पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३५३

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सुठि ६०७३ सुत' १०८६। २ अतिशय । अत्यत । बहुत। उ०-सुनि सुठि गच काच सुढार । चित्र विचित्र चहूँ दिसि परदा फटिक सहमेउ राजकुमारू । पाके छत जनु लाग अंगारू ।--मानस, पगार ।--तुलसी (शब्द॰) । २ सु दर । सुडौल । उ० -हिय २।१६१। मनिहार सुढार चार ह्य सहित सुरथ चढि । निसित धार तर- वार धरि जिय जय विचार मढि ।--गिरधर (शब्द॰) । सुठिलर ----अव्य० [म० मुष्ठु] पूरा पूरा। बिलकुल । उ०--हिए जो (ख) दीरघ मोल कह्यो व्यापारी रहे ठगे से कौतुकहार । कर आखर तुम लिखे से सुठि लीन्ह परान ।--जायसी (शब्द०) । ऊपर लै राखि रहे हरि देत न मुक्ता परम सुढार।-सूर सुठोना@+--वि० [हिं०]दे० 'सुठि' । उ०~-रसखानि निहारि सकै जु (शब्द०)। (ग) लखि विदुरी पिय भाल भाल तुअ खौरि सम्हारि कै को तिय है वह रूप सुठोनो।--रसखान (शब्द॰) । निहारी। लखि तुअ जूरा उनकी बेनी गुही सुढारी ।-- सुडकना-क्रि० स० [अनु॰] १ किसी वस्तु जैसे, नस्य, जल आदि अविकादत्त (शब्द०)। को नाक से भीतर खीचना। २ नाक की रेट को बाहर छिनकने के बजाय ऊपर खीच लेना । जैसे--नाक सुडक जाना । सुढारु पु-वि० [हिं० सु+ ढलना] दे० 'सुढार' । उ०-घर बारन ३ किसी तरल पदार्थ को पी जाना। असवार चारु वखतर सुढारु तन । सग लसत चतुरग करन रनरग समुद मन ।--गिरधर (शब्द॰) । सुडसुड-सज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] नली आदि द्वारा जल मे वायु के घुमने सुगड़िया-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सोना + घडना ( = गढना)] सुनार । से होनेवाली आवाज । गुडगुड । (डि.)। सुडसुडाना--क्रि० स० [अनु॰] सुडसु शब्द उत्पन्न करना । जैसे, सुएना+-क्रि० स० [हिं० सुनना] श्रवण करना। दे० 'सुनना' । नाक सुडसुडाना । हुक्का सुडसुडाना। उ.--महिमा नांव प्रताप की सुणो सरवरण चित्त लाइ। राम- सुडीन, सुडीनक--सज्ञा पु० [म०] पक्षियो के उडने का एक ढग या चरण रसना रटी भ्रम सकल झड जाइ । प्रकार। सुतगम-सज्ञा पुं॰ [स० सुतङगम] पुत्रवान् पिता (को०] । सुडकना-क्रि० स० [अनु॰] दे॰ 'सुडकना' । सुतत--वि० [म० स्वतन्त्र , प्रा० सु+तत] स्वतन। स्वाधीन । सुडौल-वि० [स० सु + हिं० डोल] सुदर डौल या प्राकार का। वधनहीन । स्वच्छद । उ०-वधुश्रा को जैसे लखत कोई मनुप जिसकी वनावट बहुत अच्छी हो। जिसके सब अग ठीक और सुतत।-लक्ष्मणसिंह (शब्द॰) । बरावर हो । सुदर। सुततर--वि० [स० स्वतन्त्र | दे० 'स्वतत्र'। सुड्डा-सज्ञा पुं॰ [देश॰] धोती की वह लपेट जिसमे रुपया पैसा रखते सुततु - सज्ञा पु० [स० सुतन्तु] १ शिव । विष्णु । ३ एक दानव है । अटी। अाँट। सुड्डी-मज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'सुड्ढा' । सुतत्र'- वि० [स० स्वतन्त्र] दे० 'स्वतत्र' । उ०-(क) महावष्टि सुढग-सज्ञा पु० [स० सु+ हिं० ढग] १ अच्छा ढग । अच्छी रीति । चलि फटि कियारी। जिमि सुतन्त्र भए बिगरहिं नारी । ---- २ सुघडता । सुदरता । तुलसी (शब्द॰) । (ख) या ब्रज मै हौ बमत ही हेली आइ सुढग'-वि० १ अच्छे रग का। अच्छी चाल या स्वभाव का । सुतत्र । हेरन मै कछु पढि दियौ मोहन मोहन मन ।--रतन- २. उत्तम रीति या ढग से युक्त । उ०-मिरदग औ मुहचग हजारा (शब्द०)। चग सुढग सग बजावही ।--गिरधर (शब्द॰) । ३ सुदर। सुत । --क्रि० वि० स्वतन्त्रतापूर्वक। स्वच्छदतापूर्वक । उ०--विधि लिख्यो शोधि सुतत्र । जनु जपाजप के सुघड। उ०-अग उतग सुढग अति रग देखि के दग। मन।--केशव सह उमग अरि भग कर जग मग मातग ।--गिरधर (शब्द०)। (शब्द०)। सुतंत्र'-वि० [सं० सुतन्त्र] १ जिसका तन, सेना आदि ठीक हो । जिसके पास अच्छा सैन्य बल हो। २ तन का ज्ञाता । सिद्धातो का सुदर'-वि० [म० सु+ हि० ढलना] प्रसन्न और दयालु । जिसकी जानकार। अनुकपा हो। अनुकूल । उ०--(क) तुलसी सराहै भाग कौसिक जनक जू के विधि के सुढर होत सुढर सुहाय सुतत्रि-सशा के पु० [स० सुतन्त्रि, सुतन्त्री] १ वह जो तार के बाजे (वीणा आदि) बजाने मे प्रवीण हो । वह जो तन वाद्य अच्छी तुलसी (शब्द॰) । (ख) तुलसी सबै सराहत भूपहि, भले पैत तरह वजाता हो । २ वह जो कोई वाजा अच्छी तरह बजाता पामे सुदर ढरे री।--तुलसी (शब्द०)। हो। ३ वह जिसका स्वर मधुर और लय ताल से युक्त हो। सुदर'--वि० [हिं० सुघढ] सु दर । सुडौल । उ०--भौहन चढाइ कोई सुतभर - सज्ञा पु० [स० सुतम्भर] एक प्राचीन वैदिक ऋषि का नाम । कहूँ चित्त चढयो चढी सुढर सिढोनि मूढ चढी ये सुहाती जे । सुत'--सज्ञा पु० [स०] १ पुत्र । प्रात्मज । बेटा। लडका । २ दसवे -देव (शब्द०)। मनु का पुत्र । ३ जन्मकुडली मे लग्न से पाँचवां घर । ४ नरेश । सुढार@f-वि० [स० सु + हिं०, ढलना] [वि॰ स्त्री० सुढारी] १ भूपति । राजा (को०)। ५ निचोडा हुआ सोमरस (को०) । सुदर ढला या बना हुया । उ०-गृह गृह रचे हिडोलना महि ६ सोम याग (को०) १७ सोमबलि (को॰) । हि० श० १०-४३ का नाम।