पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/९५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
बरछैत
बरदवान
२३८८

पत बरछैत-संज्ञा पुं० [हिं० बरछा+ऐत (प्रत्य॰)] परछा चलानेवाला। करना । जैसे,—यह कटोरा हम बरसों से बरत रहे हैं, पर भाला-बार । उ.-सहस दोय बरछत जेन कबहूँ मुख । अभी तक ज्यों का त्यों बना है। मोरत। -सूदन । बरतनी-संज्ञा स्त्री० [सं० वर्तनी 1 (1) लकड़ी आदि की बनी एक बरजन*/-कि० अ० [सं० वर्जन ] मना करना। रोकना । प्रकार की कलम जिससे विद्यार्थी लोग मिट्टी वा गुलाल निवारण करना । निषेध करना। आदि बिछाकर उसपर अक्षर लिखते है, अथवा तांत्रिक बरजनि* -संशा स्त्री० [सं० वर्जन ] (1) मनाही। (२) रुका लोग यंम्र आदि भरते हैं। (२) लेख-प्रणाली। लिखने वट। (३) रोक। का ढंग। बरजबान-वि० [फा० ] जो जवानी याद हो । मुखाय । कंठस्थ । बरतर-वि० [ फा 1 श्रेष्ठतर । अधिक अच्छा। बरजोर-वि० [हिं० बल, वर+फा० जोर ] (१) प्रथल । बलवान्।बरतरफ़-वि० [फा० बर+अ० तरफ़ ] (1) किनारे । अलग । जबरदस्त । उ० ते स्नरोर कपीस किसोर बड़े घरजोर एक ओर । (२) किसी कार्य, पद, नौकरी आदि से परे फग थाए ।--मुलगी। (१) अत्याचार अथवा अनुचित अलग । छुड़ाया हुआ। मोक्ता । बरखास्त । बल प्रयोग करनेवाला। क्रि०प्र०—करना ।—होना । कि०वि० (१) जबरंदस्ती । बलपूर्वक । (२) बहुत ज़ोर से। | बरताना-क्रि० स० [सं० वत्तन या वित्तरण ] सबको थोड़ा थोड़ा बरजोग्न-मंज्ञा पुं० [सं० वर.-पति+ft० जीरन=मिलान ] (1) देना। विसरण करना । बाँटना । विवाह के समय वर और वधू के पलों में गाँठ बाँधा जाना। | संयो० कि०-डालना ।—देना । (२) विवाह । (हिं.) बरताव-संज्ञा पुं० [हिं० बरतना का भाव ] बरतने का दंग । बरजोरी*-संज्ञा स्त्री० [हिं० बरजोर ] ज़बरदस्ती । बलप्रयोग। मिलने-जुलने, वात-चीत करने या बस्तने आदि का ढंग कि० वि० जबरदस्ती से । बलपूर्वक । या भाव । वह कर्म जो किसी के प्रति, किसी के संबंध बरत-संजा पुं० [सं० प्रत ऐया उपवाय जिपके करने से पुण्य में किया जाय । व्यवहार । जैसे,—(क) वे छोटे बड़े सब के हो। परमार्थ साधन के लिये किया हुआ उपवास । उपवास। साथ एक सा बरताव करते हैं । (ख) जिस आदमी का विशेष-- दे. “व्रत" । उ०—(क) नारद कहि संवाद बरताव अच्छा न हो, उसके पास किसी भले आदमी को अपारा । तीरथ घरत महा मत सारा । बलसिंह । (ख) जाना न चाहिए। विशेष-दे. "व्यवहार"। जप तप संध्या परत करि तजै खजाना कोप । कई रधुनाए | बरती-संज्ञा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार का पेड़ । ऐसे नृप रती न सलग दोप।-रघुनाथदास । वि० [सं० वतिन्, हिं . व्रता ] जिसने उपवास किया हो। संका मी० [हिं० वरना--बटना) (१) रस्मी। (२) नट की रस्सी जिसने व्रत रखा हो। जिसपर चढ़कर वह खेल करता है। उ.-(क) डीठ | संज्ञा स्त्री० दे० "बत्ती" । बरत बाँधी अनि चदि धावत न रात । इत उत ते चित बरतेला -संज्ञा स्त्री० [ देश० 1 जुलाहों की वह व्रटी जो करघे दुहुन के नट ली आवत जात ।-बिहारी। (ख) सीट परत की दाहिनी ओर रहती है और जिसमें ताने को कसा रखने पै धार के मन वट नट ही काम । रग तो आवत बाँधि के लिये उसमें धंधी हुई अंतिम रसती या जोते का के निकट बदन अभिराम । रसनिधि । (ग) दुहूँ कर दूपरा सिरा 'पिडा' या 'हथेला' (करघे के पीछे लगी लीन्हें दोऊ बैस विसवास वास टीठ की बरत चढ़ी नाचे हुई दूसरी खूटी) पीछे से घुमाकर लाया और भौं नटिनी।-देव। बाँधा जाता है। यह खूटी करघे की दाहिनी ओर बुनने- बरतन-संज्ञा पुं० [सं० वर्तन ] मिट्टी या धातु आदि की इस प्रकार वाले के दाहिने हाथ के पास इसलिये रहती है कि जिसमें बनी वस्तु कि उसमें कोई वस्तु-विशेषत: खाने पीने की वह आवश्यकतानुसार जोते को ढीला करता रहे और --रख सके। पात्र । जैसे, लोटा, माली, कटोरा, गिलास, उसके कारण ताना आगे बढ़ता आत्रे । हंडा, परात, घड़ा, हाँडी, मटका आदि । भाँद । भाँदा। धरतोरी-संशा पुं० [हे. बार+तोरना ] वह फुसी या फोदा जो संज्ञा पुं० [सं० वर्तन ] बरतना का भाव । बरताय ।। बाल उखड़ने के कारण हो। उ०—(क) जनु दुइ गयड व्यवहार। पाक बरतोरा।-तुलसी। (ख) ताते तन पेखियत घोर बर- बरतना-क्रि० अ० [सं० वर्तन] किसी के साथ किसी प्रकार का तोर मिसु फूटि फूटि निकसत है लोन राम राय को।- व्यवहार करना । बरताव करना । जैसे,—जो हमारे साथ | तुलसी। बरतेगा, उसके साथ हम भी बरतेंगे। बरदना-क्रि० अ० दे. "बरदाना"। क्रि० स० काम में लाना । व्यवहार में लाना। इस्तेमाल | घरदवान-संज्ञा पुं० [सं० वर+दामन् | कमखाब बुननेवालों के करघे मा