सवनी DOVÉ सेवाल । सेवनी-सज्ञा पुं॰ [सं० सेवनिन्] खेत जोतनेवाला । हलेवाहा (को०] । सेवाजन-सज्ञा पु० [सं०] नौकर । सेवक । दास । सेवनाय-वि० [सं०] १ सेवा योग्य । २ पूजा के योग्य । ३ व्यवहार सेवाटहल--सचा [स० सेवा+हिं० टहल] परिचर्या । खिदमत । सेवा- करने या रखने योग्य । ४ सीने योग्य । शुश्रूपा । उ०-इस प्रकार पिता का उपदेश सुन, वह बड- सेवर--सज्ञा पु० [स० शबर] दे० 'शवर'। उ०--हरिजू तिनको भागिन सप्रेम सेवाटहल दिन रात करने लगी।-भक्तमाल, दुखित देख । कियो तुरत सेवरि को भेष ।--(शब्द॰) । पृ० ४७०। सेवर-सज्ञा पुं० [स० शिम्बल] दे० 'सेमल' । क्रि प्र०-करना। होना। सेवर'--वि० [देशी] जो कम पका हुआ हो। जो पूरी तौर से पका सेवाती-सज्ञा स्त्री॰ [स० स्वाति] दे० 'स्वाति' । उ०--(क) रातुरग हुआ न हो (वोल०)। जिमि दीपक वाती। नैन लाउ होई सीप सेवाती।-जायसी सेवराg+-सज्ञा पुं० [हिं० सेवडा] दे० 'सेवडाँ'। उ०-सेवरा, (शब्द०)। (ख) नयन लागु तेहिं मारग पदुमावति जेहि दीप । खेवरा, वानपरस्ती, सिध साधक अवधूत । प्रासन मारे बैठ सब जइस सेवातिहि सेवई बन चातक जल सीप।-जायसी (शब्द०)। जारि प्रातमा भूत ।-जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ३० । सेवादक्ष-वि० [स०] जो परिचर्या के काम मे कुशल हो (को०] । सेवरी--मज्ञा स्त्री० [सं० शबरी] दे. 'शवगे'। उ०~-बहुरि सेवाधर्म-सज्ञा पु० [स०] सेवक का धर्म या कर्तव्य । कवहि निरखि प्रभु गीध कीन्ह उद्धार । सेवरी भवन प्रवेश मेवाधारी-सञ्ज्ञा पुं० [सं० सेवा + धारिन्] वह जो किसी मदिर मे करि पपासरहि निहार ।--रामाश्वमेध (शब्द॰) । ठाकुर जी या मूर्ति की पूजा सेवा करता हो। पुजारी। सेवल-सज्ञा पु० [देश०] व्याह की एक रस्म । (साधुओ की परि०)। विशेष-इसमे वर की कोई सधवा प्रात्मीया वर के हाथ मे पीतल सेवापन-सा पु० [सं० सेवा+ हिं० पन (प्रत्य॰)]। दासत्व । की एक थाली देती है जिसपर एक दिया रहता है, अनतर सेवावृत्ति । नौकरी। टहल । उसके दुपट्टे के दोनो छोर पकडकर पहले उस थाली से वर का सेवाबंदगी-सज्ञा स्त्री० [स० सेवा, फा० वदगी] | आराधना । माथा और फिर अपना माथा छूती है । पूजा। उ०—यह मसीति यह देवहरा सतगुरु दिया दिखाइ । सेवाजलि-सज्ञा स्त्री० [स० सेवाञ्जलि] १ भक्त या सेवक का दोनो भीतर सेवाबदगी बाहर काहे जाइ।-दादू (शब्द०)। हथेलियो के जुड़े हुए सपुट मे स्वामी या उपास्य को कुछ सेवाभिरत--वि० [सं०] १. सेवाकार्य मे रत या लीन । २ सेवा मे अर्पण । २ सेवामाव को व्यक्त करने की अजलि या सपुट । आनद प्राप्त करने या माननेवाला [को०] । सेवा-सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] १ दूसरे को आराम पहुँचाने की क्रिया। सेवाभृत्-वि० [स०] सेवा करता हुा । सेवाकार्य मे सलग्न (को०] । खिदमत । टहल । परिचर्या । जैसे--हमारी बीमारी में इसने सेवाय-वि० [अ० सिवा] अधिक । ज्यादा । बडी सेवा की। मेवाय-अव्य० दे० 'सिवा', 'सिवाय' । यौ०-सेवा शुश्रूषा । सेवा टहल । २ दूसरे का काम करना । नौकरी । चाकरी । सेवार-सज्ञा स्त्री० [सं० शैवाल] १ वालो के लच्छो की तरह पानी विशेष--राज्य की सेवा के अतिरिक्त और प्रकार की सेवावृत्ति मे फैलनेवाली एक घास । उ०—(क) संवुक भेक सेवार अधम कही गई है। समाना । इहाँ न विषय कथा रस नाना । —तुलसी (शब्द०)। ३ आराधना । उपासना। पूजा । जैसे,—ठाकुर जी की सेवा। (ख) राम और जादवन सुभट ताके हते रुधिर की नहर सरिता बहाई । सुभट मनो मकर अरु केस सेवार ज्यो, धनुष मुहा०-सेवा मे = पास । समीप । सामने। जैसे—(क) मैं कल प्रापकी सेवा मे उपस्थित हूँगा। (ख) मैंने आपकी सेवा मे त्वच चर्म कूरम बनाई।-सूर (शब्द॰) । एक पन भेजा था। (आदरार्थ प्राय बडो के लिये)। विशेष---यह अत्यत निम्न कोटि का उद्भिद् है, जिसमे जड ४ अाश्रय । शरण । जैसे,-आप मुझे अपनी सेवा मे ले लेते तो आदि अलग नहीं होती। यह तृण नदियो और तालो मे होता बहुत अच्छा था। ५. रक्षा। हिफाजत जैसे,—(क) सेवा विना है और चीनी साफ करने तथा औषध के काम में आता है। ये पौधे सूख गए। (ख) वे अपने शरीर की बडी सेवा करते वैद्यक मे सेवार कसली, कडवी, मधुर, शीतल, हलकी, स्निग्ध, है। उ०---वे अपने वालो की बडी सेवा करती हैं। -महावीर- दस्तावर, नमकीन, घाव भरनेवाली तथा त्रिदोषनाशक प्रसाद द्विवेदी (शब्द०)। ६ सप्रयोग। सभोग । मैथुन । बताई गई है। जैसे,--स्त्रीमेवा। ७ प्रयोग । व्यवहार (को०)। ८. लगाव । २ मिट्टी की तहें जो किसी नदी के आसपास जमी हो । आसक्ति (को०)। ६. चापलूसी । चाटु (को०) । सेवार-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० सेह (= तीन)] पान । (सुनार)। क्रि० प्र०—करना ।-होना । सेवारा-सज्ञा पुं० [हिं० सेवरा] दे० 'सेवडा'। सेवाकाकु-सज्ञा स्त्री० [सं०] सेवाकाल मे स्वरपरिवर्तन या आवाज सेवाल-सज्ञा सी० [सं० शैवाल] दे० 'सेवार। उ०-दूब वश कुव- बदलना, (अर्थात् कभी जोर से बोलना, कभी मुलायमियत से, लय नलिन अनिल व्योम तृणवाल। मरकत मरिण हय सूर के कभी क्रोध से भौर कभी दुख भाव से)। नील वर्ण सेवाल।-केशव (शब्द०)।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४५९
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