पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२३३

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साखामृग ५०५३ सगर साखामृग जोरि 1 साखामृग- सज्ञा पु० [स० शाखामृग] दे० 'शाखामृग' । उ०-सठ साख्ता--वि० [फा० साख्तह] १ निर्मित । बनाया हुआ । २ वना- सहाई। बाधा सिंधु इहै प्रभुताई । वटी । कृत्रिम । नकली। -मानस, ६।२८। यौ-सास्ता परदारता = (१) पालापोमा । बनाया सँवारा । साखि-सज्ञा स्त्री॰ [म० साक्षि, प्रा० साविख] दे० 'साखी' । गवाही। (२) कृत । किया कराया। किया हुअा। उ०--व्याध, गनिका, गज, अजामिल सासि निगमनि भने । साख्त--सशा पु० [न० शाक्त, पु० हि० साकट, साकत] दे० -तुलसी ग्र०, पृ० ५३६ । 'शाक्त' । उ०--साख्त मुठे बाट महिं जानि न मिलहि हजूर । साखिल्य - सज्ञा पु० [स०] दोस्ती। मैत्री। मित्रता [को॰] । सत सहाई साथ विनु मरहि विसूर विसूर ।-प्राण, साखी'-सज्ञा पु० [स० साक्षि] साक्षी। गवाह । उ०—(क) ऊँच पृ०२५३। नीच व्यौरी न रहाइ। ताकी साखी मैं सुनि भाइ ।-सूर०, साख्तगी-सज्ञा स्त्री॰ [फा० साख्नगी] बनावट । गढन [को०] । ११२३० । (ख) सूरदास प्रभु अटक न मानत ग्वाल सर्व हैं साख्य-सञ्ज्ञा पु० [स०] सखा भाव । मैत्रो । मित्रता [को॰] । साखी। -सूर०, १०१७७४ । साख्यातg+ - अव्य० [म. साक्षा(क्पा) त्] दे० 'साक्षात्' । उ०- साखी-सशा स्त्री० १ साक्षी । गवाही। अवर सिरीमुख उक्त रा, उभ भेद अखियात । पहिलो कल्पत मुहा०-साखी पुकारना = साक्षी का कुछ कहना। साझी देना । पेखजै, समझ वियो साख्यात ।--रघु० रु०, पृ०४६ । गवाही देना। उ० - याते योग न आवै मन मे तू नीके साग-पज्ञा पु० [स० शाक] पौधो की खाने योग्य पत्तियाँ । शाक । करि राखि । सूरदास स्वामी के प्रागे निगम पुकारत भाजी। जैसे,-सोए, पालक, वथुए, मरसे आदि का साग । साखि । —सूर (शब्द०)। २ पकाई हुई भाजी। तरकारी। जैसे,--ग्रालू का साग, २ ज्ञान सत्रधी पद या दोहे । वह कविता जिसका विपय ज्ञान कुम्हडे का साग । (वैष्णव)। हो। जैसे,—कबीर की साखो। उ०-साखो मवदो दोहरा यौ०--मागपात = कदमूल । रूखासूखा भोजन । जैसे,—जो कुछ कहि किहनो उपयान । भगति निरूपहि भगत कलि निंदहि सागपात बना है, कृपा करके भोजन कीजिए। बेद पुरान ।--तुलसी ग्र०, पृ० १५१ । मुहा०-सागपात समझना = बहुत तुच्छ समझना । कुछ न साखी-संज्ञा पु० [स० शाखिन्] १ (शाखाप्रो वाला) वृक्ष । पेड । समझना। उ०-(क) तुलसीदास रुंध्यो यहै मठ साखि सिहारे । -तुलसी साग'---सज्ञा स्त्री० [स० शक्ति, हिं० सांग] दे० 'सांग'। उ०- (शब्द०)। (ख) धरती वान बेधि सब राखी। साखी ठाढ गहि सुभ साग उद्द कर लिनिय । लखत पसर सावतन किंनिय । देहिं सब साखी ।—जायसी (शब्द॰) । २ पिच । निर्णायक । -प० रासो०, पृ० १२० । साखीभूत-सज्ञा यु० [स० साक्षीभूत] दे० 'साक्षिभृत' । उ०- सागड़ी@--सज्ञा पु० [स० शाकटिक] शकट या रथ चलानेवाला । सारथी। करता है सो करेगा, दादू साखीभूत । -दादू०, पृ० ४५७ । उ०-सोच करै नह सागडी, धवल तणी दिस साखू-सचा पु० [म० शाख] शाल वृक्ष । सखुमा । अश्वकर्ण वृक्ष । भाल ।--बाँकी० ग्र०, भा० १, पृ० २८ । साखेय-वि० [म०] १ जो सखा या मित्र से सबधित हो। २. मैत्रीपूर्ण। सागम-वि० [म०] यथान्याय । न्याय्य । उचित । ईमानदारी से प्राप्त । वैधानिक [को०] । मिलनसार (को०] । सागरगम--वि० [स० सागरम्गम] दे० 'सागरग'। साखोचार--सञ्ज्ञा पु० [स० शाखोच्चार] दे० 'साखोचारन' । सागर-संज्ञा पु० [म०] १ समुद्र । उदधि । जलवि । दे० 'समुद्र' । उ०-वर कुअरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करै । विशेप--ऐसा माना जाता है कि राजा सगर के नाम पर 'सागर' --मानस, ११३२४ । शब्द पडा। साखोचारन@f--सज्ञा दै० [स० शाखोच्चारण] विवाह के अवमर २ बडा तालाव । झील । जलाशय । ३ सन्यासियो का एक भेद । पर वर और वधू के वश गोत्रादि का चिल्ला चित्लाकर परिचय ४ एक प्रकार का मृग। ५ चार को मख्या (को०)। ६ दस देने की क्रिया । गोत्रोच्चार । पद्म की सख्या (को०)। ७ एक नाग । नागदैत्य (को०)। साखोच्चार-सज्ञा पु० [म० शाखोच्चार] दे० 'साखोचारन' । ८ गत उत्सर्पिणी के तीसरे अहंत । ६ सगर के पुत्र (को०)। उ.-बर दुलहिनिहि विलोकि सकल मन रहसहि । साखो- मुहा०--सागर उमडना = प्राधिक्य होना। मात्रा मे अत्यधिक च्चार समय सब सुर मुनि बिहसहि ।-तुनसी ग्र०, पृ० ४१ । होना। उ०--सागर उमडा प्रेम का खेवटिया कोई एक। सब साखोट'-सञ्ज्ञा पु० [सं० शाखोट] शाखोट वृक्ष । सिहोर वृक्ष । प्रेमी मिलि बूडते जो यह नहिं होता टेक ।--कवीर सा० सिहोरा । भूतावास । स०, पृ०५१। साखोट:--वि० छोटा, टेढा और भद्दा (वृक्ष)। सागर--वि० सागर सवधी। समुद्र सवधी। साख्त'-सञ्ज्ञा स्त्री० [फा० सास्त] १ वनावट । गढन । २ कृत्रिमता। सागर--सज्ञा पु० [अ० सागर] १ प्याला। खोरा। २ भराव का वनावटोपन । ३ काट छॉट । तराश । ४ वहाना । व्याज प्याला । उ०-वचन का पी मागर सुराही अकल । भर्या मद वार्ता (को०] । फिरा सत अजा मे नवल ।--दक्खिनी०, पृ० २६७ ॥ हिं० २०१०-२८