सामक' ५०७२ सामन्य सामक'--वि० सामवेद सबधी । सामवेदीय (को॰] । सामकपुख-सशा पु० [म० सामकपुर] सरफोका घास । सामकल--सज्ञा पु० [म०] मृदु स्वर या मैत्रीपूर्ण वार्ता [को०] । सामकारो--सज्ञा पु० [म० सामकारिन्] १ वह जो मीठे वचन कह कर किसी को ढाढस देता हो। सात्वना देनेवाला। २ एक प्रकार का सामगान । सामग'--सज्ञा पु० [म०] [सी० सामगी] १ वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो । २ विष्णु का एक नाम । सामग--वि० सामगायक । उ०-गर्जना के साथ वेदो को गानेवाले सामग ऋपि समाज ने राजसूय यज्ञ करवाया तो भी यज्ञपूर्ति का शख नही बजा।-राम० धर्म०, पृ० २८० । सामगर्भ-सञ्ज्ञा पुं० [स०] विष्णु । सामगान--सज्ञा पु० [म०[ १ एक प्रकार का साम। २ वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो। सामगानप्रिय--सज्ञा पु० [म०] १ शिव । २ मगल ग्रह किो०] । सामगाय -सज्ञा पु० [सं०] १ वह जो सामगान का अच्छा ज्ञाता हो । २ सामगान। सामगायक--सज्ञा पु० [म०] सामवेदी ब्राह्मण [को०] । सामगायन -सञ्ज्ञा पु० [०] १ विष्णु २. साम का गान (को॰] । सामगायी-वि० [स० सामगायिन्] साम गानेवाला । सामंगायक (को०)। सामग्री-सञ्ज्ञा स्त्री० [म०] १ वे पदार्थ जिनका किसी विशेष कार्य मे उपयोग होता है। जैसे,-यज्ञ की सामग्री। २ असवाव । सामान। ३ अावश्यक द्रव्य । जरूरी चीज। ४ किसी कार्य की पूर्ति के लिये अावश्यक वस्तु । सावन । सामग्य - सशा पु० [सं०] १ अस्त्र शस्त्र। हथियार । २ क्षेम । कुशल (को०) । ३ समग्रता । सपूर्णता (को०)। ४ समुदायत्व । समूहबद्धता (को०)। ५ भाडार । खजाना । सामज'-वि० [स०] १ जो सामवेद से उत्पन्न हुअा हो। २ साम नीति के कारण उत्पन्न । सामज-सज्ञा पु० हाथी, जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के सामगान से मानी जाती है। सामजात--वि० [म०] दे० 'सामज' [को०] । सामत'--सज्ञा पु० [सं० सामन्त] दे० 'सामत'। सामत-सज्ञा सी० [अ० शामत] ' 'शामत' । सामता'-सज्ञा स्त्री॰ [स० समता] समत्व । साम्य। समता। उ०-- दरिया साध और स्वाग का, क्रोड कोस या बीच। नाम रचा सो सामता स्वाग काल की कीच।-दरिया० बानी, पृ० ३३ । सामता--सज्ञा स्त्री० [स०] दे० 'सामत्व' । सामति-मज्ञा स्त्री॰ [म० सामर्थ्य, प्रा० सामच्छ, सामत्थ] दे० 'सामर्थ्य' । उ०--जा घट जैसी सामति देपो ता घट तैसा मेलो।-रामानद०, पृ०१६ । सामनय-सज्ञा पु० [म०] हर्रे, सोठ और गिलोय इन तीनो का समूह । सामत्व-सज्ञा पुं० [स०] साम का भाव या धर्म । सामता । सामघ----मशा पुं० [म० मम्बन्धी, हिं० समधी] विवाह के अवसर पर समधियो के परस्पर मिलने की एक रम्म । उ०- (क)सामध देखि देव अनुगगे।--(स) पहिलहिं पवरि मु सामध मा सुखदायक । इत विधि उत हिमवान मरिस मत्र लायक ।-तुलसी ग्र०, पृ० ४० । सामव्वनि-मा पुं० [म.] मामवेद की ध्वनि । माम का गान (को०] । सामन'--वि० [सं०] शातिप्रिय । अनुद्विग्न । स्वस्थ । माम द्वारा उप- चार करने योग्य [को०)। सामन--सशा पु० [स० श्रावण, हिं० सावन] ० 'सावन'। उ०--सखी री सामन दूल्है पायौ।--पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० १४८ । सामना--मज्ञा पुं० [हिं० सामने, पु० हिं० मम्मुह, मामुहे] १ किसी के समक्ष होने की श्रिया या भाव। जमे,-जब हमारा उनका मामना होगा, तव हम उनसे बातें करेंगे। मुहा०--सामने आना = अागे पाना। समुरा पाना । जैसे,-- अब तो वह कभी हमारे सामने ही नहीं पाता। मामने का = (१) जो समक्ष हो। (२) जो अपने देखने मे हुया हो । जो अपनी उपस्थिति मे हुआ हो। जमे,--(क) यह तो हमारे सामने का लडका है। (ख) यह तो हमारे सामने की बात है। मामने करना=किसी के समक्ष उपस्थित करना । आगे लाना। सामने की चोट = मोधी चोट । सामने से होनेवाली घातक मार । सामने की बात = अांखो देखो वात । वह वात जो अपनी उपस्थिति में हुई हो। सामने पडना = (१) दृष्टि के आगे पाना। (२) वाधा खडी करना । मार्ग रोकना । सामने से उठ जाना = देखते देखते अस्तित्व समाप्त हो जाना । सामने होना = (१) (स्त्रियो का) परदा न करके समक्ष आना। जैसे,--उनके घर की स्त्रियां किसी के सामने नहीं होती। २ भेट । मुलाकात । ३ किमी पदार्थ का अगला की ओर का हिस्मा। आगा। जैसे,--उस मकान का सामना तालाब की ओर पडता है। ४ किसी के विरुद्ध या विपक्ष में खडे होने की क्रिया या भाव । मुकावला। जैसे,—वह किसी वात मे आपका सामना नही कर सकता। ५ भिडत । मुठभेड । लडाई। जैसे,—युद्धक्षेत्र मे दोनो दलो का सामना हुआ। ६ उद्दडता। गुस्ताखी । ढिठाई। मुहा०-सामना करना = धृष्टता करना। सामने होकर जवाब देना । गुस्ताखी करना। जैसे,-जरा सा लडाका, अभी से सबका सामना करता है। सामनी-सज्ञा क्षी० [सं०] पशुप्रो को बांधने की रज्जु पगहा [को०] । सामने-क्रि० वि० [म० सम्मुख, प्रा० सम्महे, पु०हिं० सामुहें] १ समुख । समक्ष । आगे । २ उपस्थिति मे । मौजूदगी मे । जैसे- तुम्हारे सामने उन्हे कौन पूछेगा । ३ सीधे । प्रागे । जैसे,- सामने जाने पर एक मोड मिलेगा। ४, मुकाबले मे। विरुद्ध । सामन्य'--सज्ञा पु० [सं०] १ सामवेद का ज्ञाता ब्राह्मण। २ वह जो सामवेद का कुशलतापूर्वक गायन करे [को॰] । सामन्य- वि० १ अनुकूल । जो विरुद्ध न हो । २ जो सामगायन मे प्रवीण हो (को०] । भाग। आगे
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२५२
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