पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/९९

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वरहीपीड़ २३९२ बराना हैं। (२) संतान उत्पन्न होने के दिन से बारहवाँ दिन। बराड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बरार (देश) 7 बरार और खानदेश संशा या देश] (1) पत्थर आदि भारी बोझ उठाने का मोटा रम्पा । (२) जलाने की लकड़ी का भारी बोझ। बरात-संशा स्त्री० [सं० बरयात्रा ] (1) विवाह के समय वर के साथ ईधन का बोझ । उ०-(क) शक्ति भक्त सों बोलि दिनहि कन्या पक्षवालों के यहाँ जानेवाले लोगों का समूह, जिसमें प्रति वरही डारें ।-नाभाजी । (ख) नित उठ नौवा शोभा के लिये बाजे, हाथी, घोड़े, ऊँट या फुलवारी आदि नाव चढ़त है वरही बेरा बारि उही।-कबीर। भी रहती है। वर पक्ष के लोग जो विवाह के समय वर के बरहीपीड़-संज्ञा पुं० [सं० वहिंपीट ] मोर के परों का बना साथ कन्यावालों के यहाँ जाते हैं । जनेत । हुआ मुकुट । मोरमुकुट । उ०-वेगु बजाय बिलास कियो क्रि० प्र०-आना जाना ।-निकलना ।-सजना ।- वन धौरी धेनु बुलावत । बरहीपीद दाम गुजामणि अद्भुत सजाना। वेप बनावत ।-सूर। (२) कहीं एक साथ जानेवाले बहुत से लोगों का समूह । बरहीमुख* -संज्ञा पुं॰ [सं० बर्हिमुख ] देवता। (३) उन लोगों का समूह जो मुरदे के साथ श्मशान तक बरही-संशा पुं० [हिं० बरहा ] संतान उत्पन्न होने के दिन से । जाते हैं। (क.) वारहवाँ दिन । वरही। इसी दिन नामकरण होता है। बराती-संज्ञा पुं० [हिं० बरात+ई (प्रत्य॰)] (१) घरात में वर के विशेष-दे. "बरहो" । उ०-चारों भाइन नाम करन हित साथ कन्या के घर तक जानेवाला । विवाह में वर-पक्ष की बरहौं साज सजायो। रघुराज । ओर से सम्मिलित होनेवाला । (२) शव के साथ श्मशान वगंडल-संशा पुं० [ देश] () जहाज़ के उन रस्सों में से कोई तक जानेवाला । (क्व०) रस्या जो मस्सूल को सीधा खड़ा रखने के लिये उसके बरानकोट-संशा पुं० [अ० ब्राउनकोट ] (1) वह यड़ा कोट या चारों ओर, ऊपरी सिरे से लेकर नीचे जहाज़ के भिन्न भिन्न लबादा जो जाड़े या बरसात में सिपाही लोग अपनी वर्दी भागों तक बाँधे जाते हैं। वरांडा । थरांडाल । (२) जहाज़ के ऊपर पहनते हैं। (२) दे० “ओवरकोट"। में इसी प्रकार के और कामों में आनेवाला कोई रस्सा । बराना-क्रि० अ० [सं० वारण ] (१) प्रसंग पड़ने पर भी कोई (लश.)। बात न कहना । मतलब की बात छोड़कर और और याते बगंडा-संज्ञा पुं० (१) दे० "बरामदा"। (२) दे. "बसंडल । कहना। बचाना । उ०-बैठी सखीन की सोभै सभा सबै बरांडाल-संज्ञा पुं० दे० "बरांडल"। के जु नैनन माँझ बस । बुझे ते घात वराइ कहै मन ही मन बरांडी-संज्ञा स्त्री० [अ० । एक प्रकार की विलायती शराब । केशवराइ कहै । -केशव । (२) बहुत सी वस्तुओं या बातों मांडी। में से किसी एक वस्तु या यात को किसी कारण छोष देना। बरा-संज्ञा पुं० [सं० ब ] उड़द की पीसी हुई दाल का बना : जान बुझकर अलग करना । बचाना । उ०—साँवरे कुँवर हुआ, टिकिया के आकार का एक प्रकार का पकान जो धी के चरन के चित बराइ बधू पग धरति कहा धौं जिय जानि या तेल में पकाकर याही अथवा दही, इमली के पानी कै। तुलसी। (३) रक्षा करना । हिफाज़त करना। आदि में डालकर खाया जाता है। बड़ा । उ.--बरी बचाना । उ०-हम सब भाँति करब सेवकाई । करि केहरि बरा बेसन बहु भांतिन व्यंजन विविध अनगनियां । डारत अहि बाघ बराई।-तुलसी। (४) खेतों में से चूहों आदि स्वात लेत अपने कर रुचि मानत दधि दनियाँ।-सूर। को भगाना। संज्ञा पुं० [सं० वट । बरगद का पेड़ । क्रि० स० [सं० वरण ] बहुत सी चीज़ों में से अपने इच्छा- संज्ञा पुं० [ ? ] भुजदंड पर पहनने का एक नुसार कुछ चीजें धुनना । देख देखकर अलग करना । आभूषण । बहुँटा । टाँड़। छॉटना । उ०—(क) आसिष आयसु पाइ कपि सीय चरन बराई-संज्ञा स्त्री० दे० "बड़ाई"130-सरधा भगति को पराई भले सिर नाइ । तुलसी रावन बाग फल खात बराइ बराइ।-- साधि परै बाधि ये सुदृष्टि विसवास सम तूल हैं।-प्रियादास तुलसी । (ख) यादव वीर बराइ बराई इक हलधर इक आप संज्ञा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार का गजा। भोर ।--सूर। बराक-संज्ञा पुं० [सं० बगक ] (1) शिव । (२) युद्ध । लड़ाई। क्रि० स० दे० "बालना" ( जलाना )। उ०—देवो गुण वि० (१) शोचनीय । सोच करने के योग्य । (२) नीच ।। लियो नी के जल सों पछारि करि करी दिव्य याती दई दिये अधम । पापी । दुखिया । (३) थापुरा । बेचारा । उ० में बराइ कै ।-प्रियादास । धीर गंभीर मन पीर कारक तत्र के बराका वय विगत क्रि० स० [सं० वारि ] (1) सिंचाई का पानी एक नाली से सारा ।-तुलसी। दूसरी नाली में ले जाना । (२) खेतों में पानी देना ।