सांचि ५०४३ सांटि । की हो जाती है। जैसे,-ई ट बनाने के लिये पहले उनका एक मानस, २।२४ । (ख) सखी सोभ सब वसि भई मनो कि साँचा तैयार किया जाता है, और तब उसी साँचे मे सुरखी, फूली सांभ।--१० रा०, १४१५५ । चना आदि भरकर ई टे बनाते है । साँझला-सज्ञा पुं० [म० सन्ध्या, हिं० सांझ+ला (प्रत्य॰)] उतनी मुहा०-साँचे मे ढला होना = (१) अग प्रत्यग से बहुत ही भूमि जितनी एक हल से दिन भर मे जोती जा सकती है। सुदर होना। रूप और प्राकार आदि मे बहुत सुदर होना। दिन भर मे जुत जानेवाली जमीन । उ०--वह सरापा के साँचे मे ढली थी -प्रेमघन, भा० २, सांझा-मज्ञा पु० [स० सार्द्ध, प्रा० सड्ढ, सद्ध सज्झ] व्यापार, व्यवसाय पृ० ४५४ । (२) सवेदनाहीन । एक रस। एक रूप । उ०- प्रादि मे होनेवाला हिस्मा । पत्ती । विशेप दे० साझा'। सध्या। अच्छी कुठारहित इकाई साँचे ढले समाज मे |--अरी ओ०, साँझिए-सञ्ज्ञा सी० [स० सन्ध्य, प्रा० सझा] दे० 'साँझ' । सध्या। पृ० ४ । साँचे मे ढालना = बहुत सुदर बनाना। उ०--साँभि ही सिंगार सजि प्रानप्यारे पास जाति ।-नद० २ वह छोटी प्राकृति जो कोई बड़ी प्राकृति वनाने से पहले नमूने ग्र०, पृ० ३१५। के तौर पर तैयार की जाती है और जिसे देखकर वही वडी आकृति बनाई जाती है। साँझी--सञ्ज्ञा स्त्री० [म० सान्ध्य या सज्जा ?] देवमदिरो मे देवतायो विशेष--प्राय कारीगर जब कोई वडी मूर्ति आदि बनाने लगते के सामने जमीन पर की हुई फूल पत्तो आदि की सजावट जो है, तब वे उसके आकार की मिट्टी, चूने, 'प्लस्टर ग्राफ पेरिस' विशेषत पितृपक्ष मे सायकाल के समय की जाती है । प्राय आदि की एक प्राकृति बना लेते हैं, और तव उसी के सावन के महीने मे शृगार आदि के अवसर पर भी ऐसी सजा- अनुसार वट होती है। धातु या पत्थर की प्राकृति बनाते है। ३ कपडे पर वेल बूटा छापने का टप्पा जो लकडी का बनता है। महा.--साँझी खेलना या सांझी पुजावना@--मायकाल के छापा । ४ एक हाथ लवी लकडी जिमपर सटक बनाने के लिये समय साँझी की सजावट तैयार करना या पूरी करना । उ०- सल्ला बनाते है। ५ जुलाहो की वे दो लकड़ियाँ जिनके बीच मे (क) सखि क्वार मास लग्यो सुहावन सबै सॉझी खेलही ।-- कूच के साल को दवाकर कसते है । भारतेंदु ग्र०, भा॰ २, पृ० ५०८ । (ख) पुजावति सॉझी कीरति साँचिन--वि० [स० सत्य, प्रा० मच्च] दे० 'साँच' । उ०--ई तो माय कुंवरि राधा को लाड लडाय । --धनानद, पृ० ५६१ । तिहारी अग्याकारिनि साँचि वात मोसौ कहा कही महराज । साँट'--सञ्ज्ञा स्त्री० [स० सट से अनु०] १ छडी। साँटी। पतली --नद० ग्र०, पृ०३६८। कमची।२ कोडा। ३ शरीर पर का वह लबा गहरा दाग साँचिया--सज्ञा पु० [हिं० साँचा + इया (प्रत्य०)] १ किसी चीज का जो कोडे या बेत का आघात पड़ने से होता है। साँचा बनानेवाला । २ धातु गलाकर साँचे मे ढालनेवाला। क्रि० प्र०--उभडना ।--पडना ।--लगना । उ०--हे मोरि साँचिना-वि० [हिं० माँच] सन्चा । साँचला। उ०--एक सनेही सपियाँ लागलि गुरु के साँट भइलि मनभावन ।-गुलाल, साँचिलो कोशलपाल कृपालु ।--तुलसी प्र०, पृ० साँचो'- सञ्चा पु० [सांची नगर?] एक प्रकार का पान जो खाने मे सॉट'--सज्ञा स्त्री दिश०१] लाल गदहपूरना। ठडा होता है। विशेष--दे० 'पान' । साँट.:--प्रज्ञा स्त्री० [हिं० सटना] लगाव । मिलान । लपेट । उ०- साँची'-वि० सी० [म० सत्य, प्रा० सच्च] सत्य । दे० 'साँच"। गगन मडल मे रास रचो लगि दृष्टि रूप कै साँट ।--भीखा० उ० - हरखी पभा बात सुनि साँची।--मानस, १।२६० । श०, पृ० १६। साँची-संज्ञा पु० [२] पुस्तको की छपाई का वह प्रकार जिसमे साँटमारी-सज्ञा स्त्री० [हिं०] हाथियो को साँटे मारकर लडाना। पक्तियाँ सीधे बल मे न होकर वेडे वल मे होती है। दे० 'साटमारी' । उ०--उसने बतलाया, इमाम अली । विशेष - इसमे पुस्तके चौडाई के बल मे नहीं बल्कि लवाई के काजी हूँ सरकार और सॉटमारी भी करता हूँ।--झाँसो०, वल मे लिखी या छापी जाती है। प्राचीन काल के जो लिखे पृ०६८॥ हुए ग्रथ मिलते हैं वे अधिकाश ऐसे ही होते है। इनमे पृष्ठ सॉटा-सज्ञा पु० [हिं० साँट (- छडी)] १ करघे के प्रागे लगा लवा अधिक और चोडा कम रहता है, और पक्तियाँ लबाई के हुआ वह डडा जिसे ऊपर नीचे करने से ताने के तार ऊपर बल मे होती है । प्राय ऐमी पुस्तके विना मिली हुई ही होती नीचे होते हैं । २ कोडा। ३ ऐड। ४ ईख। गन्ना । उ०-- है, और उनके पन्ने विलकुल एक दूसरे से अलग अलग गजा के दर्शनो को चलने के समय ब्राह्मण ने साँठे के टुकडो को होते हैं। नही देखा।-भारतेदु ग्र०, भा० ३, पृ० ३०। ५ प्रतिकार । सांचोरा:-सज्ञा पु० [देश॰] गुर्जर ब्राह्मणो की एक उपजाति । बदला। उ.--यह साटो लै कृपणवतार । तव बही तुम उ०-सो गोपालदास भगवद् इच्छा ते गजरात मे एक साँचोरा ससार पार ।--राम च०, पृ० ८६ । ब्राह्मण के प्रगटे।-दो सौ वावन०, भा० २, पृ० १० । सॉटि--सज्ञा स्त्री० [हिं० सटना] मेल मिलाप । उ०-निकस्यो मान साँझ -सञ्ज्ञा स्त्री० [म० सन्ध्या, प्रा० सझ, सझा] सध्या । शाम। गुमान सहित वह मैं यह होत न जानो। नैननि साँटि करी सायकाल । उ०-मॉझ समय सानद नृपु गएउ कैकई गेह। मिली नैननि उनही सो रुचि मानो।—सूर (शब्द०)। पृ०४६॥
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२२३
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