पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२३४

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सागरक ५०५४ सागूदाना सागरक--मज्ञा पु० [म.] एक जनपद या नगर [को०] । सागरानुकूल--वि० [सं०] ममुद्र के किनारे पर बसा हुगा किो०] । सागरकश--वि० [फा० सागरक्श] शराब पीनेवाला । मद्यप (को०] । सागरापाग- वि० [न० मागरापाडग] ममुद्र से घिरा हुआ । जैसे,- सागरगनीर-मञ्च पु० [म. सागरगम्भीर] समुद्र की तरह गभीर पृश्वी किो०] । समाधि [को०] . सागरालय-पज्ञा पु० [सं०] १ सागर में रहनेवाले, वरण । २ सागरग, मागरगम-वि. [भ०] समुद्र यात्रा करनेवाला। ममुद्र मे वह जो समुद्र मे रहता हो । ममद्रवासी [को०] । जानेवाला [को०)। सागरावत--वि० [म.] समुद्र की खाडी [को०] । सागरगमा, सागरगा-सशा स्त्री० [स०] १ नदी। दरिया । २ सागरेश्वर-सज्ञा पु० [म०] एक तीर्थ का नाम । गगा नदी (को०)। सागरोत्थ-मज्ञा पु० [म०] समुद्री लवण । सागरगामिनी-सज्ञा स्त्री॰ [म०] नदी । सरिता [को०] । सागरोद्गार-सज्ञा पु० [स०] समुद्र का उमडना । ज्वार [को॰] । सागरगामी-वि॰ [म. सागरगामिन्] [स्त्री० सागरगामिनी] दे० 'सागरग' [को०] । सागरोपम-सज्ञा पु० [म०] १ वह जो समुद्र की तरह उदात्त, अतलस्पर्श और गभीर हो। २ एक बहुत बडी संख्या सागरगासुत-मज्ञा पु० [स०] गगा के पुत्र--भीष्म [को०] । (जैन)। सागरज-सज्ञा पुं० [स०] समुद्र लवण । सागवन, सागवान-मता पु० [हिं० सागौन] एक वृक्ष दे० सागरजमल- सज्ञा पु० [म०] समुद्रफेन । अधिकफ । 'शाल-१'। सागरघरा-सशा स्त्री० [म०] पृथ्वी । भूमि । सागस-वि० [म० स+पागस] मापराध । अपराधी । कस्रवार । सागरधीरचेता-वि० [म० सागरधीरचेतस्] समुद्र की तरह विशाल, उ०-प्रीतम की जब सागस लहै । व्यगि अव्यगि वचन कछु दृद तथा गभीर मनोवृत्तिवाला [को०] । कहै।-नद० ग्र०, पृ० १४७ । सागरनेमि, सागरनेमी-सज्ञा स्त्री० [म०] धरित्री। पृथ्वी । सागुन्य -सज्ञा पु० [म० शाकुनिक ( = मगुनियाँ), हिं० सगुन] सागरपर्यंत-त्रि० वि० [स० सागरपर्यन्त] १ सागर से घिरा हुआ शकुन विचारनेवाला । उ.-सागुन्य सगुन फल कहे जव्य । (जैसे,—पृथ्वी)। २ सागर तक । आसमुद्र [को०] । प्रमुदित्त मन चहुअान तब्ब ।-पृ० रा०, १७।४५ । सागरप्लवन-सचा पु० [स०] १ समुद्र पार करना । समुद्र सतरण । सागू-सज्ञा पुं० [अ० संगो] १ ताड की जाति का एक प्रकार का पेड २ घोडे की एक विशेष चाल (को०] । जो जावा, मुमाना, बोर्नियो आदि मे अधिकता से पाया जाता है सागरमति-संज्ञा पु० [स०] एक बोधिसत्व का नाम (को॰] । और वगाल तथा दक्षिण भारत मे भी लगाया जाता है। सागरमुद्रा-सज्ञा स्त्री० [स.] ध्यान, आराधना करने की एक प्रकार विशेष-इसके कई उपभेद है जिनमे से एक को माड भी कहते की मुद्रा। सागरमेखला--सज्ञा स्त्री० [स०] पृथ्वी । हैं। इसके पत्ते ताड के पत्तो की अपेक्षा कुछ लवे होते हैं और फल सुडौल गोलाकार होते है। इसके रेशो से रस्से, सागरलिपि-सञ्ज्ञा स्त्री० [म०] ललित विस्तर के अनुसार एक प्राचीन लिपि । टोकरे और बुरुश आदि बनते है। कही कहीं इसमे से पाछकर एक प्रकार का मादक रस भी निकाला जाता है और उस सागरवरधर-मज्ञा पुं० [म०] महासागर । रस से गुड भी बनता है। जब यह पद्रह वर्ष का हो जाता है सागरवासी-सज्ञा पु० [स० सागरवासिन] १ वह जो समुद्र मे रहता तब इसमे फल लगते है और इसके मोटे तने मे आटे की हो । समुद्र में रहनेवाला। २ वह जो समुद्र के तट पर रहता तरह का एक प्रकार का सफेद पदार्थ उत्पन्न होकर जम जाता हो । समुद्र के किनारे रहनेवाला। है। यदि यह पदार्थ निकाला न जाय, तो पेड सूख जाता है। सागरव्यूहगर्भ-मञ्च' पु० [स०] एक बोधिसत्व का नाम । यही पदार्थ निकालकर पीसते हैं और तव छोटे छोटे दानो के सागरशय-सज्ञा पु० [सं०] वह जो समुद्र मे सोता हो, विष्णु का एक रूप मे सुखाते है। कुछ वृक्ष ऐसे भी होते हैं जिनके तने के नाम किो०)। टुकडे टुकड़े करके उनमे से गूदा निकाल लिया जाता है और सागरशुक्ति--मज्ञा स्त्री॰ [स०] समुद्री सीप [को०] । पानी मे क्टकर दानो के रूप में सुखा लिया जाता है। इन्ही को सागरसुता -सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म.] लक्ष्मी [को०] । सागूदाना या साबूदाना कहते है। इस वृक्ष का सागरसूनु--सञ्चा पु० [स०] चद्रमा [को०) । जल्दी नही सडता, इसलिये उसे खोखला करके उससे नली का सागरात-सज्ञा पु० [म० सागरान्त] समुद्र का किनारा । काम लेते हैं। यह वृक्ष वर्षा ऋतु मे बीजो से लगाया जाता है। सागराता- सज्ञा सी० [म० मागरान्ता] पृथ्वी । धरती (को०] । २ दे० 'सागूदाना'। सागराबरा-मज्ञा स्त्री॰ [स० सागराम्बरा] पृथ्वी। सागूदाना-तशा पुं० [हिं० सागृ+ दाना] सागू नामक वृक्ष के तने सागरा-मशा पुं० [स० सागर १] श्री राग का एक पुन्न । उ०- का गूदा । साबूदाना। सावा सारग सागरा श्री गधारी भीर । अस्ट पुत्र श्रीराग के गोल विशेष—यह पहले आटे के स्प मे होता है और फिर कूटकर बुड गभीर।-माधवानल०, पृ० १६४ । दानो के रूप मे सुखा लिया जाता है। यह बहुत जल्दी पच तना पानी मे