पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/६४

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बचकाना २३५७ बच्चा जौं मोरे मन बच अरु काया । प्रीति राम पद कमल रचि रचि बचन अलीक । सबै कहाउर हैं लखें लाल महाउर अमाया।-तुलसी। (ख) नैनन ही बिहँसि बि सि कौलों लीक ।-बिहारी । बोलिहौ जू बच हूँ तो बोलिये बिहँसि मुख बाल सों। मुहा०-बचन डालना-माँगना। याचना करना। बचन तोड़ना केशव । (ग) ताते मिलि मन भावती सों बलि ह्याते हहा वा छोरना-प्रतिशा से विचलित होना । कहकर न करना। बच मान हमारो। पद्माकर । प्रतिशा भंग करना । बचन देना-प्रतिज्ञा करना । वात हारना । संशा स्त्री० [सं० वचा ] एक प्रकार का पौधा जो काश्मीर उ.-निदान यशोदा ने देवकी को बचन दे कहा कि तेरा से आसाम तक और मनीपुर और बर्मा में दो हज़ार से छ । बालक मैं रक्तूंगी। लल्लूलाल। बच्चन पालना वा निभाना- हज़ार फुट तक ऊँचे पहाड़ों पर पानी के किनारे होता है। प्रतिशा के अनुसार कार्य करना । जो कुछ कहना वह करना । इसकी पत्ती सौसन की पत्ती के आकार की पर उससे कुछ बचन बाँधना=प्रतिज्ञा कराना। बचनबद्ध करना । उ..--नंद बड़ी होती है। इसके फूल नरगिस के फूल की तरह पीले यशोदा बच्चन बँधायो। ता कारण देही धरि आयो।-सूर । होते हैं। पत्तियों की नाल लंबी होती है। पत्तियों से एक बच्चन लेना-प्रतिज्ञा कराना । बचन हारना-प्रतिशाबद्ध होना । प्रकार का तेल निकाला जाता है जो खुला रहने से उब बात हारना। जाता है। इसकी जड़ लाली लिए सफेद रंग की होती है । बचनविदग्धा-संज्ञा स्त्री० दे० "वचनविदग्धा" ! जिसमें अनेक गाँउँ होती है। पत्तियाँ खाने में कडुई, चर्परी बचना-क्रि० अ० [सं० चन-न पाना ] (१)। कष्ट या विपत्ति और गरम होती हैं और उनमें से तेज गंध निकलती है। आदि से अलग रहना । रक्षित रहना । संभावना होने पर वैद्यक में इसे बमनकारक, दीपन, मल और मूत्रशोधक । भी किसी बुरी या दुःखद स्थिति में न पड़ना । जैसे,-शेर और कंठ को हितकर माना है तथा शूल, शोथ, वातज्वर, से बचना, गिरने से बचना । दंड से बचना । उ.-(क) कफ, मृगी और उन्माद का नाशक लिखा है। यह गठिया अक्षर त्रास सबन को होई। साधक सिद्ध बचै नहि कोई।- में ऊपर से लगाई भी जाती है। भावप्रकाश में बच तीन कबीर । (ख) बहुत दुखेह दुख की खानी । तब बचिही जब प्रकार की लिखी गई है-बच, खुरासानी बच और महाभरी रामहि जानी।-कबीर। (ग) धन धहराय धरी घरी जब करिहै बच । खुरासानी बच सफेद होती है। इसे मीठी बध भी झरनीर । चहूँ दिसि चमकै चंचला क्यों थचिहै बलबीर :--- कहते हैं। यह मति और मेधावर्धक तथा आयुवर्धक होती शृंग. सत०। (२) किसी खुरी बात से अलग रहना । जैसे,- है। महाभरी को कुलीजन भी कहते हैं। यह कफ और बुरी संगत से बचना । (२) किसी के अंतर्गत न आना । खाँसी को दूर करती है, गले को साफ़ करती, रुचि को ' छूट जाना । रह जाना । जैसे,--वहाँ कोई नहीं बचा जिस- बढ़ाती तथा मुख को शुद्ध करती है पर रंग न पड़ा हो। (४) खरचने या काम में आने पर पर्सा–उपगंधा । षड्ग्रंथा । गोलोमी । शतपर्विका । मंग- । शेष रह जाना । बाकी रहना । उ०—(क) मीत न नीत ल्या। जटिला । तीक्ष्णा । लोमशा । भद्रा । कांगा। गलीत यह जो धरिये धन जोरि । खाये वरचे जो बचे तो बचकाना-वि० [हिं० बच्चा-काना (प्रत्य॰)] [ सी बचकानी ] जोरिये करोरिस-बिहारी। (ख) बची खुची किरनन को (१) बश्नों के योग्य । बच्चों के लायक । जैसे, .. निज फर मनहु उठावत । उ०-रखावली । (५) अलग बचकाना जूता । (२) बञ्चों का सा । योबी अव रहना। दूर रहना । परहेज़ करना । जैसे,—तुम्हें तो इन स्था का। बातों से बहुत बचना चाहिए। (६) पीछे या अलग बचत-संशा स्त्री० [हिं० बचना ] (१) बचने का भाव । बचाव । . होना । हटना । जैसे, गाली से बचना । रक्षा। उ०—होती जो पै बचत कहुँ धीरज दालन पोट । कि० स० [सं० वचन] कहना । उ०—अबल प्रह्लाद बल देत मुख चतुरन हिये न लागती नैन बान की चोट।-रसनिधि। (२) : ही बचत दासधू व चरण चित्त सीस नायो। पांडु सुत विपतमो- बचा हुआ अंश । वह भाग जो व्यय होने से बच रहे। शेष। चन महादास लखि द्रोपदी चीर नाना बढ़ायो।-सूर । (३) लाभ । मुनाफ़ा। बचपन-संशा पुं० [हिं० बच्चा+पन (प्रत्य०)] (1) लड़कपन । बचन*-संज्ञा पुं० [सं० वचन ] (१) वाणी। वाक । उ.- बाल्यावस्था । (२) बच्चा होने का भाव । तुलसी सुनत एक एकनि सों जो चलत बिलोकि निहारे। बचवैया*-संज्ञा पुं० [हिं० बचाना+वैया (प्रत्य॰)] अचाने- मूकनि बचन लाहु मानों अंधन गहे हैं बिलोचन तारे।- वाला । रक्षक । तुलसी। (२) वचन । मुँह से निकला हुआ सार्थक शब्द । बचा*-संज्ञा पुं० [ फा० । सं० वत्स, पा० वच्छ, हिं० बच्चा । ] उ.--(क) रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाहु बरु [स्त्री० बच्ची ] लड़का । बालक । उ.-तुलसी सुनि सूर बच्चन न जाई।-सुलसी। (ख) कप्त कहियत दुख देन को सराहत है जग में बलसालि है बाल बचा-तुलसी। ५९० कागात ।