौ तुख है। तुम्हार दरिद्र न जाई ।---तुलसी (शब्द०)। बन अवर मे अरविंद किधी सुचि इद् कै राधिका को मुख है। सौंधी-वि० [सं० सुभग] १ अच्छा । उ०--जो चितवति सौ घी लगे सौतुख'–त्रि० वि० आँखो के आगे । प्रत्यक्ष । सामने । उ०—तेरी पर- चितइऐ सबंरे । तुलसीदास अपनाइऐ कीजै न ढील अब जीवन तीति न परत अब सौतुख हू छ्यल छवीले मेरी छुवै जनि नित नेरे । —तुलसी (शब्द०)। २ उचित । ठीक । छहियां । राति सपने मै जनु वैठि मैं सदन सूने मदन गोपाल, तुम गहि लीन्ही बहियां । तोप (शब्द०) । (ख) मकु तुव सौंचना-सरा स्त्री० [सं० शौच] मलत्याग । शौच । भाग जागि के जाई। सौ तुख हाथ चढ कहुँ आई ।-चिना०, सौचना-क्रि० स० [सं० शौच] १ शौच करना । मलत्याग करना। पृ० ५६ । २ मल त्याग के उपरात हाथ पैर आदि धोना। सौंदन-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सौदना] धोवियो का वह कृत्य जिसमे वे सौचर-सज्ञा पु० [स० सौवर्चल] दे० 'सोचर नमक' । उ०-सज्जी कपडो को धोने से पहले रेह मिले पानी मे भिगोते है। उ०- सौचर सैवर सोरा। सांखाहूली सीप सकोरा।-सूदन नहर मे दाग लगाय आइ चुनरी । मन को कँडी ज्ञान को (शब्द०)। सौंदन साबुन महँग विचाय या नगरी। -कवीर० श०, भा० सौचर नमक-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सौचर + नमक] दे० 'सो'चर नमक' । १, पृ०२३ । सौंचाना-क्रि० स० [हिं० सौचना का प्रे० रूप] शौच कराना । मल सौदना-क्रि० स० [स० सन्धम् ( = मिलना)] आपस मे मिलाना । त्याग कराना । हगाना । उ०—काची रोटी कुच कुची परती सानना। मोतप्रोत करना। प्राप्लावित करना। उ०—(क) तहका। 1
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४९४
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