पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३४९

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सुचिः सुचरित ६०६६ सुधित सुचरित'-वि० १ शुद्ध चरित्नवाला । २ अच्छी तरह किया हुआ। मदि मै साधु सुचाली। उर अस आनतं कोटि कुचाली। -- मानस, २०६०। सुचरिता -सज्ञा स्त्री॰ [स०] दे॰ 'सुवरित्रा' । सुचरित्र-वि०, सज्ञा पु० [सं०] दे० 'सुचरित' । सुचाली' सज्ञा स्त्री० [हिं०] पृथ्वी। सुचाव --सचा पु० [हिं० सुचा] सुचाने की क्रिया या भाव । सोचाना। सुचरित्रा- --सञ्ज्ञा सी० [स०] १ पतिपरायणा स्त्री। माध्वी। सती । २ वानी । धनियाँ (को०)। सुझाव। सुचिंतन-सज्ञा पु० [स० सुचिन्तन] गभीर चिंतन या सोच- सुचर्मा:-- 1--सञ्ज्ञा पु० [स० सुचर्मन्] भोजपत्र । विचार [को०)। सुचर्मा-वि० मु दर चर्म, ढाल या छाल मे युक्त [को०] । सुचितित-वि० [स० सुचिन्तित] खूब सोचा विचारा हुआ। भली सुचा'--वि० [स० शुचि] दे० 'शुचि' । उ०-सोल सुचा ध्यान धोवती भांति सोचा हुआ। उ०--सास्त्र सुचितित पुनि पुनि देखिय।- काया कलस प्रेम जल ।-दादू (शब्द०)। मानस, ३॥३१॥ सुचा'--नज्ञा स्त्री॰ [स० सूचना] ज्ञान । चेतना। सुध । उ०--रही सुर्चितितार्थ--सञ्ज्ञा पु० [स० सुचिन्तितार्थ] बौद्धो के अनुमार मार के जो मुइ नागिनि जस तुचा । जिउ पाएँ तन के भइ सुचा।- पुत्र का नाम। जायसी (शब्द०)। सुचि'-वि० [स० शुचि] दे० 'श्चि'। उ०--(क) सहज सचिम्कन स्याम रुचि सुचि सुगध सुकुमार । गनत न मन पथ अपथ लखि सुचाना--क्रि० स० [हिं० सोचना का प्रेर० रूप] १ किसी को विथुरे सुथरे वार ।-विहारी (शब्द॰) । (ख) तुलसी कहत सोचने या समझने मे प्रवृत्त करना । सोचने का काम दूसरे से विचारि गुरु राम सरिस नहिं पान । जासु त्रिया सुचि होत कराना। २ दिखलाना। ३ किसी का ध्यान किसी बात की रुचि विसद विवेक अमान ।- -तुलसी (शब्द०)। अोर प्राकृप्ट कराना। २--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० सूची] सूई । उ०--सुचि वेध ते नाको सकीन सुचार-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० सु + हिं० चाल] सुचाल । अच्छी चाल । तहाँ परतीत को टाँडो लदावनो हे।--हरिश्चद्र (शब्द०)। उ०-थाई भाव थिरु है विभाव अनुभावनि सो सातुकनि सतत सुचिकरमा-वि० [स० शुचिकर्मन्] दे० 'शुचिकर्मा' । उ०--चलेउ है सचरि सुचार है।—सूर (शब्द०)। सुभेस नरेस छत्रधरमा सुचिकरमा । बिसुकरमा कृत सुरथ वैठि सुचार-वि० [स० सुचारु] सुचारु । सु दर । मनोहर । उ० - अजहूँ रव कचन वरमा । -गोपाल (शब्द०)। लौ राजत नीरधि तट करत साख्य विस्तार | साख्यायन से सुचित'--वि० [स० सुचित्त ] १ जो (किसी काम से) निवृत्त हो बहुत महामुनि सेवत चरण सुचार।—सूर (शब्द०)। गया हो । उ०- (क) ऐसी आज्ञा कर यमराजजब सुचित भए, सुचारा--नशा स्त्री॰ [स०] यदुवशी श्वफल्क की पुत्री जो अक्रूर की तब नारद मुनि ने फिर उनमे पूछा कि किस कारण से तुम इहाँ सास थी। से भाग गए सो मुझसे कहो।--सदल मिश्र (शब्द॰) । (ख) मुचारु-सञ्ज्ञा पु० [स०] १ रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण का अतिथि साधु यति सवनि खवाई। मै हूँ सुचित भई पुनि खाई।-रघुराज ४ बाहु एक पुत्र । २ विश्वक्रसेन का पुन । ३ प्रतीर्थ । (शब्द०)। २ निश्चित । चितारहित । वेफिक्र । ३ धान्य धन से युक्त । सपन्न । सुखी। ४ एकाग्र । का पुत्र । स्थिर । सावधान । उ० (क) सुचित सुनहु हरि सुजस कह सुचारु-वि० अत्यत सु दर या सुरुपवान् । अतिशय मनोहर । बहुत बहुरि भई जो वात ।-गिरिधरदास (शब्द०)। (ख) इहि खूबसूरत । जैसे,--वहाँ के सव कार्य बहुत ही सुचारु रूप से विधान एकादशी कर सुचित चित होई ।-गिरिधरदास सपन्न हो गए। (शब्द०)। यौ०-सुचारुदशना = सु दर दांतोवाली नारी । सुचारुरूप = सुचित'-वि० [स० शुचि] पवित्र । शुद्ध (क्व०)। स्वरूपवान । खूबसूरत । सुचारुस्वन = सुरीले कठवाला। सुरीला। सुचितई -सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सुचित + ई (प्रत्य॰)] १ सुचित होने का भाव । निश्चितता। वेफिक्री । उ०—(क) इमि देव दुदुभी सुचारुता -सशा सी० [स०] सुचारु होने का भाव । सुचारुत्व अत्यत हरपि वरसत फूल सुफल मनोरथ भो सुख सुचितई है । --तुलसी (शब्द॰) । (ख) सुकवि सुचितई पैहै सब है हैं सुचारुत्व-मज्ञा पुं० [म०] दे॰ 'सुचारुता' । कवै मरन |--अबिकादत्त (शब्द०)। २ एकाग्रता । स्थिरता। सुचाल-सज्ञा स्त्री० [सं० सु+हिं० चाल] उत्तम आचरण । अच्छी शाति । ३ छुट्टी। फुर्मत । उ० - ब्रजवासिनु को उचित चाल । सदाचार। उ०--कह गिरिधर कविराय वडन की धनु, जो धनु रुचित न कोई। सुचित न अायो, सुचितई कही याही वानी। चलिए चाल सुचाल राखिए अपनो पानी।-- कहाँ तै होइ ।-बिहारी र०, दो० ५६१ । गिरिधर (शब्द०)। सुचिता-सज्ञा स्त्री॰ [स० शुचिता] शुद्धता । पवित्रता। शुचिता। सुचालो'--वि० [म० सु+ हिं० चाल+ई (प्रत्य॰)] जिसके आचरण उ०-मकरदु जिनको सभु सिर सुचिता अवधि सुर वरनई।- उत्तम हो। अच्छे चाल चलनवाला। सदाचारी। उ०-मातु मानस १३२४ । सुदरता [को०] ।