2 सलावा ७०६८ सैलावा-सज्ञा पुं॰ [फा० सैलाब] वह फसल जो पानी मे डूब गई है। सैसवता@ - सच्चा स्त्री० [हिं० सैसव + ता (प्रत्य॰)] दे० 'शैशव' । सैलावी-वि० [फा०] जो बाढ पाने पर डूब जाता हो। बाढवाला। उ०-सैसवता मे हे सखी जोवन कियो प्रवेम । कहाँ कहाँ छवि जैसे,--सैलावी जमीन। रूप की नखशिख अग सुदेस ।- (शब्द०)। सैलाबी सज्ञा स्त्री०१ तरी । सील । सीड । २ बाढ के समय डूब जाने- सैसाजल-सज्ञा पुं० [स० शेप] लक्ष्मण । उ० -संसाजल हसमत वाली भूमि। जिमि ही सरसाई । वीरां अवरोधी कीधी वडाई ।-रघु० रू०, सैलि--सज्ञा पु० [स०] बृहत्सहिता के अनुसार एक प्राचीन जनपद पृ० २४४॥ का नाम। मैसिकत--सज्ञा पुं० [म०] महाभारत मे वर्णित एक प्राचीन जनपद । सैली'--सज्ञा स्त्री० [हिं० सैला] १ छोटा सैला। २ ढाक की जड के सैसिारध्र-सशा पु० [सं०] दे० 'ससिकत' । रेशो की बनी रस्सी। सह-वि० [फा०] तीन सैली'-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [देश॰] वह टोकरी जिसमे किसान तिन्नी का सहचरी@-सज्ञा स्त्री० [स० सहचरी] दे० 'सहचरो'। उ०—कहि चावल इकट्ठा करते है। उपदेस सहचरी मोसो, कहाँ जाउ कहाँ पाऊँ।-पोद्दार अभि० सैली-सज्ञा स्त्री॰ [स० शैली] परिपाटी। ढग । चाल । परपरा । ग्र०, पृ० २३६ । दे० 'शैली' । उ०--यो कवि भूपन भाखत हैं यक तो पहिले सैहज@ - वि० [स० सहज] दे॰ 'सहज' । उ०-सहज सिंघासन बैठे कलिकाल की सैली।-भूपण ग्र०, पृ० ६६ । स्वामी, प्रागै सेव कर गुलामी ।-रामानद०, पृ० ५३ । सैलीg+-सशा स्त्री० [हिं० सहेली] दे० 'सहेली'। उ०-सैली मेरी सहजानदg+--सज्ञा पुं० [सं० सहज + आनन्द] दे० 'सहजानद, गोद ममोला। दिल मेरा वाई लिया मां।-दक्खिनी०, उ०-ब्रह्मानद ममता टरी सदगुरु सहजानद सो।-पोद्दार पृ० ३६०। अभि० ग्र०, पृ०४२६ । सैलूख-सज्ञा पुं० [स० शैलूप] १ बेल का वृक्ष । २ विल्वफल । दे० सैहत-सज्ञा स्त्री० [सं० सहित] दे० 'सहित' । उ०-सोल भाव छम्या 'शैलूप'। उर धार। धीरज संहत दया व्रत पार।-रामानद०, पृ० ५३ । सैलुष-सज्ञा पुं० [स० शैलूप] १ नट । अभिनेता। २ धूर्त । ३ सैहथी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० शक्ति, प्रा. सत्ति अथवा सं० सहस्र, प्रा० बेल का वृक्ष या फल। उ०- नहिं दाडिम सैलूप यह सुक न सहत्य] शक्ति। परछी । साँग। उ०--(क) ब्रह्ममन पढ़ि भूलि भ्रम लागि ।-दीन० ग्र०, पृ० १०२ । दे० 'गैलूप' । सैहथी रावण कर चमकाय । काल जलद मे वीजुरी जनु प्रगटी सैव-सज्ञा पुं० [स० शव दे० 'शैव'। उ०-माधौदाम के माता है प्राय।-हनुमन्नाटक (शब्द॰) । (ख) कह्यो लकपति मारो पिता सैव बहिर्मुख हते ।-दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १६५ । तोही। दीन्ही कपट संहथी मोहीं। हनुमन्नाटक (शब्द०)। सैवलg~-सञ्ज्ञा पुं० [स० शैवल] दे० 'शैवाल'। उ०-नामि सरसि (ग) आपुस मांझ इसारत कीनी । कर उलछारि सहथी लीनी। त्रिवली निसेनिका रोमराजि सैवल छवि पावति ।-तुलसी -लाल कवि (शब्द०)। (शब्द०)। सैहा-मज्ञा पुं० [स० सेक या सेचन (= सिंचाई) + हिं० हा (प्रत्य॰)] सैवलिनी-सज्ञा स्त्री० [स० शैवलिनी] दे० 'शवलिनी'। [स्त्री॰ अल्पा० सही] पानी, रस आदि ढालने का मिट्टी का बरतन । सैवाल-सञ्ज्ञा पुं० [स० शैवाल] दे० 'शैवाल' । उ०—कहुँ सेवालन सही|- सञ्चा स्त्री० [हिं० सहा] छोटा संहा । मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन ।-भारतेदु ग्र०, भा० १, सहैर--सज्ञा पुं० [फा० शहर] दे॰ शहर । उ०—दिसि पस्चम गुरजर पृ०४५५। सुधर, सैहैर अहमदावाद ।-पोद्दार अभि० प्र०, पृ० ४२१ । सैवी@t-वि० [स० शैविन् > शैवी] शैव मतानुयायी। उ०-घर मे सो प्रत्य० [प्रा० सुन्तो] करण और अपादान कारक का चिह्न। मा वाप सैवी हैं। -दो सौ वावन०, भा० १, पृ० १६४। द्वारा। उ०—(क) विद्यापति मन उगना सो काज नहिं हितकर सैवुम-वि० [फा०] तीसरा । तृतीय [को०] । मोर त्रिभुवन राज ।--विद्यापति, पृ०, ५१४ । (ख) बार सैव्य-सचा पु० [स० शैव्य] दे० 'शैव्य'। बार करतल कहें मलिके । निज कर पीठ रदन सो दलिक।- सैसगी-वि० [स० सत्सडिगन्] सत्सग करनेवाला। साथी। सत- गोपाल (शब्द॰) । (ग) गिरत सिंदूर मतवारिन की मांगन सो, चहुँ ओर फैलि रही जासु अरुनाई है। वालमुकुद गुप्त सगी। उ०—प्रेम के साथ लग सैसगी।-इद्रा०, पृ० १६८ । (शब्द०)। सैस-वि० [सं०] १ सीसे का बना हुआ । २ सीसा सवधी। सो -वि० [सं० सम] तुल्य । समान । दे० 'सा' । उ०-तीर सों सैसक-वि० [सं०] [स्त्री० सँसको] दे॰ 'सैस' । धीर समीर लगे पद्माकर बूझि हू वोलत नाही।—पद्माकर सैसव-मज्ञा पुं० [स० शैशव] दे० 'शिव' । उ०-पत्त पुरातन (शब्द०)। झरिग पत्त अकुरिय उट्ठ तुछ । ज्यो संसव उत्तरिय चढिय वैसव सों-अव्य० [हिं० सौ ह] दे० 'सौ'। उ०--मथुरा मैं भैम बढे राम । कुछ।-पृ० रा०, २५६६ । श्याम वल पाय, मारयो कंस राय करे करम अलीके सो। तो , किसोर
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४६८
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