सामामिका ५०७६ सामुद्रनिप्कूट मामामिक'--वि० [२०] १ समास मे सबध रखनेवाला। समास सामोचीन्य संज्ञा पुं॰ [स०] उपयुक्तता । ममीचीनता [को०] । ना। २ मामूहिक । समुच्चयात्मक (को०)। ३ सहत । सक्षिप्त सामोप-वि० [स० समीप या सामीप्य] दे० 'समीप' । उ० -- कहा (को०) । ८ मित्रिन (को०)। धरम उपदेश है, मूढन के सामीप।-दीन० ग्र०, पृ०६४ । मामासिक'-- सजा पु० ममाम । सामीप्य-मज्ञा पु० [सं०] १ समीप होने का भाव। निकटता। २ सामि' मा की० [स०] निंदा। शिकायत । एक प्रकार का मुक्ति जिसमे मुक्त जीव का भगवान् के ममीप पहुँच जाना माना जाता है। उ०-निनि मारग को जो कोई सामि -वि० १ जो पूरा न हुआ हो । जो अपूर्ण या आशिक रूप मे घ्यावे, सो सामीप्य मुक्ति वैकुठ को पावै ।- कबीर सा०, हो । अधूरा । २ दोपावह। निंदनीय । ३ शीघ्रतापूर्वक (को॰] । पृ० ६०५। ३ पडोस । ४ पडोमी । प्रतिवेशी। सामिामा पु० [म० स्वामि] स्वामी। पति । उ०-प्रावहु सामि सामोरकुर-सज्ञा पु० [स० समोर] समीर । पवन । (डि०) । उ०- मुलच्छना जीव वर्म तुम्ह नाउँ । - जायसो ग्र०, पृ० १०१ । चरस करत लिपमण चमर, अरस अगर, सामोर। इम सिय सामिक - AII पुं० [म०] वृक्ष । पेड [को०] । जुत जन मछ उर, वसो सदा रघुवीर ।-रघु० रु०, पृ० १। सामिकृत-वि० [म०] आशिक या अधूरा किया हुअा। (कार्य आदि) सामीर - वि० दे० 'सामीयं' । जो अशत कृत हो [को॰] । सामोरए-वि० [स०] दे० 'सामीर्य'। सामिग्रो-मज्ञा सी० [स० मामग्री] दे० 'सामग्री' । सामीयं-वि० [स०] ममीर सवधी । समीर का । हवा का । मामित्र+-सज्ञा पु० [स० स्वामिन्] दे० 'स्वामी' । उ०-पुण्ण कहानी पिन कहहु मामिल सुनो सुहेण ।-कोति०, पृ०१६। सामुमि-सज्ञा स्त्री० [स० सम्वुद्धि] २० 'समझ' । उ०—प्रभु पद सामित-वि० [स०] गेहं के आटे के साथ मिश्रित (को०] । प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहिं कथा सुनि लागिहि फीकी । -मानस, १।६। सामित - परा पु० [२० म्वामित्व दे० 'स्वामित्व' । सामित्त -मरा पु० [म० साम्यत्व] ३० 'समता' । उ०--घटि सामुदायिक' वि० [स०] समुदाय सवधी। समुदाय का । सामूहिक । वढि पच दिमा फिरि आयो । कवि मुप तो सामित्त करायो। सामुदायिक'-सज्ञा पु० बालक के जन्म समय के नक्षत्र से आगे के अठारह नक्षत्र जो फलित ज्योतिष के अनुसार अणुभ माने जाते -पृ० रा०, २।४०७ ॥ हैं और सामित्य'--मा पु० [स०] समिति का भाव या धर्भ । जिनमे किसी प्रकार का शुभ कार्य करने का निषेध है। मामित्य:--वि० ममिति का । ममिति सबधी । सामिधेन--वि० [स०] यज्ञाग्नि प्रज्वलित करने से सबधित [को०] । सामुद्ग-सज्ञा पु० [स०] १ वह सधि या जोड जिसमे कुछ गहरापन मामिधेनी-संज्ञा स्त्री० [म.] एक प्रकार का ऋक् मत्र जिसका पाठ हो। खात या गर्तयुक्त सधि । जैसे,—काँख या कूल्हे की स धि । २ भोजन के पहले और बाद मे ली जानेवाली प्रीपधि (को०] । होम की अग्नि प्रज्वलित करने के समय (प्रयवा सामिधा डालते समय) किया जाता है । २ समिधा (को०)। सामुद्र-सञ्ज्ञा पु० [म०] १ समुद्र से निकला हुआ नमक । वह सामिधेन्य-नज्ञा पु० [स०] दे० 'सामिधेनी' । नमक जो समुद्र के खारे पानी से निकाला जाता है। २ समुद्र- सामिपीत-वि० [सं०] प्राधा पिया हुया । अर्धपोत (को०] । फेन । ३ वह व्यापारी जो समुद्र के द्वारा दूसरे देशो मे जाकर व्यापार करता हो। ४ नारियल। ५ जहाजी। नाविक । सामिभुक्त-वि० [सं०] अाधा खाया हुअा [को०] । मांझी (को०)। ६ एक प्रकार का मच्छड । सुश्रुत के अनुसार सामियाना-नशा पु० [फा० शामियाना] दे॰ 'शामियाना' । सामुद्र, परिमडल, हस्तिनाशक, कृष्ण और पर्वतीय इन पाँच मामिल-नि० [फा० शामिल] दे० 'शामिल। मच्छडो मे से एक (को०)। ७ करण और वेश्या सामिप-वि० [म०] आमिप महित । माम मद्य आदि के सहित । सतति । एक जातिविशेष (को०)। ८ समुद्र की एक कन्या जो निगमिर का उलटा । जैसे,-मामिप भोजन, सामिप श्राद्ध । प्राचीनवहिप् को पत्नी थी (को०) । ६ अाश्विन मास को वर्पा- मामिप श्राद्ध-मा पु० म०] पितरो आदि के उद्देश्य से किया जाने विशेप का जल (को०)। १० शरीर मे होनेवाले चिह्न या वाता वह धाड जिनमे मास, मद्य आदि का व्यवहार होता है। लक्षण आदि जिन्हे देखकर शुभाशुभ का विचार किया जाता जंगे,-मामाप्टका आदि सामिप श्राद्ध हैं। है । विशेप ० 'सामुद्रिक' । सामिपस्थित-वि० [म०] आधा किया हुग्रा । अर्धकृत किो०) । सामुद्र-वि० १ समुद्र से उत्पन्न । समुद्र से निकला था। २ समुद्र सामी-सरा पु० [सं० स्वामिन्] दे० 'स्वामी' । सवधी । समुद्र का। सामो-ना पी० [देश॰] दे० 'गामी' । सामुद्रक -संज्ञा पुं० [म०] १ ममुद्री नमक । २ सामुद्रिक विद्या। सामची-मादी० [म०] १ वदना । प्रार्थना । स्तुति । २ नम्रता। दे० 'सामुद्र' । मौजन्य । शिप्टना (कोगे। सामुद्रनिष्कुट-मज्ञा पु० [म०] समुद्रनट वासो [को०] । मामोचीकरणोय-वि. [३०] शिष्टतापूर्वक नमन करने योग्य । जो सामुद्रनिप्कूट-सज्ञा पुं० [०] १ महाभारत के अनुार एक प्राचीन नग्नतापूर्वक प्रणाम करने योग्य हो (गो०] । जनपद का नाम । २ इस जनपद का निवासी। . उत्पन्न
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२५६
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