पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सुत' ६०७४ सुतल सुत-वि०१ पार्थिव । २ उत्पन्न । जात । ३ उडेला हुआ (को०) । सुतर-मज्ञा पुं॰ [फा० शुतुर] दे० 'शुतुर' । उ०--सबके आगे सुतर ४ निचोडकर निकाला हुआ (को॰) । सवार अपार शृगार वनाए। धरे जमूरक तिन पीठिन पर सुता-सञ्ज्ञा पु० [२] बीस की सस्या । कोडी। सहित निमान सुहाये ।-रघुराज (शब्द०)। (ख) मरि चले मुनर रथ एक राह । बीसल तड़ाग दिय दारिगाह । -पृ० सुतकारी - सज्ञा स्त्री॰ [देश०] स्त्रियो के पहनने की जूती । रा०,११४२० । सुतजा-सज्ञा स्त्री० [स०] पौत्री । पोती [को॰] । सुतर'--नि० [स०] सुख से तैरने या पार करने योग्य | जो सुख या सुतजीवक--सज्ञा पु० [स०] पुत्रजीव नाम का वृक्ष । पितिजिया। आराम से पार किया जा सके । (नदी आदि) । विशेष दे० 'पुत्रजीब'। सुतरण-वि० [मं०] मरलता से पार करने योग्य । सुतडा--सज्ञा पु० [हिं० सूत+डा (प्रत्य॰)] दे० 'सुतरा' । सुतरनाल--सज्ञा स्त्री॰ [फा० शुतुरनाल] दे० 'शुतरनाल'। उ०- सुतत्व--सज्ञा पुं० [स०] सुत का भाव या धर्म। तिमि घरनाल और करनाल सुतग्नाल जजाल । गुग्गुराव सुतदा'-वि० स्त्री० [सं०] सुत या पुत्र देनेवाली। रहँकलं भले तह लागे विपुल बयाल ।--रघुराज (शब्द०)। सुतदा'-सज्ञा स्त्री० दे० 'पुत्रदा' (लता)। सुतरसवार-मज्ञा पुं० [फा० शुतुरसवार] ऊंट सवार । सांडनी सवार। सुतनय--वि० [सं०] उत्तम सतानवाला । सुतरा-अव्य० [सं० सुतराम] १ प्रत । इसलिये। निदान । २ सुतना-सज्ञा पुं० [?] दे० 'सूथन'। अपितु । और भी। किं बहुना। ३ अगत्या। लाचार । ४ अत्यत । ५ अवश्य । सुतना-क्रि० अ० [म० शयन] दे० 'सूतना' । सुतनिर्विशेष--वि० [म०] पुत्रवत् । पुत्रकल्प । २. जिसका पुन के सुतरा--मज्ञा पुं० [हिं० सूत + रा (प्रत्य॰)] नाजून के ऊपर या बगल समान पालन पोपण किया गया हो (को०] । के चमडे का सूत की तरह महीन छोटा अण । सुतत्तु-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ एक गधर्व का नाम । २ उग्रसेन के एक सुतरी@-शा स्त्री० [हिं० तुरही] तुरही। तूर। उ०-नौवत पुत्र का नाम । ३ एक बदर का नाम । झरत द्वार द्वारन मे शख सुतरि सहनाई । औरह विविध मनोहर सुतनु'–वि. १ सुदर शरीरवाला। २ अत्यत सुकुमार । बहुत ही सुतरी–सता पुं० [देश॰ या फा० शुतुर, हिं० सुतर (= ऊँट)] वह बैल बाजे बजत मधुर सुर छाई ।-रघुराज (शब्द०)। क्षीण । पतला (को०) । ३ कृशकाय । दुर्वलशरीर (को॰) । जिसका ऊँट का सा रग हो। (यह मध्यम श्रेणी का मजबूत सुतनु-सञ्ज्ञा स्त्री० १ सुदर शरीरवाली स्त्री । कृशागी । २ आहुक की और तेज माना जाता है)। पुत्री और अक्रूर की पत्नी का नाम । ३ उग्रसेन को एक कन्या का नाम । ४ वसुदेव की एक उपपत्नी का नाम । सुतरी - संज्ञा स्त्री० [देश॰] वह लकडी जो पाई मे सांथी अलग करने सुतनुज--वि० [स०] दे० 'सुतनय' । के लिये साथी के दोनो तरफ लगी रहती है। इसे जुलाहो की परिभाषा मे 'सुतरी' कहते है । सुतनुता-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] १ सुतनु होने का भाव । २. शरीर की सुतरी"--सञ्ज्ञा स्त्री० [म० सूत्रकार] दे० 'मुतारी' । सुदरता। सुतनू-सज्ञा सी० [सं०] दे० 'सुतनु' [को०] । सुतरी --सज्ञा सी० [हिं० सूत + री (प्रत्य॰)] । दे० 'सुतली' । सुतप'--वि० [स०] सोम पान करनेवाला । सुतरेशाही--संज्ञा पु० [सुथरा शाह ( = एक सत का नाम)] दे० 'सुथरे शाही। सुतप-सज्ञा पुं० [सं० सुतपस्] तप । तपश्चर्या (को०] । सुतपस्वी--वि० [स० सुतपस्विन्] अत्यत तपस्या करनेवाला। बहुत सुतारी--सज्ञा स्त्री० [म०] एक लता । सौनया । घघ बेल । वेदाल । विशेष दे० 'देवदाली'। अच्छा और वडा तपस्वी। सुतर्दन-सज्ञा पु० [म० सुनईन] कोकिल पक्षी । कोयल । सुतपा'--सज्ञा पुं० [स० सुतपस्] १ सूर्य । २ एक मुनि का नाम। सुतर्मा-वि० [सं० सुतर्मन्] तरण करने या पार करने योग्य [फो०] । ३ रोच्य मनु के एक पुत्र का नाम । ४ विष्णु। ५ कठोर तपस्या । दीर्घ साधना (को०)। सुतल-सज्ञा पुं० [स०] १ मात पाताल लोको मे से एक (किसी पुराण के मत से दूसरा चौर किसी के मत से छठा) लोक । सुतपा--वि० १ कठोर तपस्या की साधना करनेवाला वानप्रस्थाश्रमी २ जो अतिशय तापयुक्त हो (को०] । विशेष-भागवत के अनुसार इस पाताल लोक के स्वामी विरोचन के पुत्र बलि हैं । देवीभागवत मे लिखा है कि विष्णु भगवान् ने सुतपादिका-सज्ञा स्त्री० [स०] छोटी जाति की एक प्रकार की हसपदी वलि को पाताल भेजकर ससार की सारी समदा दी थी और नाम की लता। स्वय उसके द्वार पर पहरा देते थे। एक बार रावण ने इसमे सुतपेय-मज्ञा पुं॰ [स०] यज्ञ मे सोम पीने की क्रिया। सोमपान । प्रवेश करना चाहा था, पर विष्णु भगवान् ने उसे अपने पैर के सुतयाग-सबा पु० [स०] वह यज्ञ जो पुत्र की इच्छा से किया जाता है। अंगूठे से हजारो योजन दूर फेक दिया। विशेष दे० 'लोक"। पुनकाम यज्ञ । पुत्रेष्टि यज्ञ । २ किसी बडे भवन की नीव (को॰) ।