सूलधर ७०६१ सूहा नुकीली चीज । काँटा । उ०-(क) सर सो समीर लाग्यो सूल सूवरी-सञ्ज्ञा पु० [म० शूकर] दे० 'सूअर'। सो सहेली सव विष सो विनोद लाग्यो वन सो निवास री।-- मतिराम (शब्द॰) । (ख) ऐतो नचाइ के नाचवा रोडको सूवा'-मशा पु० [१] फारसी सगीत के अनुसार २४ शोभानो मे से एक। लाल रिझावन को फल येती। मेती सदा रसखानि लिए कुवरी के करेजनि सूल सी भेती।-रसखान (शब्द॰) । सूवा'--सज्ञा पुं० [स० शुक, प्रा० सुग्र, सुव] १ तोता। सुग्गा । क्रि० प्र०--चुभना।—लगना । सूया । उ०--(क) सूवा, एक सदेसडउ, वार सरेसी तुझ्झ । -ढोला०, दू० ३६८ । (ख) सारो सूवा कोकिल बोलत वचन ३ भाला भने की सी पीडा । कसक। उ०--बसिहो बन लखिहौ रसाल । सु दर सवको कान दे वृद्ध तरुन अरु बाल ।-सु दर मुनिन भखिही फल दल मूल। भरत राज करिहै अवधि मोहि ग्र०, भा॰ २, पृ० ७३६ । २ शुक की तरह हरा रग । न कछु अब सूल ।-पद्माकर (शब्द०)। ४ दर्द । पीडा। जैसे-पेट मे सूल । (लश०)। उ० -सूवा पाग केसरिया जामा जापर गजव किनारी।-नट०, पृ० १२३ । क्रि०प्र०--उठना।--मिटना । विशेष--इस शब्द का स्त्रीलिंग प्रयोग भी सूर आदि कवियो मे सूलूल-सञ्ज्ञा पु० [अ०] स्तनाग्र । चूचुक । कुचाग्र [को०] । मिलता है। जैसे-मेरे मन इतनी सूल रही। -सूर सूस'-सञ्ज्ञा पु० [अ०, मि०सं० शिशुमार] मगर की तरह का एक (शब्द०)। वडा जलजतु जो गगा मे बहुत होता है। सूईस । उ०--सिर ५ माला का ऊपरी भाग। माला के ऊपर का फुलरा । उ०-- विनु कवच सहित उतराही । जहँ तहँ सुभट ग्राह जनु जाही। मनि फूल रचित मखतूल की झूल न जाके तूल कोउ । सजि बिनु सिर ते न जात पहिचाने। मनहुँ सूस जल मे उतराने । सोहे उघारि दुकुल वर सूल सबै अरि शूल सोउ । --गोपाल -सबल (शब्द०)। (शब्द०)। विशेप-इसका रंग काला होता है और यह प्राय जल के ऊपर सूलधर--सज्ञा पु० [स०शूलधर] दे० 'शूलधर'। आया करता है, पर किनारे पर नहीं आता। यह घडियाल या सूलधारी-सज्ञा पु० [हिं० सूल+ स० धारिन्] दे० 'शूलधर। मगर के समान जल के बाहर के जतु नहीं पकडता। सूलना--क्रि० स० [हिं० सूल+ना (प्रत्य॰)]। भाले से छेदना। सूस'--मज्ञा पु० [अ०] १ रेशम के कपडो मे लगनेवाला कीट। २ २ पीडित करना। मुलेठी का पेड (को०] । सूलना--क्रि० प्र० भाले से छिदना। चुभना। २ पीडित होना। सूसतौ-वि० [स० स्वस्थ, प्रा० सुस्थ] दे० 'स्वस्थ"। उ०- व्यथित होना । दुखना । उ०--फूलि उठ्यो वृदावन, भूलि सूसतो जी मे वीरा जोगिया। पदमणि आगलि घालइ छइ उठे खग मृग, सूलि उठ्यो उर, विरहागि बगराई है।--देव वाई।--वी० रासो, पृ० ६३१ । (शब्द०)। सूसमार-सज्ञा पु० [स० शिशुमार] सूस । सूलपानिg--सज्ञा पुं० [स० शूलपाणि] दे॰ 'शूलपाणि' । सूसला - सज्ञा पु० [स० शश] खरगोश । सूली'--सज्ञा स्त्री० [स० शृल] १ प्राणदड देने की एक प्राचीन प्रथा जिसमे दडित मनुष्य एक नुकाले लोहे के डडे पर दिया सूसिव--सबा पुं० [अ० सृस] दे० 'सूस' । उ०- फिरत चक्र पावत्तं अनेका। उदरहिं शीश सूसि ढिग एका ।-रघुनाथदास जाता था और उसके ऊपर मुंगरा मारा जाता था। २ फाँसी । (शब्द०) । २ जलीय जतु । मगर । नक्र । उ०-बीच मिला क्रि० प्र०-चढना ।--चढाना।--देना।-पाना ।-मिलना। दरियाव अध को ठाढ कराई। लेन गया वह थाह सूसि लैगा ३ एक प्रकार का नरम लोहा जिसकी छडे वनती है।- घिसियाई । -पलटू० वानी, पृ० ८८ । (लुहार)। सूली-मचा पुं० [देश॰] दक्षिण दिशा । (लश०) । सूसी-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार का धारीदार या चारखानेदार सूली--मशा पुं० [म० शूलिन्] महादेव । शिव । उ०-चदन की वर चौकी पै बैठि जु न्हाई जुन्हाई सी जोति समूली । अवर सूहटा:--संज्ञा पुं० [हिं० सुअटा, सुवटा, सूवटा] उ० --मुक्तिकरी नानक के धर अवर पूजि वरवर देव दिगबर सूली।--देव (शब्द०)। गुरू, रचक रामानद । ना पिंजर ना सूहटा, ना बाणी ना बद । सूवनार-नि० अ० [म० स्रवण] बहना । प्रवाहित होना । उ०- --प्राण, पृ० १६६ । कहा करो अति सूर्व नयना उमगि चलत पग पानी। सूर सूहर--सज्ञा पु० [स० शूकर, प्रा० सूअर ( = मूहर)] शूकर । वराह । सुमेर समाइ कहाँ धौ बुधिवासना पुरानी।—सूर (शब्द॰) । उ०-यह उल्लेख है कि उन्होने सूहर, हिरन, बकरे तथा निविद सूवना--सशा पु० [स० शुक] ३० सूया। उ०-सेमर केरा सूचना मोर का मास खाया था।--प्रा० भा० ५०, पृ० १९८ । सिहुले वैठा जाय । चोच चहोरे सिर धुनै यह वाही को भाव। सूहा'--नचा पु० [हिं० सोहना] १ एक प्रकार का लाल रग । २. -कवीर (शब्द०)। सपूर्ण जाति का एक सकर राग । हि० श० १०-५४ कपडा।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४४१
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